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समाजशास्त्र की पाठ्यचर्या के उद्देश्य
समाजशास्त्र की पाठ्यचर्या का उद्देश्य छात्रों को सामाजिकता का प्रशिक्षण प्रदान करना है। इसके लिए विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं के लिए एक ही स्तर की पाठ्यचर्या निर्धारित करना अनुचित एवं अमनोवैज्ञानिक है। विद्यालय में विभिन्न स्तरों के लिए पृथक पृथक पाठ्यक्रम होना अत्यन्त आवश्यक है। इन विभिन्न स्तरों के लिए पृथक-पृथक पाठ्यचर्या निर्धारित करते समय हमें उन विभिन्न उद्देश्यों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए जो हमे प्राप्त करने हैं।
एक अच्छी पाठ्यचर्या में निम्नांकित उद्देश्य निहित रहते हैं:
1. पाठ्यचर्या का उद्देश्य छात्रों को चहुँर्मूखी विकास करना होता है।
2. पाठ्यचर्या का उद्देश्य छात्रों की रूचि, योग्यता तथा क्षमताओं का विकास करना होता हैं।
3. पाठ्यचर्या का उद्देश्य धर्म-निरपेक्षता एवं लोकतन्त्र की भावना का विकास करना होता हैं।
4. पाठ्यचर्या का उद्देश्य कतिपय सामाजिक गुणों तथा ईमानदारी, सत्यता, सद्भाव आदि का विकास करना होता है।
5. पाठ्यचर्या का उद्देश्य छात्रों की अन्तर्निहीत शक्तियों का विकास करना होता है।
6. पाठ्यचर्या का उद्देश्य सुनागरिकों का निर्माण करना होता है।
समाजशास्त्र पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त
किसी भी विषय की पाठ्यचर्या निर्माण में सिद्धान्तों को उस विषय की विषय वस्तु छात्रों की आयु और मानसिक स्तर के आधार पर निर्धारित किया जाता है वस्तुतः पाठ्यवस्तु वह साधन है जिसके माध्यम से छात्रों को शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति कराने का प्रयास किया जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्तों में प्रमुखत: सिद्धान्त क्रमशः समन्वय का सिद्धान्त, संरक्षणता व हस्तान्तरण का सिद्धांत, प्रजातान्त्रिक सम्बन्धों का सिद्धांत, उपयोगिता का सिद्धांत, प्रेरणा का सिद्धांत, जीवन से सम्बन्धित का सिद्धांत, क्रिया का सिद्धांत, व्यापकता का सिद्धांत, चयन का सिद्धान्त, आधुनिकता का सिद्धान्त, विवेचना-शक्ति का सिद्धान्त, अवकाश के समय का सदुपयोग सिद्धान्त इत्यादि प्रमुख है। इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त भी अनेकों विद्वानों ने पाठ्यक्रम निर्माण के विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना करते हुए अपने अलग से कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख किया है-
1. समाजशास्त्र की पाठ्यचर्या बाल केन्द्रित होनी चाहिये।
2. समाजशास्त्र की पाठ्यचर्या क्रियाप्रधान होनी चहिये।
3. व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
4. पाठ्यचर्या लचीली हो ।
5. कठिनाई स्तर को ध्यान में रखना।
6. पाठ्यचर्या रूचि व अभिरूचिपूर्ण हो।
7. समाजशास्त्र विज्ञान का समाज में अधिकतर प्रयोग
8. समाजशास्त्र विज्ञान में मनोरंजनात्मक समस्याओं का समावेश हों
9. विषय वस्तु को मनोवैज्ञानिक एवं तार्किक ढंग से व्यवस्थित करना
10. संस्कृति एवं सभ्यता के संरक्षण हेतु ज्ञान का सिद्धान्त।
11. समाजशास्त्र की पाठ्यचर्या जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिये।
12. पाठ्यचर्या/ विषयवस्तु के निर्माण में अध्यापक की सहमति लेनी चाहिये।
13. पाठ्यचर्या को उद्देश्यों की आवश्यकतानुसार परिवर्तनीय बनाना चाहिये।
14. विषय में सहसम्बन्ध दर्शाना।
पाठ्यचर्या के निर्धारक तत्व
शिक्षण एक त्रिध्रुवीय प्रक्रिया है, जिसके तीन प्रमुख चर होते हैं-शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यचर्या ।
शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पादन शिक्षक द्वारा किया जाता है। शिक्षक अपनी क्रियाओं का नियोजन कक्षा शिक्षण के लिये करता है उसके प्रमुख तीन तत्व होते हैं- उद्देश्य, पाठ्यवस्तु एवं शिक्षण विधियाँ। ‘पाठ्यचर्या विकास’ में पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधियों को महत्त्व दिया जाता है। पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधियों का नियोजन उद्देश्यों की दृष्टि से किया जाता है। एक पाठ्यवस्तु के कई उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं। परन्तु अधिगम अवसरों एवं परिस्थितियाँ उद्देश्यों के स्वरूप को सुनिश्चित करते हैं। विशिष्ट उद्देश्यों हेतु विशिष्ट अधिगम परिस्थितियों का नियोजन किया जाता है। शिक्षण तथा अधिगम क्रियायें पाठ्यचर्या के ही प्रमुख तत्त्व माने जाते हैं। इस प्रकार पाठ्यचर्या के चार मूल तत्त्व माने जाते हैं-उद्देश्य, पाठ्यवस्तु, शिक्षण विधियाँ तथा मूल्यांकन
पाठ्यचर्या के निर्धारक तत्त्वों में सम्बन्ध
इन तत्त्वों में गहन सम्बन्ध होता है।
1. उद्देश्य- पाठ्यवस्तु शिक्षण विधियों तथा परीक्षणों का नियोजन उद्देश्यों की दृष्टि से किया जाता है। अधिगम परिस्थितियों के स्वरूप से इन्हें प्राप्त करते हैं।
2. पाठ्यवस्तु- पाठ्यवस्तु का स्वरूप अधिक व्यापक होता है। अधिगम परिस्थितियां उस स्वरूप को सुनिश्चित करती हैं।
3. शिक्षण विधियाँ- उपयुक्त शब्द शिक्षण आव्यूह का चयन उद्देश्यों की प्राप्ति से किया जाता है। शिक्षण विधियों का सम्बन्ध पाठ्यवस्तु से होता है। शिक्षण आव्यूह अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करती है जिससे छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन किये जाते हैं। जो पाठ्यवस्तु के स्वरूप को सुनिश्चित करते हैं।
4. मूल्यांकन- परीक्षा द्वारा पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधियों की उपादेयता के सम्बन्ध में जानकारी होती है और जो पाठ्यवस्तु के स्वरूप को सुनिश्चित करते हैं।
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