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व्याख्यान विधि (Lecture method)- विशेषताएँ, सीमाएँ/कमियाँ/दोष, सुधार हेतु सुझाव

व्याख्यान विधि
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व्याख्यान विधि (Lecture method)

व्याख्यान विधि शिक्षण की सबसे प्राचीन एवं प्रचलित विधि है। यह विधि दार्शनिक विचारधारा आदर्शवाद की देन है। वर्तमान में जहाँ एक ओर अनेक शिक्षण विधियों एवं तकनीकी साधनों का विकास हो चुका है, व्याख्यान विधि आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण प्रक्रिया में वैज्ञानिक प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप इसका अर्थ अधिक व्यापक हो गया है। व्याख्यान विधि को शिक्षण की प्रभुत्त्ववादी विधि (Autocratic Method of के रूप में माना जाता है। वैसे तो प्रत्येक विषय के शिक्षण में व्याख्यान विधि का प्रयोग सहजता के साथ किया जाता है लेकिन सामाजिक विषयों के शिक्षण में इसका प्रयोग सबसे अधिक होता है।

व्याख्यान का अर्थ किसी भी पाठ या विषय वस्तु को भाषण के रूप में अर्थात् बोल करके पढ़ाने से है। शिक्षण की यह विधि छोटी कक्षाओं की अपेक्षा उच्च कक्षाओं के लिए अधिक उपयोग होती हैं। इस विधि द्वारा विषय / पाठ्यवस्तु की सूचना दी जा सकती है। लेकिन विद्यार्थियों को स्वयं ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा एवं प्राप्त ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग की क्षमता नहीं दी जा सकती है। इस विधि से शिक्षण करते समय यह जानना कठिन होता है कि विद्यार्थियों ने किस सीमा तक शिक्षक द्वारा प्रदत्त ज्ञान को सीख चुके हैं या स्वीकार कर चुके हैं। शिक्षण की इस विधि में पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया जाता है। इससे शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। कभी-कभी शिक्षक विद्यार्थी का ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रश्न प्रविधि (Questioning Technique) का सहारा लेता है। इस विधि के प्रयोग में शिक्षक को अधिक तैयारी करनी पड़ती है, विद्यार्थी केवल श्रोता का कार्य करते हैं। परामर्श प्रक्रिया के अन्तर्गत परामर्शदाता को जब अपना प्रभुत्व स्थापित करना होता है या औपचारिक रूप से सेवार्थी को सूचित करना होता है, उस स्थिति में वह व्याख्यान का सहारा लेता है। व्याख्यान को प्रभावी बनाने के लिए परामर्शदाता इसके साथ अन्य प्रविधियों जैसे- प्रश्नोत्तर, सहायक सामग्री आदि का उपयोग कर सकता है।

व्याख्यान विधि की विशेषताएँ (Characteristics of Lecture Method)

व्याख्यान विधि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) यह विधि शिक्षण की सबसे प्राचीन एवं प्रचलित विधि है।

(2) यह विधि शिक्षक के लिए प्रयोग करने में सरल, संक्षिप्त एवं आकर्षक है।

(3) इस विधि के द्वारा कम समय में अधिक सूचनाएँ दी जा सकती है।

(4) इस विधि के प्रयोग द्वारा एक समय में एक साथ बड़ी संख्या में विद्यार्थियों को पढ़ाया जा सकता है।

(5) व्याख्यान द्वारा कही गई बातों को विद्यार्थी नोट कर सकते हैं।

(6) समय एवं धन दोनों ही दृष्टिकोणों से यह एक मितव्ययी विधि है।

(7) इस विधि में पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया जाता है।

(8) इस विधि द्वारा शिक्षण में शिक्षक सदैव क्रियाशील रहता है।

(9) विचाराभिव्यक्ति के दौरान शिक्षक कई बार बहुत सी नई बातों, विचारों से विद्यार्थियों को अवगत करा देते हैं।

(10) विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण में सदैव एक तार्किक क्रम बना रहता है।

(11) यह विधि शिक्षक एवं विद्यार्थियों दोनों को विषय के अध्ययन की प्रगति के विषय में संतुष्टि प्रदान करती है।

(12) नवीन विषय की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करने के लिए यह एक उत्तम विधि है ।

(13) इसमें विद्यार्थियों पर शिक्षक के व्यक्तित्व का विशेष प्रभाव पड़ता है।

(14) विद्यार्थियों को मौलिक चिन्तन एवं विचारोत्पादन हेतु आधार मिलता है।

(15) इसमें विद्यार्थियों को ध्यान केन्द्रित करने की आदत पड़ती है।

व्याख्यान विधि की सीमाएँ / कमियाँ / दोष (Limitations/ Demerits of Lecture Method)

व्याख्यान विधि की सीमाएँ या दोष निम्नलिखित हैं-

(1) व्याख्यान के दौरान विद्यार्थी निष्क्रिय रहते हैं और एक मूक दर्शक श्रोता की भाँति बैठे रहते हैं।

(2) इस विधि में विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षक को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

(3) इस विधि का प्रयोग उच्च स्तर की कक्षाओं में ही किया जा सकता है। छोटी कक्षाओं के लिए यह विधि अनुपयुक्त एवं अमनोवैज्ञानिक है।

(4) इस विधि के प्रयोग करने में शिक्षक का एकाधिकार रहता है।

(5) इस विधि की प्रमुख कमी यह है कि इसमें प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया जाता है, विद्यार्थी कि क्रियाशीलता को स्थान नहीं दिया जाता एवं अधिगम प्रक्रिया को ध्यान में नहीं रखा जाता है।

(6) यह एक अमनोवैज्ञानिक विधि है जिसमें विद्यार्थी की व्यक्तिगत विभिन्नता, रुचियों एवं अभिरुचियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है।

(7) शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए यह विधि उपयोगी नहीं है। इस विधि द्वारा भले ही विद्यार्थी भौतिक तथ्यों के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त कर ले किन्तु वास्तविक ज्ञान, अभिरुचि एवं अभिवृत्ति की दृष्टि से अन्य विधियों का सहारा लेना पड़ता है।

(8) इस विधि से प्राप्त ज्ञान स्थाई नहीं होता है।

(9) व्याख्यान में कही सभी बातों को शीघ्रतापूर्वक लिखना सम्भव नहीं हो पाता है।

(10) यदि व्याख्यान के बीच में कोई बात विद्यार्थी को समझ में नहीं आती या छूट जाती है तब उस स्थिति में उसे शेष व्याख्यान भी समझ में नहीं आता।

(11) इस विधि द्वारा सभी विषयों / पाठ्य वस्तुओं का शिक्षण सम्भव नहीं है। प्रयोगात्मक विषयों के लिए यह विधि अनुपयुक्त है।

(12) इस विधि का प्रयोग करते समय विषय वस्तु के सभी बिन्दुओं में सन्तुलन रखना कठिन होता है। कुछ बिन्दु पर तो शिक्षक बहुत अधिक बोल देता है एवं कुछ बिन्दु उपेक्षित रह जाते हैं।

(13) व्याख्यान के दौरान शिक्षक कभी-कभी विषय वस्तु से भटक जाता है, एवं विषयान्तर बातें करने लगता है।

(14) इस विधि के विद्यार्थियों की केवल श्रवणेन्द्रियों का ही प्रयोग होता है अन्य ज्ञानेन्द्रियों का नहीं।

(15) इस विधि द्वारा छात्रों की मानसिक शक्तियों का विकास नहीं किया जा सकता है।

सुधार हेतु सुझाव (Suggestions for Improvement)

व्याख्यान विधि की अपनी कुछ सीमाएँ हैं जो ऊपर वर्णित की जा चुकी हैं लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि इस विधि का महत्व कम है। यह शिक्षण की एक प्रचलित एवं महत्वपूर्ण विधि है। यदि इस विधि के प्रयोग करते समय कुछ बातों को ध्यान में रखा जाए एवं कुछ सुझावों पर अमल किया जाए तो यह विधि अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकती है। कुछ ध्यान देने योग्य बातें एवं सुधार हेतु कुछ सुझाव इस प्रकार हैं-

(1) शिक्षकों को विद्यार्थियों की रुचियों एवं उनके मानसिक स्तर का ध्यान रखना चाहिए। प्रयुक्त उदाहरण उनके स्तर एवं व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित होने चाहिए।

(2) व्याख्यान के बीच-बीच में मुख्य बिन्दुओं को श्यामपट्ट पर अंकित कर देना चाहिए।

(3) आवश्यकतानुसार उचित सहायक सामग्रियों को भी प्रयोग में लाया जाना चाहिए।

(4) विद्यार्थियों का ध्यान केन्द्रित करने के लिए व्याख्यान के समय बीच-बीच में विकासात्मक प्रश्न पूछने चाहिए।

(5) व्याख्यान की भाषा सरल, सहज, स्पष्ट एवं बोधगम्य होनी चाहिए।

(6) व्याख्यान की गति तीव्र न होकर सामान्य होनी चाहिए जिससे की विद्यार्थी आवश्यक बिन्दुओं को नोट कर सकें।

(7) व्याख्यान देते समय शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह विषय से न भटकें।

(8 ) व्याख्यान के दौरान कक्षा का वातावरण नीरस, बोझिल एवं गम्भीर हो जाता है। इसलिए वातावरण को सरल एवं हल्का करने के लिए बीच-बीच में हास्य एवं विनोद का प्रयोग करना चाहिए।

(9) इस विधि का प्रयोग प्राथमिक स्तर पर नहीं होना चाहिए। इसका प्रयोग पूर्व माध्यमिक कक्षाओं से आरम्भ करना चाहिए। महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर इसका प्रयोग अधिक किया जाना चाहिए।

(10) शिक्षक व्याख्यान के दौरान विषय से न भटके, इसके लिए उसे चाहिए कि वह व्याख्यान की विषय-वस्तु के मुख्य बिन्दुओं को लिखित रूप में मार्गदर्शन हेतु अपने पास रखे।

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shubham yadav

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