अनुक्रम (Contents)
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा, 2005: समावेशी शिक्षा के सन्दर्भ में (National Curriculum Framework, 2005: Context in inclusive Education)
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा, 2005: समावेशी शिक्षा के सन्दर्भ में- “समावेशन शब्द का अपने आप में कोई खास अर्थ नहीं होता है। समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढाँचा होता है, वही समावेशन को परिभाषित करता है। समावेशन की प्रक्रिया में बच्चे को न केवल लोकतन्त्र की भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है, बल्कि यह सीखने एवं विश्वास करने के लिए भी सक्षम बनाता है जो कि लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण है।”
वर्तमान में विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों के लिए शिक्षा की दो प्रकार की व्यवस्थाएँ है एक, वह जिन्हें हम विशेष विद्यालय कहते हैं जो ज्यादातर शहरों में स्थित आवासीय हैं, जिनका उद्देश्य केवल एक प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है और दूसरा तरीका है कि उन्हें अन्य सभी बालकों के साथ आस-पड़ोस के सामान्य विद्यालयों में भेजा जाये और वहीं उनकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था की जाए। इस प्रकार के विद्यालयों में सभी बालक एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर एक-दूसरे से सीख सकते हैं, परन्तु बालक को बाद में उसी समाज में रहना है जिसका वह हिस्सा है इसलिए क्यों न बालक को प्रारम्भ से ही उसी माहौल रखा जाये जहाँ उसे विद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् रहना है। इसलिए अच्छा होगा कि यदि आरम्भ से बालक को मुख्य धारा वाले ऐसे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा जाये जहाँ अन्य सामान्य बालक भी जाते हैं। इसी अवधारणा के साथ समावेशित शिक्षा व्यवस्था प्रणाली का आरम्भ हुआ।
समावेशी शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली है जिसमें प्रत्येक बालक को चाहे वह विशिष्ट हो या सामान्य, बिना किसी भेदभाव के, एक साथ, एक ही विद्यालय में, सभी ‘आवश्यक तकनीकों व सामग्रियों के साथ, उनकी सीखने-सिखाने की जरूरतों को पूरा किया जाए। समावेशी शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमताओं वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते हैं। इसके अनुसार प्रत्येक बालक अद्वितीय है और उसे अपने सहपाठियों की तरह कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता हो सकती है। बालक के पीछे रह जाने पर उसे दोषी नहीं ठहराया जाता है, बल्कि उसे कक्षा में भली-भाँति समाहित न कर पाने पर शिक्षक की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है ।
जिस प्रकार हमारा संविधान किसी भी आधार पर किये जाने वाले भेदभाव का निषेध करता है, उसी प्रकार समावेशित शिक्षा विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालक की, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के बावजूद उस बालक को अन्य बालकों से भिन्न न देखकर उसे एक स्वतन्त्र अधिवासकर्त्ता के रूप में देखती है।
समावेशी शिक्षा का महत्त्व व आवश्यकता (Need and Importance of Inclusive Education)
1. समावेशी शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च आकांक्षाओं के साथ उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।
2. समावेशी शिक्षा अन्य बालकों, अपने स्वयं की व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं में सामंजस्य बैठाने में मदद करती है।
3. समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की भावना के साथ-साथ विद्यालय में व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के अवसर प्रदान करती हैं।
4. समावेशी शिक्षा बालक को अन्य बालकों के समान कक्षा की गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है।
5. समावेशित शिक्षा बालकों की शिक्षा की गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है।
समावेशी/समावेशित शिक्षा के आधार (Bases of Inclusive Education)
प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है।
बालकों के सीखने के तौर तरीकों में विविधता होती है। अनुभवों के द्वारा, अनुकरण के माध्यम से, चर्चा, प्रश्न पूछना, सुनना, चिन्तन मनन खेल क्रियाकलापों, छोटे व बड़े समूहों में गतिविधियाँ करना आदि तरीकों के माध्यम से बालक अपने आसपास के परिवेश के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। इसलिए प्रत्येक बालक को सीखने-सिखाने के क्रम में समुचित अवसर प्रदान करना आवश्यक है।
बालकों को सीखने से पूर्व सीखने-सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक होता है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्मित करने की जरूरत होती हैं।
बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भाँति समझ विकसित हो चुकी है।
सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ-साथ विद्यालय के बाहर भी निरन्तर चलती रहती है। अतः सीखने-सीखाने की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यवस्थित किये की आवश्यकता है जिससे बालक पूर्ण रूप से उसमें सम्मिलित हो जाये और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें।
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया आरम्भ करने से पूर्व बालक के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगौलिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना आवश्यक है। प्रत्येक बालक की विविधता के प्रति आदर रखना।
समावेशी / समावेशित शिक्षा हेतु रणनीतियाँ (Strategies of Inclusive eduation)
समावेशी शिक्षा हेतु निम्नांकित रणनीतियाँ इस प्रकार हो सकती हैं-
समावेशित विद्यालय वातावरण- बालकों की शिक्षा चाहे वह किसी भी स्तर की हो, उसमें विद्यालय के वातावरण का बहुत योगदान होता है। विद्यालय का वातावरण ही कुछ चीजों की शिक्षा बालकों को स्वयं देता है। समावेशित शिक्षा के लिये यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण सुखद और स्वीकार्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त विद्यालय में विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक, चलिष्णुता, दैनिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक साज-समान शैक्षिक सहायताओं, उपकरणों, संसाधनों, भवन आदि का समुचित प्रबंध आवश्यक हैं। बिना इनके विद्यालय में समावेशित माहौल बनाने में कठिनाई हो सकती है।
सबके लिये विद्यालय- समावेशित शिक्षा की मूल भावना है एक ऐसा विद्यालय जहाँ सभी बालक एक साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं, परंतु सामान्यतः इस तरह की बातें देखने और सुनने में आती है कि किसी बालक का उसकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने में अपनी असमर्थता दर्शाते हुये, विद्यालय में प्रवेश देने से मना कर दिया या किसी विशेष विद्यालय में उसके दाखिले के लिये कहा गया हो।
समावेशित शिक्षा के उद्देश्यों को सभी बालकों तक पहुँचाने के लिये यह आवश्यक है कि विद्यालय में दाखिले की नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिए। हालाँकि शिक्षा के आधार अधिनियम 2009 इस सन्दर्भ में एक प्रभावी कदम कहा जा सकता है, परंतु धरातल पर इसकी वास्तविकता में अभी भी सन्देह होता है।
बालकों के अनुरूप पाठ्यक्रम- बालकों को शिक्षित करने का सबसे असरदार तरीका है कि उन्हें खेलने के तरीकों तथा गतिविधियों के माध्यम से सिखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। समावेशित शिक्षा व्यवस्था के लिये आवश्यक है कि विद्यालय पाठ्यक्रम, की अभिवृत्तियों, मनोवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुये निर्धारित बालकों किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम में विविधता तथा पर्याप्त लचीलता होनी चाहिए ताकि उसे प्रत्येक बालक की क्षमताओं, आवश्यकताओं, तथा रुचि के अनुसार अनुकूल बनाया जा सकें, बालकों के विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं का विकास हो सके, उसे विद्यालय से बाहर, बालक के सामाजिक जीवन से जोड़ा जा सकें, बालकों को सामाजिक रूप से एक उत्पादित नागरिक बनाने में योगदान दे सकें इसके अतिरिक्त बालक के समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सके।
मार्गदर्शन व निर्देशन की व्यवस्था- विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में नियमित शिक्षक, विशेष शिक्षक, अभिभावक और परिवार, समुदायिक अभिकरणों के साथ विद्यालय कर्मचारियों के बीच व्यवस्था और सहकारिता शामिल है।
समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत घर से विद्यालय जाते समय बालक को आरम्भ में नये परिवेश में अपने आपको समायोजित करने में कुछ असुविधा हो सकती है। जैसे आरम्भ में कक्षा के कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होना, दोस्तों का अभाव, नामकरण आदि के कारण बालक के आत्मविश्वास में कमी होना। इसके अतिरिक्त किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिवर्तनों के कठिनाई के दौर में मार्गदर्शन एवं निर्देशन से बालक को इस संक्रमण काल में काफी सहायता मिलती है। उचित मार्गदर्शन व निर्देशन बालक और उसके माता-पिता दोनों ही इन परिवर्तनों के लिये मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से तैयार किये जा सकते हैं।
सहायक तकनीकी उपकरणों का उपयोग- आज के युग में तकनीकी उपायों से मानव जीवन काफी हद तक सुगम हो गया है। मानव जीवन के प्रत्येक पहलु पर आज तकनीक का प्रभाव देखा जा सकता । समावेशित शिक्षा की सफलता के लिये और उसके प्रचार प्रसार के लिये शिक्षा व्यवस्था में तकनीक का उपयोग किये जाने की आवश्यकता है । टी.वी., कार्यक्रमों, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, सहायक शिक्षा व चतुष्णुता तकनीकी उपकरणों का उपयोग करके बालकों की शिक्षा, सामाजिक अन्तर्क्रिया, मनोरंजन, आदि में प्रभावशाली भूमिका निभाई जा सकती है। इसलिये, आज आवश्यकता इस बात की है कि समावेशित शिक्षा वातावरण हेतु बालकों, अभिभावकों, शिक्षकों को इसकी नवीन तकनीकी विधियों से परिचित करवाया जाये तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाये।
समुदाय की सक्रिय भागीदारी- विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा की पूरी बुनियाद प्रतिभागिता निर्मित करने पर टिकी हुई है। एक अकेले व्यक्ति के प्रयासों से उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है। समावेशित शिक्षा यह आवश्यक है कि विद्यालयों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाना चाहिए जिससे कि बालक की सामुदायिक जीवन की भावना को बल मिलें, क्योंकि उसे एक निश्चित के पश्चात् उसी समुदाय का एक सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना है। वैद्देश्य की प्राप्ति के लिये समय-समय पर विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम, वाद-विवाद, खेलकूद, देशाटन, जैसे मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए और उनमें बालकों के अभिभावकों और समाज के अन्य सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाना चाहिए जिससे कि उन्हें इन बालकों के एक समावेशित शिक्षा वातावरण में शिक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में फैली भ्रांतियों को दूर कर उन्हें इन बालकों की योग्यता व प्रतिभा से परीचित करवाया जा सके।
शिक्षकों का पर्याप्त प्रशिक्षण- शिक्षक को ही शिक्षा पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति तथा शैक्षिक संस्थानों की आधारशिला माना गया है। यद्यपि यह बात सत्य भी है कि विद्यालय भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य सहगामी क्रियायें, सहायक शिक्षण सामग्री, आदि सभी वस्तुएँ व क्रियाकलापों का भी शैक्षिक प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित करता है।
समावेशित शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि समावेशित शिक्षा-व्यवस्था में अध्यापक केवल अपने आपको शिक्षण-कार्य तक ही सीमित नहीं रखता है, अपितु विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों का कक्षा में उचित ढंग से समायोजन करना, उनके लिये विशिष्ट प्रकार की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग व सहकारपूर्ण व्यवहार करना, बालक को मिलनेवाली आर्थिक सुविधाओं का वितरण करना आदि कार्य भी करने पड़ते हैं। इसलिये अध्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्णतः निपुण हो, उसे विशिष्ट सामग्री की जानकारी हो, बालकों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक अभिवृत्तियाँ रखता हो, उनके मनोविज्ञान को समझता हो।
इस प्रकार समावेशी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना है। यह शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने का समर्थन करती है।