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शिक्षा के साधन के रूप में घर/परिवार | Home/Family as a Medium of Education in Hindi

शिक्षा के साधन के रूप में घर परिवार
शिक्षा के साधन के रूप में घर परिवार

शिक्षा के साधन के रूप में घर/परिवार (Home/Family as a Medium of Education)

शिक्षा के साधन के रूप में घर/परिवार- परिवार एक ऐसी संस्था है जो सर्वत्र समाज में पाया जाता है। इसलिए इसे सार्वभौमिक संस्था माना जाता है। परिवार सभी समाजों में पाया जाता है। यद्यपि आदिम समाज में परिवार नहीं पाया जाता था परिवार की उत्पत्ति के बाद से ही व्यक्तिगत दायरे की शुरुआत हुई क्योंकि परिवार समाज की एक छोटी इकाई के रूप में विकसित हुआ। जहाँ व्यक्तिगत रूप से कुछ एक वस्तुओं तथा व्यक्तियों पर अपना व्यक्तिगत अधिकार का अस्तित्व शुरू हुआ। यह एक इकाई है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, भतीजे, पुत्र-पुत्री, दादा-दादी जैसे सम्बन्ध पाए जाते हैं।

घर / परिवार का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Home/Family)

परिवार शब्द फैमिली (Family) लैटिन शब्द फेमुलस (Famulas) से बना है और यह Famulas शब्द ‘एल्मर ने अपनी पुस्तक सोशियोलॉजी ऑफ फैमिली (Sociology of Family) में प्रतिपादित किया। Family शब्द रोमन भाषा से निकला है। Family शब्द एक ऐसी समिति, संस्था है जहाँ पर पति-पत्नी एक निवास में बच्चों सहित या बच्चों रहित रहते हैं। ‘मरडॉक’ ने अपनी पुस्तक ‘सोशल’ स्ट्रक्चर (1949) में ‘250’ समाजों का अध्ययन करने पर पाया कि कोई भी ऐसा समाज नहीं है जिसमें परिवार रूपी संस्था अनुपस्थित रही हो। इसलिए इसकी महत्ता की चर्चा करते हुए ‘मेकाइवर’ एवं ‘पेज’ ने कहा है कि संकटकाल में व्यक्ति देश के लिए युद्ध करता है और शहीद हो जाता है। लेकिन परिवार के लिए जीवन पर्यन्त परिश्रम करता है।

मैकाइवर तथा पेज ( Maciver and Page) के अनुसार, परिवार पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्धों द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों को पैदा करने तथा लालन-पालन करने की व्यवस्था करता है।”

गिलबर्ट के अनुसार, “साधारणतः परिवार में एक स्त्री और पुरुष का एक या एक से अधिक बच्चों के साथ स्थायी सम्बन्ध होता है।”

बर्गेस तथा लॉक के अनुसार, परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त अथवा गोद लेने के सम्बन्धों द्वारा एक-दूसरे से बंधे रहते हैं और एक गृहस्थी का निर्माण करते हैं।”

परिवार की विशेषताएँ (Characteristics of Family)

परिवार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) सार्वभौमिक संस्था (Universal Institution)- सम्पूर्ण विश्व के प्रत्येक देश में परिवार किसी न किसी रूप में पाया जाता है अतः यह एक सार्वभौमिक संस्था है। सभी मनुष्य किसी न किसी परिवार के सदस्य अवश्य होते हैं।

(2) सामाजिक संरचना में केन्द्रीय स्थिति (Nuclear Position in the Social Structure) – सामाजिक संरचना में परिवार की केन्द्रीय स्थिति होती है तथा समाज का निर्माण भी परिवार रूपी इकाइयों से मिलकर होता है।

(3) रक्त सम्बन्ध एवं वंश परम्परा की व्यवस्था (System of Blood Relation and Dynasty)- सभी परिवारों में जो भी बच्चे पैदा होते हैं उनमें आपस में और माँ-बाप में रक्त सम्बन्ध पाया जाता है। सभी परिवारों में वंश परम्परा की व्यवस्था के आधार पर नामकरण किया जाता है उसी के नाम से परिवार के बच्चे पहचाने जाते हैं। पितृवंशीय परिवारों में यह नामकरण पिता के वंश के आधार पर एवं मातृवंशीय परिवारों में यह नामकरण माता के वंश के आधार पर किया जाता है।

(4) निश्चित निवास स्थान (Permanent House)- निवास स्थान लगभग निश्चित हीं होता है परन्तु कुछेक दशाओं में जैसे नौकरी के लिए अन्यत्र बसना आदि के कारण परिवार समाप्त नहीं हो जाता।

(5) आर्थिक व्यवस्था (Economic System)- परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण करने के लिए परिवार में श्रम विभाजन होता है। इसी विभाजन के फलस्वरूप विभिन्न सदस्यों को कई प्रकार की जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती हैं। इसी जिम्मेदारी के आधार पर उनकी परिवार में स्थिति तय हो जाती है। पुरुष और महिला लैंगिक असमानता का जन्म इसी श्रम विभाजन के फलस्वरूप ही होता है। स्त्रियों को खाने-पीने की व्यवस्था और घर का प्रबन्धन का कार्य दिए जाने के कारण ही उनको घर की चहारदिवारी में रहना पड़ता है।

(6) पति-पत्नी का सम्बन्ध (Relationship of Husband-Wife) – पति-पत्नी के बीच यौन सम्बन्ध ही परिवार का आधार होता है। इसके बिना परिवार का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है। वंश को आगे बढ़ाना परिवार का प्रमुख कार्य है। दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में होते हैं। किसी का भी योगदान कम या अधिक नहीं होता बल्कि कहा जा सकता है कि बच्चे बिना पुरुष के पैदा नहीं हो सकते पर बिना महिला के वह बच्चा अच्छी तरह पल नहीं सकता। इस आधार पर जैविक और मनोवैज्ञानिक रूप से विकास करने के लिए स्त्री का होना पुरुष की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण है।

(7) यौन सम्बन्धों की स्वीकृति (Acceptance of Sexual Relationship) – विवाह के बाद यौन सम्बन्ध को समाज की स्वीकृति मिल जाती है जिसके परिणामस्वरूप सन्तानोत्पत्ति होती है। माता-पिता तथा उनके पाल्य मिलकर एक परिवार का निर्माण करते हैं। विवाह से पहले पुरुष और स्त्री यदि यौन सम्बन्ध बनाते भी हैं तो वह वैध नहीं माना जाता और यदि बच्चा भी पैदा हो जाए तो वह परिवार नहीं माना जाता।

(8) सामाजिक सुरक्षा (Social Security) – परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे को सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में पुरुष, महिलाओं की रक्षा करते हैं और उन्हें समाज के अन्य लोगों से बचाते हैं। इसी सामाजिक सुरक्षा के कारण पुरुषों का वर्चस्व कायम हो गया और स्त्रियाँ पुरुषों पर निर्भर हो गई।

(9) सभ्यता एवं संस्कृति का संवाहक (Conductor of Civilisation and Culture) – परिवार को सभ्यता और संस्कृति का संवाहक माना गया है। इस भूमिका में स्त्रियों को ऊँचा स्थान दिया गया है और तरह-तरह के अनुष्ठानों, व्रत, पूजा-पाठ, संस्कार आदि के लिए स्त्रियों की उपस्थिति को स्वीकारा गया है।

(10) भावात्मक आधार (Emotional Basis)- परिवार के सदस्य आपस में पारस्परिक भावात्मक रूप से बंधे हुए होते हैं। माता-पिता तथा उनके पाल्यों के मध्य त्याग व स्नेह की भावना पाई जाती है जो पारिवारिक संगठन को सुदृढ़ बनाती है। परिवार प्रेम, यौन सम्बन्ध, दया, ममता, सहयोग आदि भावनाओं को एक महत्वपूर्ण आधार देता है। सभी बच्चे परिवार से ही इन भावनाओं को सीखना आरम्भ करते हैं।

(11) परिवार वास्तविक सदस्यों से मिलकर बनता है (Family is Made up of Real Members) – परिवार में अपने रक्त सम्बन्ध और शादी-शुदा लोग ही शामिल होते हैं। बाहर का कोई भी सदस्य इसकी सदस्यता प्राप्त नहीं कर सकता।

(12) स्थायी प्रकृति (Permanent Nature)- परिवार एक ऐसी सामाजिक संस्था है जिसकी प्रकृति स्थायी होती है क्योंकि इसके सदस्य स्थाई होते हैं।

बालक को आकार देने में घर (परिवार) की भूमिका (Role of Family to Shape up the Child)

बालक को आकार देने में परिवार की भूमिका निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है-

(1) बालकों के स्वयं को आकार देने में परिवार का महत्व अद्वितीय है। बच्चा एक परिवार में जन्म लेकर वह उस परिवार का सदस्य बन जाता है। चूँकि परिवार एक प्राथमिक समूह है, अतः इसके सदस्यों जैसे- माता-पिता, भाई-बहिन, चाचा-चाची आदि में एक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इनके बीच दुलार-प्यार सहयोग आदि की भावना अधिक होती है। इन सबका प्रभाव बालक के स्वयं के आकार पर पड़ता है।

(2) अनेक समाजशात्रियों एवं समाज मनोवैज्ञानिकों का सामान्य मत यही है कि परिवार ही वह पहली संस्था होती है जो बच्चों को शिष्टाचार एवं नैतिक विकास की शिक्षा देकर उसे एक योग्य व्यक्ति बनाता है।” डाफ्लीयूर. डी. एन्टोनियो एवं डीफ्लीयूर के अनुसार, संस्कृति एवं सामाजिक क्रम के सार तत्वों को बच्चों को पढ़ाने की एवं उनके व्यक्तिगत विकास को निर्देशन करने की जवाबदेही हमेशा परिवार पर ही होती है।”

(3) बालक को यदि अकेला छोड़ दिया जाए तो वह जीवित नहीं रह सकता। उसे भोजन, सुरक्षा एवं सहानुभूति परिवार के सदस्यों से मिलती है। इस प्रकार बालक सामाजिक व्यवहार अपने परिवार के सदस्यों से सीखता है। अपने परिवार के सदस्यों के तथा दूसरे सामाजिक प्राणियों के प्रशिक्षण के आधार पर ही उसके सामाजिक आत्म की उत्पत्ति होती है।

(4) सर्वप्रथम बालक को प्रभावित करने वाली उसकी माता होती है। बालक अपनी माता पर निर्भर रहता है। माता उसको अनेक प्रकार के अनुशासन सिखाती है। माता बालक की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है और उसको सुरक्षा प्रदान करती है। यह माता तथा बालक के सम्बन्ध ऐसे गुणों के आधार पर बन जाते हैं जैसे- प्रेम, सहानुभूति, सहयोग इत्यादि। माता बालक को खाने की मल-मूत्र त्यागने की, सोने आदि की आदतें सिखाती है। अतः बालक अनेक अनुशासन अपनी माता से ही सीखता है और अपने आपको सुरक्षित तथा माता पर आश्रित समझता है।

(5) माता का प्रेम ही बालक में सहानुभूति तथा प्रेम की आधारशिला बन जाती है। जो अनुशासन बालक के ऊपर लादे जाते हैं वे उसे यह सिखा देते हैं कि अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूसरों की आवश्यकताओं को ध्यान रखना आवश्यक है या नहीं। बालक को सिखा दिया जाता है कि कब खाना खाए, कब खेले, कब बोले इत्यादि। उसको यह सिखा दिया जाता है कि यदि वह अच्छा व्यवहार नहीं करेगा या अपनी माता की शिक्षा के आधार पर कार्य नहीं करेगा तो उसे अच्छा नहीं समझा जाएगा। इस प्रकार ये बालक उन व्यवहारों को मजबूत कर लेता है जो दूसरों के द्वारा पसंद किए जाते हैं और उनका दमन कर लेता है जिन्हें वह नापसन्द करते हैं।

(6) माता के अतिरिक्त परिवार के सदस्यों की भी स्वयं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह बालक को सुरक्षा व प्रेम प्रदान करते हैं किन्तु वह कुछ अनुशासन भी उसके ऊपर लाद देते हैं। उदाहरण के लिए- बालक का पिता बालक के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करता है उसे सुरक्षा प्रदान करता है। किन्तु बालक को ऐसा प्रशिक्षण भी देता है तथा उसमें ऐसी आदतों का विकास करता है जो दूसरों के द्वारा पसन्द की जाती हैं। बालक को इस बात की स्वतंत्रता नहीं मिलती है कि चाहे जिस ढंग से अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति कर ले, उनकी सन्तुष्टि करने के लिए उस पर अनेक अवरोध लगा दिए जाते हैं।

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shubham yadav

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