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विश्वसनीयता का अर्थ एवं परिभाषा ( Reliability in Hindi )
यदि किसी परीक्षण को विभिन्न विद्यार्थियों को बार-बार दिया जाता है और उसके परिणाम अथवा फलांकों में संगति (Consistency) दिखाई देती है तो उस परीक्षण को विश्वसनीय माना जाता है। विश्वसनीय परीक्षण के परिणामों में किसी तरह का अन्तर नहीं दिखलाई देता। क्रोनबाक का विचार है- “विश्वसनीयता सदैव मापन शृंखला में आरम्भ से लेकर अन्त की संगति अथवा समरूपता की ओर संकेत करती है।”
“Reliability always refers to consistency throughout a series of measurement, ” – Cronbach
इसी प्रकार एनस्टेसी का विचार है- “परीक्षण की विश्वसनीयता उन्हीं व्यक्तियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर अथवा एक ही प्रकार के विभिन्न परीक्षण पदों के साथ प्राप्त किए परिणाम अथवा फलांकों के संगति की ओर संकेत करती है।’
किसी परीक्षण की विश्वसनीयता ज्ञात करने हेतु चार विधियाँ होती हैं-
(अ) परीक्षण पुनर्परीक्षण विधि (Test Retest Method), (ब) समानान्तर विधि (Parallel Form Method), (स) अर्द्ध-विच्छेद विधि (Split-half Method) और (द) तर्कयुक्त समानता fafer (Rational Equivalence Method) |
(अ) परीक्षण पुनर्परीक्षण विधि- इस विधि के अन्तर्गत कोई परीक्षण देकर कुछ विद्यार्थियों की परीक्षा ली जाती है और उन्हें अंक प्रदान करके लिख लिया जाता है। फिर कुछ समय का अन्तर देकर वही परीक्षण उन विद्यार्थियों को दिया जाता है तथा प्रथम बार के प्राप्तांकों और दूसरी बार के प्राप्तांकों का सांख्यिकी विधि से सह-सम्बन्ध ज्ञात किया जाता है। सह-सम्बन्ध गुणक +6 या उससे अधिक हो तो यह माना जाता है कि परीक्षण में विश्वसनीयता का गुण है।
पुनः परीक्षण किये जाने पर अभ्यास और समयान्तर का प्रभाव परिणाम पर पड़ता और दूसरी बार की परीक्षा में अभ्यास के कारण अंक बढ़ सकते हैं अथवा अनाभ्यास के कारण घट सकते हैं। यदि परीक्षा के मध्य अधिक समय का अन्तर प्रदान किया जाता है तो उनमें आत्म-विश्वास अधिक हो जाता है अथवा अपेक्षाकृत कुछ मानसिक विकास भी हो जाता है। इस स्थिति में परीक्षा का सह-सम्बन्ध गुणक सही विश्वसनीयता स्पष्ट करने में सफल नहीं होता।
(ब) समानान्तर विधि- इसके अन्तर्गत एक परीक्षा के दो समान प्रतिरूपों की रचना की जाती है जो एक-दूसरे से विषयवस्तु, कठिनाई एवं प्रश्नों के स्वरूपों आदि में समान होते हैं। इन दोनों परीक्षणों को क्रमशः प्रशासित किया जाता है और दोनों फलांकों का सह-सम्बन्ध ज्ञात करके परीक्षण की विश्वसनीयता निर्धारित की जाती है। इस विधि की अपनी अलग परिसीमाएँ हैं। इस विधि की सर्वप्रमुख समस्या यह है कि समानान्तर परीक्षण की रचना करना कठिन है अतएव इसका उपलब्ध होना भी कठिन होता है।
(स) अर्द्ध-विच्छेद विधि- अर्द्ध-विच्छेद विधि के अन्तर्गत एक ही परीक्षण को दो समान भागों में बाँट दिया जाता है। दोनों भाग के प्रश्नों के स्वरूप आदि में समरूपता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पहले भाग में सम संख्या वाले प्रश्न, यथा-2, 4, 6, 8 आदि होते हैं और दूसरे भाग में विषम संख्या वाले प्रश्न, यथा पहला, तीसरा, पाँचवाँ, सातवाँ आदि होते हैं। इन दोनों भागों को एक ही समूह पर प्रशासित किया जाता है और दोनों भागों के प्राप्त फलांकों का सह-सम्बन्ध ज्ञात कर लिया जाता है। विश्वसनीयता ज्ञात करने हेतु यह विधि बहुत अच्छी और आसान मानी जाती है।
(द) तर्कयुक्त समानता विधि- तर्कयुक्त समानता विधि में परीक्षण के प्रत्येक प्रश्न के प्राप्तांकों का सह-सम्बन्ध ज्ञात करके परीक्षण की विश्वसनीयता ज्ञात की जाती है। इसके हेतु कडर और रिचर्ड्सन द्वारा बताये गये सूत्र का प्रयोग किया जाता है। ऊपर बताई गई समस्त विधियों में सांख्यिकी का प्रयोग होता है।
विश्वसनीयता में वृद्धि करने हेतु सुझाव
परीक्षा की विश्वसनीयता एक सापेक्ष शब्द है। इसकी वृद्धि की जा सकती है किन्तु इसे पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। डगलस और हालैण्ड ने विश्वसनीयता में वृद्धि के हेतु निम्न सुझाव दिये हैं- (1) परीक्षण में विषय से सम्बन्धित पाठ्यक्रम की समस्त बातों का समावेश होना चाहिए। (2) प्रश्न छोटे होने चाहिए जिसके फलस्वरूप उत्तर आसानी से कम समय में दिया जा सके। (3) परीक्षण में कुछ प्रश्न वस्तुनिष्ठ कोटि के हों जिनके उत्तर निश्चित रूप से सही अथवा गलत हों। (4) परीक्षण के प्रश्नों की संख्या अधिक होनी चाहिए जिससे अनुमानित उत्तर देने का समय छात्रों को न मिल सके। (5) परीक्षण का समय और निर्देश स्पष्ट होने चाहिए। (6) परीक्षण में किसी तरह की त्रुटि की सम्भावना नहीं होनी चाहिए।
ऊपर बताई गई बातों पर ध्यान देने से विश्वसनीयता में वृद्धि की जा सकती हैं। इस सम्बन्ध में एलिस ने लिखा है “विश्वसनीयता परीक्षण सामग्री के विवेकपूर्ण चयन पर और विशेष रूप से परीक्षण की लम्बाई पर निर्भर रहती है। यदि अन्य बातें समान हों तो परीक्षण जितना अधिक लम्बा होता है उतना ही अधिक विश्वसनीय होता है।”
“Reliability depends on careful selection of the test material and also particularly on the length of the test. Other things being equal, the longer the test, the greater the reliability” –Ellis
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