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कक्षा-कक्ष में भाषा के कार्य | functions of language in class room in hindi

कक्षा-कक्ष में भाषा के कार्य
कक्षा-कक्ष में भाषा के कार्य

कक्षा-कक्ष में भाषा के कार्य का वर्णन करें। (functions of language in class room)

कक्षा-कक्ष में भाषा निम्नलिखित कार्य करती है-

1. अर्थ ग्राह्यता- कक्षा-कक्ष में भाषा का प्रमुख कार्य अर्थग्राहाता प्रदान करना है। अर्थग्राह्यता से तात्पर्य है कि भाषा में जो कुछ बोला या लिखा गया है वह भली-भाँति समझ सकना। व्यक्ति भाषा के वार्तालापों और भाषणों आदि को अच्छी प्रकार से समझ सके। वह भाषा में प्राप्त पत्रों को प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों को पढ़ सके।

2. अभिव्यक्ति- अभिव्यक्ति से तात्पर्य है कि व्यक्ति मौखिक तथा लिखित रूप से अपने आपको अभिव्यक्त कर सके। यह अभिव्यक्ति स्पष्ट हो, कम-से-कम शब्दों में हो तथा सुसंगठित रूप में हो। इस अभिव्यक्ति में उसके निरीक्षण की, उसके स्वाध्याय तथा उसके अनुभवों की झलक हो । अभिव्यक्ति के माध्यम ही भाषा के कई कौशलों से छात्रों को परिचित कराया जाता है। उच्च माध्यमिक कक्षाओं में निबंध लेखन वास्तव में अभिव्यक्ति का ही अभ्यास है। मौखिक अभिव्यक्ति के समय छात्रों की उच्चारण संबंधी अशुद्धियाँ ठीक की जाती हैं और उनसे यह आशा की जाती है कि वे व्याकरण सम्मत भाषा का ही प्रयोग बोलते समय करें। लिखित अभिव्यक्ति की जाँच करते समय अध्यापक वर्तनी तथा व्याकरण संबंधी त्रुटियों को ही ठीक करता है। शुद्ध उच्चारण, वर्तनी तथा व्याकरण का भाषा में विशेष महत्व है। भाषा के द्वारा ही व्यक्ति अपने विचारों को अभिव्यक्त करता है। भारतीय विद्यालयों में जो भी भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं, उनके शब्दों तथा वाक्य-रचना आदि में काफी समानता है। हम उन्हें अलग-अलग पढ़ाते हैं। इससे व्यर्थ ही समय और शक्ति का अपव्यय होता है।

कक्षा-कक्ष में भाषा का अभिव्यक्तिकरण में महत्वपूर्ण स्थान होता है। भाषा के द्वारा ही मानव अपनी सृष्टि का निर्माण करता है। वह अपनी चेतना सम्पन्नता, बुद्धि एवं वाणी की सहायता से दुःखदायी एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को ढकेलता हुआ नवीनता के निर्माण में संलग्न होता है। इस सृष्टि निर्माण से सम्बद्ध विचारों की शृंखला का विनिमय एवं लेखा ही भाषा है। मानव अपनी आकांक्षाओं, वृत्तियों तथा मनोगत भावों का प्रकटीकरण भाव-मुद्राओं, संकेतों तथा भाषा द्वारा करता है। विशेषतः भाव-मुद्राएँ एवं संकेत भाषा के ही रूप हैं, परंतु वाणीगत भाषा को ही हम भाषा की संज्ञा मुद्राएँ देते हैं और यह भाषा सर्वमान्य, सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि भाव मुद्राओं एवं संकेतों द्वारा सूक्ष्म भावों का प्रकाशन नहीं हो सकता है। उनका क्षेत्र संकीर्ण है उनका संकलन नहीं किया जा सकता है तथा वे क्षणिक एवं अस्थायी होते हैं। हमारे मनोभावों का अभिव्यक्तिकरण करने में भाषा महत्वपूर्ण कार्य करती है छात्रों के मनोभावों को भिषक भाषा के माध्यम से ही समझ सकता है और उनके विचारों का परिमार्जन भी भाषा के द्वारा ही हो सकता है । भाष अभिव्यक्तिकरण का कक्षा-कक्ष में महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित करती है जिससे छात्र और शिक्षक के मध्य एक संबंध स्थापित हो जाता है। छात्रों के मनोभावों को शीघ्रता, निश्चिंतता तथा स्पष्टता के साथ शब्दमयी भाषा ही अभिव्यक्त कर सकती है। विभिन्न छात्र भी एक-दूसरे से अपने भावों एवं विचारों का आदान-प्रदान करने में शब्दमयी भाषा का ही सहारा लेते हैं। विचार करने पर हमारे मन में विभिन्न भाव एकत्र होते हैं। यह मस्तिष्क को उद्वेलित कर लेते हैं। भाषा के माध्यम से ही इनको अभिव्यक्ति छात्र करता है। भाषा ही वह साधन है जिसका प्रयोग करके छात्र अन्य छात्रों तथा समाज एवं समुदाय के साथ अन्तःक्रिया करता है। छात्र तथा विश के मध्य संबंधों को साकार रूप देने के लिए तथा उसे शब्दों द्वारा ताने-बाने में बाँधने की प्रक्रिया में भाषा अनिर्वचनीय भूमिका का निर्वाह करती है। मानवीय वैचारिक क्षमताओं तथा अभिव्यक्तियों को मुखरित करने के लिए भाषा ही सम्प्रेषण का कार्य करती है। यद्यपि मानव बहुत कुछ अपने विचारों का अभिव्यक्तिकरण संकेतों तथा हाव-भाव द्वारा कर सकता है क्योंकि मूक संकेतों के माध्यम से भी एक-दूसरे के भावों तथा विचारों को कुछ सीमा तक समझा जाता है परंतु भाषा से विभूषित होकर सूक्ष्म अंतर्मन तक के विचारों का अभिव्यक्तिकरण हो जाने से विचारों में जीवंतता आ जाती है। इसके फलस्वरूप वे विचार अधिक स्थायी तथा साकार होते हैं और उनकी पहचान भी सरल हो जाती है। विचार करने पर भाषा मस्तिष्क को उद्वेलित कर देती है और उस स्थिति में हम उस अवस्था का व्यक्तिकरण सार्थक शब्दों के द्वारा जितनी अच्छी तरह कर सकते हैं उतना किसी अन्य साधन द्वारा नहीं। भाषा स्वयं में एक रहस्य है तथा रहस्य होने के कारण यह छिपी होती है किंतु अज्ञात नहीं होती है। भावों के अभिव्यक्तिकरण के लिए हम कोई-न-कोई शब्द ढूँढ ही लेते हैं। इस रहस्य का उद्घाटन भाषा के ही प्रकाश में होता है।

3. ज्ञानार्जन- भाषा का एक महत्वपूर्ण कार्य छात्र को ज्ञान प्रदान करना भी है। आधुनिक समय में भाषा की प्रकृति विभिन्न प्रकार के ज्ञान का विषय बनी हुई है। भाषा विज्ञान क्षेत्र के अतिरिक्त दर्शन, मनोविज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र तथा नृविज्ञान के लिए भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है और इस क्षेत्र ने भी भाषा की प्रक्रिया में गहन रूचि दिखाई है। इस प्रकार भाषा अनेक प्रकार के अध्ययनों में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह कर रही है। भाषा धीरे-धीरे सार्थक ज्ञान प्रदान करने में अपनी भूमिका निभा रही है। मानवीय जीवन में परिवर्तन आते रहते हैं, क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह परिवर्तन ही प्रवाहपूर्ण जीवन-प्रवाह का पथ-विस्तारक है तथा विभिन्न समाज, संस्कृति, आचार-विचार, व्यवहार भाषा को गतिशील कर देने वाला चक्र है। देश एवं काल के अनुसार भाषा का एक स्वरूप नहीं रह पाता है, उसमें भी निरंतर परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार प्रत्येक देश में एक भाषा का प्रचार नहीं करता बल्कि उसके साथ-साथ अन्य भाषाओं का भी प्रचलन रहता है। भाषा चाहे कोई भी हो, यह हमें समाज तथा संस्कृति से जोड़ती है, भावों तथा विचारों के अभिव्यक्तिकरण में समर्थ बनाती है और हमारे ज्ञान क्षेत्र का विस्तार करती है।

4. बोधगम्यता का विकास- कक्षा-कक्ष में छात्रों में पठित सामग्री की बोधगम्यता का विकास भी होता है। छात्र पठित सामग्री के केंद्रीय भाव को विस्तार से ग्रहण कर लेता है। वह अनावश्यक स्थलों को छोड़ देता है। वह पठित सामग्री में से तथ्यों, भावों तथा विचारों का चुनाव करके उसका सारांश बता सकता है। वह भाषा पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो जाता है। वह पठित सामग्री से निष्कर्ष निकालने में भी समर्थ हो जाता है, वह विभिन्न प्रकरणों को उपयुक्त शीर्षक प्रदान कर सकता है। भाषा का एक कार्य उसमें व्याकरण के ज्ञान का विस्तार करना भी है। इससे भी छात्र पठित सामग्री के अर्थ को भली प्रकार समझ जाते हैं। और उनकी विषय में बोधगम्यता बढ़ जाती है।

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shubham yadav

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