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विश्वास व सत्य में अन्तर | Difference Between Belief and Truth in Hindi

विश्वास व सत्य में अन्तर
विश्वास व सत्य में अन्तर

विश्वास व सत्य में अन्तर (Difference between belief and truth)

विश्वास व सत्य में अन्तर- Encyclopaedia of Religion and Ethics में विश्वास (Belief) को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- ‘विश्वास आश्वासन अथवा दृढ़ धारणा की मानसिक स्थिति है। यह अपनी आन्तरिक अनुभूतियों के प्रति मन की वह मनोवृत्ति है, जिसमें वह अपने द्वारा निर्दिष्ट वास्तविकता को यथार्थ महत्त्व या मूल्य के रूप में स्वीकृत और समर्थित करता है। इस परिभाषा के विश्लेषण से विश्वास के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। विश्वास में वास्तविकता के प्रति आज्ञाकारिता का भाव पाया जाता है। विश्वास मन की स्थिति होने के फलस्वरूप तर्कणा से परिपूर्ण है। विश्वास धार्मिक व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

विश्वास (Belief) को दो वर्गों में विभाजित किया गया है। ये हैं ‘बिलिफ इन’ (Belief in) और ‘बिलिफ (Belief that)। किसी मानव अथवा ईश्वर में विश्वास को ‘बिलिफ इन’ (Belief in) कहा गया है तथा किसी प्रतिज्ञप्ति में विश्वास को ‘बिलिफ दैट’ (Belief that) कहा गया। बिलिफ इन’ (Belief in) किसी मानव अथवा ईश्वर के प्रति प्रवृत्ति है, जबकि बिलिफ दैट प्रतिज्ञप्ति के प्रति मात्र प्रवृत्ति है। जैसे ही हम कहते हैं कि मुझे ईश्वर में विश्वास है अथवा मुझे अमुक मित्र पर विश्वास है, वैसे ही हम ‘बिलिफ इन’ का आश्रय ले लेते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है कि मैं विश्वास करता हूँ कि ईश्वर प्रेममय है, ईश्वर विश्व का रचियता है, ईश्वर मानव की सहायता करता है तब उसके विश्वास को हम ‘बिलिफ दैट’ (Belief that) के वर्ग में रखेंगे। ‘बिलिफ इन’ और ‘बिलिफ दैट’ में मूल अन्तर यह है कि ‘बिलिफ इन’ तर्क से परे हैं परन्तु ‘बिलिफ दैट’ (Belief that) में युक्ति व तर्क का स्थान सुरक्षित है। जहाँ ‘बिलिफ इन’ भावना से ओतप्रोत है वहीं ‘बिलिफ दैट’ में बौद्धिक तत्व निहित है। ‘बिलिफ इन’ को आस्था के समानान्तर स्वीकारा गया है तो अब प्रश्न उठता है कि आस्था व विश्वास के बीच क्या सम्बन्ध है ? आस्था एवं विश्वास में एक आध्यात्मिक, इन्द्रियातीत और अतितार्किक सत्ता के प्रति विश्वास पाया जाता है। मनुष्य विश्वास में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने में संकोच नहीं करता है परन्तु आस्था को किसी भी कीमत पर त्यागने के लिए तैयार नहीं रहता। विश्वास व आस्था में मूल अन्तर यह भी है कि विश्वास परिवर्तनशील होता है, परन्तु आस्था अपरिवर्तनशील होती है। यही कारण है कि आस्था को निबौद्धिक (unintellectual) भी कहा गया है। आस्था के पीछे तर्क या प्रमाण की खोज करना मान्य नहीं है, जबकि इसके विपरीत विश्वास बौद्धिक होता है व विश्वास के पीछे तर्क एवं प्रमाण की खोज करना पूर्णतः मान्य है।

इसी प्रकार सत्य बोलना एक अच्छी बात है। एक साधारण-सा ज्ञान है परन्तु सत्य क्या है ? सत्य एक भाव है जो निश्छलता, पवित्रता और अहिंसा का प्रतीक हैं। जैन धर्म में सत्य की परिभाषा है— निरवध प्रवृत्ति अर्थात् पवित्र भाव की अनुभूति (हिंसा, कपट, चोरी, अप्राणिकता, परिगृह, काम-वासना, क्रोध, अहंकार, हीन भावना, भय, घृणा, लोभ, मिथ्या, धारणा, निन्दा करना, चुगली करना, राग-द्वेष कलह आदि अपवित्र भाव हैं। इनमें प्रवृत्ति करना असत्य आचरण है। जबकि अहिंसा, मैत्री, प्रामाणिकता, निस्पृहता, अनासक्ति, सन्तोष, शान्ति, अभय, करुणा, वीतरागता, प्रेम, संयम, अनुरक्त आदि पवित्र भाव हैं इनमें प्रवृत्ति करना सत्य आचरण है। इसी प्रकार सत्य भाषण का अर्थ है-वाणी का संयम, भाषा का विवेक।

जब हम वास्तविक ज्ञान की बात करते हैं जो इस सम्बन्ध में जो बातें उठती हैं- पहला सत्य की प्रवृत्ति और दूसरा सत्य के मानदण्ड जिनकी व्याख्या तीन सिद्धान्तों द्वारा की गई है-

(1) संसक्तता सिद्धान्त (Coberence Theory)

(2) संवादिता सिद्धान्त (Correspondence Theory) तथा

(3) प्रयोजन सिद्धान्त (Pragmatic Theory)

सत्य एक विचार के रूप में होता है। विचार सत्य होता भी है और घटनाओं के द्वारा सत्य बनाया भी जाता है। पुष्टीकरण के प्रक्रिया द्वारा भी विचार को सत्य बनाया जाता है। जिससे प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं जिसे ज्ञान की संज्ञा दी जाती है।

संसक्तता सिद्धान्त (Coberence Theory)

संसक्तता सिद्धान्त के अनुसार सत्यता संसक्तता है जिसका सामान्य अर्थ है संगति । संगति का तात्पर्य आत्मसंगति व परस्पर विगति दोनों से है। ज्ञान की सत्यता के सन्दर्भ में संसक्तता का अर्थ है कि कोई भी ज्ञान एक तन्त्र के सन्दर्भ में ही सत्य या असत्य होता है। यदि पूरे तन्त्र से जिससे कोई ज्ञान सम्बन्धित है या जिसके अन्य अंशों और पहलुओं के साथ जिसकी परस्पर निर्भरता है, अलग या स्वतन्त्र होकर वह ज्ञान सत्य या असत्य नहीं होता ।

संवादिता सिद्धान्त (Correspondence Theory)

संवादिता सिद्धान्त (Correspondence Theory) के अनुसार ज्ञान की सत्यता का अर्थ है ज्ञान का तथ्य या वास्तविकता के साथ मेल (agreement) अथवा संवाद। दूसरे शब्दों में यदि हमारे ज्ञान के अनुरूप वास्तविकता में भी तथ्य हों तो हमारा ज्ञान सत्य होगा, अन्यथा असत्य।

प्रयोजन सिद्धान्त (Pragmatic Theory)

प्रयोजन सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान की सत्यता का आकलन अनुभव के आधार पर ही किया जा सकता है। ज्ञान अर्जित करना, यह मानव की प्रकृति है और यह सापेक्ष परिवर्तन की अवधारणा में विश्वास रखता है और ज्ञान के लिए अनुभव को प्राथमिकता देता है।

विलियम जेम्स के अनुसार, सत्य हमारे विचारों की एक विशेषता है। इसका अभिप्राय यह है कि हम किस विचार के बारे में सहमत हैं एवं किस विचार के बारे में सहमत नहीं है। सत्य ज्ञान की पुष्टि हम अपने अनुभवों से कर सकते हैं। हमारे अनुभव ही सत्यता को सुनिश्चित करते हैं। विलियम जेम्स ने ज्ञान की सत्यता के लिए उपयोगिता के मानदण्ड को विशेष महत्त्व दिया है।

परन्तु यह भी सत्य है कि हम सत्य से बच भी नहीं सकते। साथ ही उसे परिभाषित भी नहीं कर सकते । सत्य वह नहीं है जो हम बोलते हैं, यह शब्दों से बँधा हुआ नहीं है। सत्य वह भी नहीं जो समय से परे हैं जो समय की कसौटी पर सही उतरे वही सत्य है।

(1) जहाँ तक सत्य व विश्वास के बीच सम्बन्ध का प्रश्न है तो यह अन्तर व्यक्तिगत अनुभव व समझ में निहित है। सत्य वह है जिसका अनुभव किया जा चुका है व उसके बाद उसके बारे में कोई विचार किया गया है। दूसरी तरफ विश्वास अनुभव के प्रमाणों पर कम आधारित होता है और इसका मुख्य केन्द्र विश्वसनीय कथनों पर अधिक होता है। सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है कि ईश्वर की सत्ता है परन्तु ईश्वर में विश्वास है।

(2) विश्वास तथ्यगत प्रश्न है जिसके बारे में कोई भी व्यक्ति सही हो सकता है या गलत। जैसे एक व्यक्ति यह विश्वास करता है कि ईश्वर है परन्तु वह कहाँ है।

(3) विश्वास में प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है जबकि सत्य में प्रमाण की आवश्यकता होती है।

(4) विश्वास में व्यक्तिनिष्ठता होती है जबकि सत्य वस्तुनिष्ठ होते हैं।

(5) विश्वास में आस्था होती है या आस्था का स्थान होता है जबकि सत्य में इसका स्थान न होकर अनुभव या प्रमाण आवश्यक होता है।

(6) विश्वास का तथ्यों पर आधारित होना आवश्यक नहीं है जबकि सत्य तथ्यों पर आधारित होता है।

(7) विश्वास में सत्य निहित हो सकता है परन्तु सत्य में विश्वास का निहीत होना आवश्यक नहीं है।

(8) विश्वास मान लेने पर निर्भर होता है जबकि सत्य में प्रमाण की आवश्यकता होती है।

(9) विश्वास के लिए उदाहरण- “जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा।” परन्तु इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता है परन्तु सत्य को प्रमाणित किया जा सकता है जो सर्वथा निश्चित होते हैं उनमें बदलाव नहीं होता है। इस प्रकार के ज्ञान का उदाहरण हमें सार्वभौमिक तथ्यों के रूप में देखने को मिलते हैं। इसे प्रागनुभव ज्ञान भी कह सकते हैं क्योंकि यह स्वतः सिद्ध होता है। इसे निरीक्षण अनुभव या प्रयोग द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार का ज्ञान प्रयोग, निरीक्षण व अनुभव पर आधारित होता है।

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shubham yadav

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