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अन्तर पीढ़ी संघर्ष की अवधारणा (Concept of Inter-generation Conflict)
अन्तर पीढ़ी संघर्ष से आशय उस संघर्ष से है जो नई पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी के बीच में होता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय के नवयुवकों एवं वृद्धजनों के विचारों में भिन्नता पायी जाती है और इस भिन्नता के कारण जो संघर्ष उत्पन्न होता है वह अन्तर-पीढ़ी संघर्ष कहलाता है। वास्तव में ये संघर्ष दोनों के बीच वैचारिक भिन्नता के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि वैचारिक भिन्नता नवीन पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी के मूल्यों, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रतिमानों, मनोवृत्तियों, विश्वासों, व्यवहार के तरीकों एवं सोचने-विचारने के ढंगों में अन्तर उत्पन्न करती है इसका प्रमुख कारण दो पीढ़ियों के मध्य पाया जाने वाला समयान्तर है। पुरानी पीढ़ी के लोगों के व्यक्तित्व का विकास भारत में हुआ था जोकि गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था जबकि आज समय परिवर्तित हो चुका है। आज की नयी पीढ़ी का विकास स्वतन्त्र भारत में हो रहा है। यही कारण है कि नयी पीढ़ी की विचारधाराएँ पुरानी पीढ़ी की विचारधाराओं से भिन्न होती हैं। वर्तमान समाज में अत्यधिक गतिशीलता नजर आती है और सामाजिक परिवर्तन की तीव्र गति से सामाजिक संरचना और कार्यों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है। पहले वृद्धजनों की पद प्रतिष्ठा थी और उसी के आधार पर उनका समाज में सम्मान होता था। आज इस स्थिति में परिवर्तन हो चुका है। आज के युग में सम्मान उसी का होता है जो अत्यधिक सम्पन्न होता है। आज के युग का प्रत्येक युवक आगे बढ़ना चाहता है, जिसके लिए वह पूर्ण प्रयत्न करता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सामान्यतः मूल्यों, आदर्शों, विचारों एवं अपने-अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व के कारण ही पुरानी पीढ़ी व नयी पीढ़ी में संघर्ष उत्पन्न होते हैं। पुरानी पीढ़ी के लोग जिन मान्यताओं पर विश्वास करते हैं उसके अनुसार ही वे नवीन पीढ़ी से आशा करते हैं कि नयी पीढ़ी भी अपने जीवन में इन्हीं मान्यताओं को स्वीकार करें जोकि सम्भव नहीं होता है। इसी कारण दोनों पीढ़ियों में संघर्ष उत्पन्न होता है जोकि अन्तर पीढ़ी संघर्ष कहलाता है।
धार्मिक क्षेत्र में अन्तर-पीढ़ी संघर्ष
प्राचीनकाल में भारत में विभिन्न धर्मों के अनुयायी बड़े आराम से सामाजिक जीवन यापन करते थे और सभी धर्मों में समन्वय पाया जाता था, लेकिन मुसलमानों के आगमन और अंग्रेजों के आगमन से धार्मिक संघर्षों में वृद्धि हुई। इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार और प्रसार के कारण भारत के विभिन्न धर्मानुयायियों में आपस में धार्मिक सौहार्द्र में कमी आयी। परिणामस्वरूप भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष नवीन पीढ़ी से ही प्रारम्भ हो गया और यह संघर्ष हिन्दू-मुसलमानों के मध्य समय-समय पर होता रहा और आज भी होता है।
जातीय क्षेत्र में अन्तर-पीढी संघर्ष
भारत में आरम्भ से ही जातीय क्षेत्र में अन्तर पीढी संघर्ष होता चला आ रहा है। प्राचीन काल में जाति प्रथा के कठोर नियम लागू थे जिनका पालन प्राचीन लोग ही करते थे। जैसे- जाति प्रथा के अन्तर्गत व्यवसायों का निर्धारण जन्म से ही हो जाता है लेकिन आज का नवयुवक जातिगत व्यवसाय नहीं करना चाहता है। आधुनिक युग में शिक्षा का इतना व्यापक प्रचार एवं प्रसार हो गया है जिसके कारण जो नेम्न जाति के लोग निर्धारित व्यावसायिक कार्य करते थे आज वे भी उन कार्यों को करने और निर्धारित प्रतिमानों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। जिसके कारण प्राचीन पीढ़ी और नवीन पीढ़ी के मध्य संघर्ष होता है। प्राचीनकाल में ब्राह्मण जाति के लोग धार्मिक कर्मकाण्ड करते थे और यज्ञ, कथा, भागवत एवं पुराणों आदि का वाचन भी करते थे। अपने इन कार्यों के कारण उनकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा व मान उम्मान होता था।
कृषक समाज में अन्तर-पीढ़ी संघर्ष
भारतीय कृषक समाज में भी पुरानी पीढ़ी व नयी पीढ़ी के विचारों में भिन्नता पायी जाती है जिसके कारण अन्तर पीढ़ी संघर्ष दिखाई पड़ता है। सामान्यतः कृषक समाज में दो लोग होते हैं। एक भू यामी और दूसरे श्रमिक-कृषक । पुरानी पीढ़ी के भू-स्वामी आज भी कृषक समाज से जुड़े हुए हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में ही रहकर कृषि कार्य से अपना जीवन यापन कर रहे हैं जबकि नयी पीढ़ी के भू-स्वामी अपनी भूमि को बेचकर नगरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसा करने से उन्हें पुरानी पीढ़ी के लोग रोकते हैं, जिसके कारण दोनों पीढ़ी के लोगों में संघर्ष होता है। इसी प्रकार श्रमिक वर्ग भू-स्वामियों की भूमि में खेती करके अपना जीवन यापन करते थे किन्तु नयी पीढ़ी के लोग यह कार्य नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उनकी भूमि में कृषि करने के साथ-साथ उनकी बेगार भी करनी पड़ती थी।
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