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निर्देशन कार्यक्रम को संगठित करने के उपाय
निर्देशन कार्यक्रम को संगठित करने के उपाय- निर्देशन कार्यक्रम का संगठन करते समय कुछ सिद्धान्तों पर अवश्य ध्यान देना चाहिये। ये सिद्धान्त सभी प्रकार के निर्देशन संगठन के लिये उपयोगी रहते हैं चाहे यह संगठन प्राथमिक विद्यालय या उच्च कॉलेज स्तर पर हो अथवा छोटे या बड़े विद्यालय का हो। यह सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. कार्यक्रम के उद्देश्य– कार्यक्रम बनाने से पहले यह निश्चित करना चाहिये कि कार्यक्रम का लक्ष्य क्या होगा? कार्यक्रम किन उद्देश्यों के पूर्ति के लिये संगठित किया जा रहा है? क्योंकि उद्देश्यहीन कार्यक्रम कभी सफल नहीं होता है। निर्देशन कार्यक्रम छात्रों की आवश्यकताओं को समझने तथा उनकी सन्तुष्टि में सहायता करने के उद्देश्य से संगठित किया जाता है। छात्रों की आवश्यकताओं पर उनके घर तथा पास-पड़ोस के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। निर्देशन कार्यक्रम यह ढूँढ़ने का प्रयत्न करता है कि कौन-कौन तत्त्व मिलकर छात्रों को प्रभावित करते हैं।
2. कार्यक्रम के प्रयोजन- उद्देश्य निश्चित कर लेने के उपरान्त निर्देशन कार्यक्रम को संगठित करने का दूसरा सिद्धान्त कार्यक्रम के प्रयोजन निश्चित करना है। कार्यक्रम के कार्यों का लक्ष्य उन निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त करना होगा। निर्देशन कार्यक्रम स्थिर नहीं रहता है। यह भी समय तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। नये उद्योग-धन्धे देश में स्थापित हो रहे हैं। ग्रामीण जनता नगरों की ओर आकर्षित हो रही है। यातायात के मार्ग एवं साधनों का विस्तार हो रहा है। इसके अनुसार ही विद्यालय में निर्देशन के लक्ष्य तथा कार्य परिवर्तित होते रहते हैं। निर्देशन कार्यक्रम में लचीलापन अवश्य होना चाहिये।
3. उत्तरदायित्व निश्चित करना- निर्देशन कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये सभी अध्यापकों का सहयोग प्राप्त होना चाहिये। निर्देशन कार्यक्रम में अध्यापकों का सहयोग प्राप्त करने के लिये विद्यालय के प्रत्येक अध्यापक की निर्देशन में रुचि और योग्यताओं का पता लगाना आवश्यक होता है। क्योंकि अध्यापकों की रुचि एवं योग्यताओं के आधार पर ही उनको उत्तरदायित्व या कर्तव्य दिया जाता है, प्रत्येक अध्यापक को अपने निर्देशन सम्बन्धी कार्य से परिचित होना चाहिये। ये कार्य अध्यापकों की क्षमताओं के आधार पर होने चाहिये।
4. निर्देशन कार्यक्रम का मूल्यांकन- निर्देशन कार्यक्रम प्रारम्भ करने के बाद उसकी प्रगति तथा उपयुक्तता का मूल्यांकन करना होता है। इस मूल्यांकन का उद्देश्य यह ज्ञात करना होगा कि जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये कार्यक्रम संगठित किया गया, उसमें कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई। मूल्यांकन का दूसरा उद्देश्य यह देखना है कि कार्यक्रम समय के अनुकूल है या नहीं। सामाजिक व्यवस्था, छात्रों की आवश्यकताओं एवं निर्देशन विधियों में निरन्तर परिवर्तन होने से निर्देशन भी सदैव परिवर्तित होता रहता है। निर्देशन कार्यकर्ता को इन परिवर्तनों के प्रति सजग रहना चाहिये जिससे कार्यक्रम में आवश्यकतानुसार नवीन परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन कर सकें।
निर्देशन कार्यक्रम की विशेषताएँ
1. निर्देशन कार्यक्रम के सभी कार्य समन्वित होने चाहिये। इसमें प्रत्येक अध्यापक को स्वयं की क्षमतानुसार सहयोग देना चाहिये। निर्देशन कार्यकर्ता का कर्तव्य है कि वह अन्य अध्यापकों की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न करे। अध्यापकों की रुचि के अनुसार निर्देशन कार्य उनको दिया जाये।
2. छात्रों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं और अध्यापकों की रुचियों के ज्ञान पर निर्देशन कार्यक्रम आधारित होना चाहिये। बड़े विद्यालयों में जहाँ छात्रों की संख्या अधिक होती है, निर्देशन कार्यक्रम का रूप छोटे विद्यालय के निर्देशन कार्यक्रम से भिन्न होता है। बड़े विद्यालय में परामर्शदाता विद्यालय मनोवैज्ञानिक या निर्देशन संचालक की अधिक आवश्यकता होगी।
3. सफल निर्देशन कार्यक्रम में सामाजिक संस्थाओं, माता-पिता आदि सभी का सहयोग प्राप्त होना चाहिये। छात्रों की आवश्यकताओं को समझने के लिये स्वास्थ्य सेवा, परिवार कल्याण, नैदानिक सेवाएँ आदि की सहायता आवश्यक होती है। माता-पिता या नियोक्ता को भी कार्यक्रम को प्रभावशाली बनाने में सहयोग देना चाहिये। छात्रों को समझने में इनसे उपयोगी सूचनाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
4. निर्देशन कार्यक्रम के लिये प्रशिक्षित व्यक्ति होने चाहिये। व्यवस्थित निर्देशन कार्यक्रम में प्रशिक्षित व्यक्तियों को नेतृत्व करना चाहिये। यह विद्यालयों के रूप पर निर्भर रहता है कि कार्यक्रम कैसा हो। छोटे विद्यालयों में एक ही प्रशिक्षित व्यक्ति हो सकता है जो अध्यापन कार्य भी पूर्ण करता हो। परन्तु बड़े विद्यालय में परामर्शदाता होता है। इसका कार्य केवल निर्देशन-क्रियाओं तक सीमित होता है, विद्यालय में अध्यापन कार्य इसके द्वारा नहीं किया जाता है।
5. कार्यक्रम के उद्देश्य निश्चित करना प्रथम कार्य है, क्योंकि उद्देश्यहीन कार्यक्रम कभी सफल नहीं होता है। निर्देशन सेवाएँ छात्रों की आवश्यकताओं को समझने तथा उनकी सन्तुष्टि में सहायता करने के उद्देश्य से संगठित की जाती हैं। अतः निर्देशन सेवाओं का कार्यक्षेत्र निश्चित होना चाहिये।
6. निर्देशन क्रिया निरन्तर चलती रहनी चाहिए। छात्र के प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश लेने के समय से विश्वविद्यालयी शिक्षा तक निर्देशन सेवा छात्र को प्राप्त होनी चाहिये। निर्देशन सेवा केवल विद्यालयों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उन व्यक्तियों को भी प्राप्त होती है जो अध्ययन की समाप्ति पर आजीविकाओं में नियुक्ति पाते हैं या सामाजिक सेवाओं में लगते हैं।
7. शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहयोग देना निर्देशन का कार्य है। छात्र के विकास तथा समायोजन में सहायता करना शिक्षा का उद्देश्य होता है। अध्यापक तथा निर्देशन-क्रियाएँ शिक्षा प्रक्रिया का अन्तरंग भाग होती हैं, परन्तु दोनों की विधियों में अन्तर होता है। निर्देशन की परामर्श प्रक्रिया में एक व्यक्ति का एक ही व्यक्ति से सम्बन्ध होता है। यह व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित है। दोनों में ही समानता यह है कि सामूहिक विधि का प्रयोग दोनों के द्वारा होता है।
निर्देशन के प्रकार
निर्देशन कार्यक्रम का रूप निम्नलिखित बातों पर निर्भर होगा-
1. विद्यालय स्तर– प्राथमिक विद्यालय पर निर्देशन कार्यक्रम का संगठन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के कार्यक्रम संगठन से भिन्न होगा। प्राथमिक विद्यालय में छात्रों की संख्या कम होती है। इन छात्रों की आवश्यकताएँ तथा समस्याएँ भी कम होती हैं। अतः इस स्तर पर किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं होती है, कक्षाध्यापक ही इस कार्य को सम्पन्न करता है। इसके विपरीत, उच्चतर माध्यमिक स्तर पर निर्देशन सेवाओं का निश्चित संगठित रूप होता है। कार्य की अधिकता एवं किशोर छात्रों की आवश्यकताओं तथा समस्याओं के आधिक्य से निर्देशन कार्यक्रम के व्यवस्थित एवं संगठित रूप की आवश्यकता बढ़ जाती है।
2. विद्यालय का आकार- निर्देशन सेवाओं का रूप विद्यालय के आकार पर भी निर्भर रहता है। छोटे विद्यालय में अधिक विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं होती है। प्रधानाचार्य तथा अध्यापक ही निर्देशन कार्यक्रम में भाग लेते हैं। बड़े विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं का व्यवस्थित रूप होता है। पृथक् निर्देशन विभाग होता है। विशेषज्ञ नियुक्त किये जाते हैं। अध्यापकों के सहयोग से ये अपने कार्यों को पूर्ण करते हैं।
3. प्राप्त सुविधाएँ- विद्यालय में अगर अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, जैसे- निर्देशन कार्यालय के लिये पृथक् भवन एवं साज-सामान, तो निर्देशन कार्यक्रम व्यवस्थित रूप से चल सकता है। गाँवों तथा नगरों के विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं के रूप में अन्तर होगा।
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