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निबंधात्मक परीक्षा के गुण या लाभ, दोष या अवगुण या सीमाएँ

निबंधात्मक परीक्षा के गुण या लाभ
निबंधात्मक परीक्षा के गुण या लाभ

निबंधात्मक परीक्षा (Essay type Examination)

परीक्षा की यह प्रणाली पहले भी प्रचलित थी और आज भी इसका उपयोग व्यापक रूप से होता है। पाठ्यक्रम से अधिकारियों या शिक्षकों द्वारा कुछ प्रश्न ( प्रायः नौ-दस) चुन लिए जाते हैं। प्रयास किया जाता है कि प्रश्नों का चयन समग्र रूप से हो सके विभिन्न स्वरूप के प्रश्नों का निर्माण किया जाता है। कुछ प्रश्न सरल होते हैं और कुछ बड़े कठिन होते हैं। कुछ प्रश्न एक ही वाक्य के होते हैं और कुछ कई खंडों में विभाजित होते हैं इसी तरह कोई प्रश्न वर्णात्मक तथा कोई विवेचनात्मक होता है। इन विविध प्रश्नों में से छात्रों को केवल पाँच या छः प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते हैं। इसके समय (प्राय: तीन-चार घंटे) निश्चित रहते हैं। विद्यार्थियों की उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच परीक्षक करते हैं। परीक्षक द्वारा जो अंक दिए जाते हैं, उसी आधार पर विद्यार्थियों को सफल या असफल घोषित किया जाता है।

निबंधात्मक परीक्षा के गुण या लाभ (Merits or Advantages of Easy Type Examination)

निबंधात्मक परीक्षा के गुण अथवा लाभ अग्रलिखित हैं-

(i) सुलभ विधि (Easy method)- विद्यार्थियों के ज्ञानोपार्जन को जाँचने की यह एक सुलभ विधि है इसके निर्माण में शिक्षकों या अधिकारियों को अधिक कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है । प्रत्येक पाठ्य से एक या दो प्रश्न चुन लिए जाते हैं और विद्यार्थियों से निश्चित समय में पाँच-छ: प्रश्नों के उत्तर लिखने के लिए कहा जाता है। उनके प्रश्नोत्तरों के आधार पर उनकी योग्यता की जाँच हो जाती है।

(ii) व्यापकता (Extensiveness)- इस परीक्षा में विद्यार्थियों को अपने विचारों तथा योग्यताओं को व्यापक रूप में व्यक्त करने का अवसर मिलता है। उन्हें स्वतंत्रता होती है कि वे किसी प्रश्न का उत्तर अपनी भाषा में अपने ढंग से दे सकें। प्रश्नों के उत्तर तैयार करते समय विद्यार्थियों को अपने सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पढ़ना पड़ता है; क्योंकि सम्पूर्ण पाठ्यक्रम से प्रश्नों के आने की संभावना होती है। इस प्रकार इस परीक्षण के द्वारा पाठ्यक्रम के सभी अंशों का मापन हो जाता है।

(iii) संगठन एवं विवेक-योग्यता में वृद्धि (Increase in integration and reasoning capacities)- निबन्धात्मक परीक्षा के लिए तैयारी करने में विद्यार्थियों को अपने पाठ्यक्रम के आवश्यक अंशों को चुन कर संगठित करना पड़ता है तथा अनावश्यक अंशों को छोड़ देना पड़ता है। इस प्रकार संगठित तथ्यों के भाषाबद्ध करके प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है । इससे विद्यार्थियों की संगठन योग्यता के विकास में सहायता मिलती है। इसी तरह उनकी विवेक-योग्यता में भी वृद्धि होती है। बिना विवेक के पाठ्यक्रम के आवश्यक तथा अनावश्यक अंशों में भेद करना संभव नहीं है।

(iv) रचनात्मक चिंतन में बुद्धि (Increase in creative thinking)- निबन्धात्मक परीक्षा से विद्यार्थियों के रचनात्मक चिंतन के विकास में सहायता मिलती है। प्रश्नपत्र में कुछ प्रश्न ऐसे रहते हैं जिन्हें विद्यार्थियों को अपनी बुद्धि तथा योग्यताओं के अनुसार विकसित करना पड़ता है। जैसे-किसी विषय के कुछ सूचित अंशों के आधार पर विद्यार्थियों को एक लेख लिखने अथवा एक कहानी की रचना करने के लिए कहा जाता है। स्पष्ट कि ऐसे प्रश्नों के समाधान से उनमें रचनात्मक चिंतन के विकसित होने में सहायता मिलती है।

(v) भाषा का मूल्यांकन (Evaluation of language) – इस परीक्षा से विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता के साथ-साथ उनकी भाषा की भी जाँच हो जाती है। एक ओर तथ्यों के स्मरण एवं संगठन का मापन होता है और दूसरी ओर भाषा की शुद्धता एवं शैली की परीक्षा होती है । इसलिए प्रश्नोत्तरों की जाँच करते समय भाषा की शुद्धता को भी ध्यान में रखा जाता है। इससे बच्चों को अपनी भाषा को उन्नत बनाने की प्रेरणा मिलती है।

(vi) व्यक्तित्व मूल्यांकन (Personality evaluation) — निबन्धात्मक परीक्षा से विद्यार्थियों के व्यक्तित्व मूल्यांकन एवं जीवन-शैली का भी ज्ञान हो जाता है। विशेष रूप से विवेचनात्मक परीक्षा के उत्तर देते समय छात्र अपने जीवन-शैली से प्रभावित होते हैं। इसी तरह जिन प्रश्नों के उत्तर में रचनात्मक चिंतन की आवश्यकता होती है, उनके द्वारा भी विद्यार्थियों के शीलगुण की अभिव्यक्ति होती है। इस दृष्टिकोण से निबन्धात्मक परीक्षा को यदि प्रक्षेपण-परीक्षण कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी।

(vii) निरीक्षण संबंधी दोष का अभाव (Lack of observational fallacy)- मौखिक परीक्षा की तुलना में यह परीक्षा निरीक्षण संबंधी दोषों से मुक्त है। कारण यह है कि प्रश्नोत्तरों की जाँच करते समय परीक्षक के सामने परीक्षार्थी उपस्थित नहीं होते हैं। उत्तर-पस्तिकाओं पर परीक्षार्थियों के नाम और पता का उल्लेख नहीं रहता है। अतः पक्षपात करने की संभावना प्रतीत नहीं होती है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि निबन्धात्मक परीक्षा की उपर्युक्त अनेक उपयोगिताएँ हैं जिनके कारण इसका उपयोग आज भी व्यापक रूप से होता है।

निबन्धात्मक परीक्षा के दोष या अवगुण या सीमाएँ (Demerits or Limitations of Essay Type Examination)

निबन्धात्मक परीक्षा में अनेक अवगुण पाए जाते हैं। सच्ची बात यह है कि अवगुणों की तुलना में इसके गुण नगण्य हैं। वस्तुतः इसमें निम्नलिखित अवगुण पाए जाते हैं-

1. सीमित क्षेत्र (Limited coverage)- निबन्धात्मक परीक्षा का क्षेत्र बहुत ही सीमित है इसमें प्राय: दस या बारह प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनमें परीक्षार्थियों को तीन घंटे के भीतर पाँच या छः प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते हैं। स्पष्ट है कि प्रश्नों के इस सीमित क्षेत्र में पाठ्यक्रम के सभी अंशों को सम्मिलित करना संभव नहीं है। इसलिए प्रश्न चुनते समय पाठ्यक्रम के बहुत से अंश छूट जाते हैं।

2. रटने पर बल (Stress on rote learning) — इस परीक्षा-प्रणाली से विद्यार्थियों को रटने का प्रोत्साहन मिलता है। प्रश्नोत्तरों की जाँच करते समय परीक्षक यह नहीं देखता कि उत्तर रटकर लिखे गए हैं अथवा समझकर। इसलिए विद्यार्थी अपने पाठ्यक्रम या उसके कुछ अंशों को तोते की तरह रट लेते हैं और अपनी उत्तर-पुस्तिका में उसी तरह लिखकर अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन, इससे उनकी वास्तविक योग्यता का मापन नहीं हो पाता है। स्पष्ट है कि इस परीक्षा से विद्यार्थियों की स्मरण-शक्ति का मापन भले हो जाए, किन्तु उनकी वास्तविक योग्यता की जाँच नहीं हो सकती।

3. अनुमान की सफलता या चूक (Hit or miss) — इस परीक्षा से विद्यार्थियों को अनुमान एवं अटकलबाजी की ओर अग्रसर होने का प्रोत्साहन मिलता है। परीक्षा के पूर्व प्रश्नों के संबंध में तरह-तरह के अनुमान लगाए जाते हैं और इसके फलस्वरूप पाठ्यक्रम के उन्हीं अंशों को पढ़ा जाता है जिससे प्रश्न आने की संभावना अधिक होती है। परीक्षा में यदि अनुमानित प्रश्न आते हैं तो विद्यार्थी अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं अन्यथा उत्तीर्णांक पर भी आफत आ जाती है। अतः विद्यार्थियों की सफलता या असफलता उनकी वास्तविक योग्यता पर निर्भर नहीं करती है वरन् उनके अनुमानित प्रश्नों के चुनाव पर निर्भर करती है । आधुनिक युग में बाजारू गेस पेपर तथा सस्ती पुस्तकों के निकल जाने के कारण अधिकांश विद्यार्थी अपनी पुस्तकों की सूचियों से भी अवगत नहीं हो पाते। और मजे की बात यह कि वर्ग में शिक्षक भी पाठ्यक्रम के उन्हीं अंशों को पढ़ाते हैं अथवा उत्तर तैयार कराते हैं जिनसे परीक्षा में प्रश्न आने की संभावना होती है। ऐसी दशा में विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता एवं ज्ञान उपार्जन की जाँच कहाँ तक हो सकेगी, इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं।

4. प्रश्नों का संदिग्ध अर्थ ( Ambiguity of questions) – प्रश्न-पत्र में कुछ प्रश्नों की भाषा ऐसी द्विअर्थी होती है उनका अर्थ विभिन्न परीक्षार्थी विभिन्न रूपों में लगा लेते हैं और उसी के अनुकूल प्रश्नोत्तर लिखते हैं। फल यह होता है कि विषय-वस्तु का ज्ञान रहते हुए भी उनका उत्तर गलत हो जाता है और वे असफल हो जाते हैं या कम अंक प्राप्त करते हैं। इसलिए स्कीनर ने कहा है, “जब तक प्रश्नों का निर्माण स्पष्ट तथा एकअर्थी नहीं होगा, विद्यार्थी उनकी व्याख्या गलत ढंग से कर सकते हैं। “

5. समय एवं श्रम का अधिक व्यय (Time and labour consuming)- निबन्धात्मक परीक्षा में समय तथा श्रम का व्यय अधिक होता है। परीक्षा भवन में तीन-चार घंटे तक विद्यार्थियों को लगातार प्रश्नों के उत्तर लिखने पड़ते हैं। इसी तरह उत्तर-पुस्तिकाओं को जाँचने में परीक्षकों को काफी समय देना पड़ता है और कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। इसके फलस्वरूप परीक्षाफल की घोषणा में बहुत विलम्ब हो जाता है।

6. अनावश्यक तथ्यों का लाभ (Credit for unwanted elements)– निबन्धात्मक परीक्षा में प्रश्नोत्तरों के अनावश्यक अंशों के लिए भी विद्यार्थियों को अंक मिल जाने की संभावना रहती है। कुछ विद्यार्थी इतने चतुर होते हैं कि प्रश्न के सही उत्तर नहीं जानने पर भी कुछ अनावश्यक तत्वों को अपनी आकर्षक भाषा की चादर में इस प्रकार लपेट देते हैं कि परीक्षक प्रश्नोत्तर के महज बाह्य आकर्षण से प्रभावित होकर अंक दे देता है। वस्तुतः ऐसे प्रश्नोत्तरों में आवश्यक तत्त्वों के अतिरिक्त और गुण वर्तमान रहते हैं।

7. स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद (Harmful for health)- परम्परागत परीक्षा-प्रणाली शिक्षक तथा विद्यार्थी दोनों के स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। प्रायः देखा जाता है कि विद्यार्थी अपने अधिक समय को खेल-कूद में बिताते हैं और अन्तिम समय में परीक्षा की तैयारी के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करते हैं। इससे उनका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य गिर जाता है। इसी तरह थोड़े समय में सैकड़ों उत्तर-पुस्तिकाओं को जाँचने के लिए परीक्षकों को काफी परिश्रम करना पड़ता। इसका बहुत ही बुरा प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है।

8. मूल्यांकन का अवैज्ञानिक आधार (Unscientific marking basis)- निबन्धात्मक परीक्षा की सबसे बड़ी त्रुटि उत्तर-पुस्तिकाओं को जाँचने का अवैज्ञानिक आधार है । उत्तरों को जाँचते समय परीक्षकों के सामने कोई समान मापदण्ड नहीं होता है। सभी परीक्षकों का अलग-अलग व्यक्तिगत मापदण्ड होता है। इसलिए, एक ही उत्तर पर विभिन्न परीक्षकों द्वारा विभिन्न अंक दिए जाते है। यहाँ तक कि एक ही परीक्षक विभिन्न समय में एक ही उत्तर पर विभिन्न अंक देता है। ऊडी के अध्ययन से इस बात का प्रमाण मिलता है। कार्टर ने भी अपने अध्ययनों के आधार पर बतलाया है कि निबन्धात्मक परीक्षा में प्रश्नोत्तरों की जाँच में जो मापदण्ड अपनाया जाता है वह अविश्वसनीय होता है। इसके अविश्वसनीय होने के कई कारण हैं। वे निम्नलिखित हैं-

(i) परीक्षक का व्यक्तिगत दृष्टिकोण (Personal view point of the examiner)- प्रत्येक परीक्षक का अपना एक विशेष दृष्टिकोण होता है जिसे वह मापदण्ड मान कर उत्तर-पुस्तिकाओं को जाँचता है। एक ही उत्तर एक परीक्षक के दृष्टिकोण के अनुकूल तथा दूसरे के दृष्टिकोण के प्रतिकूल हो सकता है। अतः उसी उत्तर पर एक परीक्षक अधिक अंक देता है तथा दूसरा कम अंक देता है। ऐसी हालत में उत्तरों के मूल्यांकन का मापदण्ड समान कैसे हो सकता है।

(ii) परीक्षक की पूर्वधारणा या पक्षपात (Prejudice and partiality of the examiner)- परीक्षक की पूर्वधारणा या पक्षपात का गहरा प्रभाव प्रश्नोत्तर के मूल्यांकन पर पड़ता है। तथ्यों के संगठन, लिखने की शैली, उत्तर आरम्भ करने तथा समाप्त करने का तरीका, उत्तर की लम्बाई इत्यादि के संबंध में परीक्षक पहले से ही एक धारणा बनाकर रखता है। यदि उत्तर उसकी पूर्वधारणा के अनुकूल होता है तो वह अधिक अंक देता है और जब प्रतिकूल होता है तो कम अंक देता है। इसलिए कहते हैं कि पूर्वधारणा के कारण मूल्यांकन का आधार अवैज्ञानिक हो जाता है।

(iii) परीक्षक की मनोदशा (Moods of the examiner)- उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच करते समय परीक्षक की वर्तमान मानसिक दशा का प्रभाव मूल्यांकन पर पड़ता पारिवारिक, सामाजिक या वैयक्तिक समस्याओं के कारण जब परीक्षक की चित्तवृत्ति अच्छी नहीं रहती है तो ऐसी हालत में उत्तरों की जाँच समुचित ढंग से नहीं हो पाती है अत: अंकों की कमी- बेशी उत्तरों के गुण पर नहीं, परीक्षक की चित्तवृत्ति पर निर्भर करती है।

(iv) अपर्याप्त समय (Insufficient time) – परीक्षकों को उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। प्रायः तीन सप्ताह के भीतर ही सैकड़ों कॉपियों को जाँचना पड़ता है। इसमें भी दो सप्ताह तो निर्देशन के आने तथा प्रधान परीक्षक का अनुमोदन कराने में ही निकल जाते हैं। एक सप्ताह में परीक्षक जैसे-तैसे कापियों को जाँच कर निश्चित समय के भीतर ही वापस भेद देता है। परीक्षक की इस जल्दीबाजी से समुचित मूल्यांकन की मात्र कल्पना ही की जा सकती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि निबन्धात्मक परीक्षा में कई प्रकार की त्रुटियाँ हैं, जिनके कारण इस परीक्षा से विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता का मापन संभव नहीं होता है। फिर भी, यदि इन त्रुटियों को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाया जाए तो इस परीक्षा-प्रणाली से हम बहुत हद तक लाभान्वित हो सकते हैं।

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