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निर्देशन कर्मचारियों के उत्तरदायित्व
निर्देशन कार्य की सफलता निर्देशन कर्मचारियों पर निर्भर रहती है। निर्देशन कर्मचारियों को परस्पर सहयोग के सिद्धान्त को स्वीकार करना चाहिये। किसी भी कार्यक्रम की सफलता, उसमें संलग्न कर्मचारियों के संयुक्त प्रयत्नों पर निर्भर रहती है। निर्देशन कर्मचारियों की संख्या, निर्देशन सेवाओं के संगठन की योजना द्वारा निर्धारित होती है। इसमें दो प्रकार के कर्मचारी होते हैं-
1. सामान्य कर्मचारी,
2. विशेषज्ञ।
1. सामान्य कर्मचारी- इसमें वे कर्मचारी आते हैं जो विद्यालय की निर्देशन सेवा का निरीक्षण करते हैं। विद्यालय में इस प्रकार के प्रबन्धक या निरीक्षक मुख्यतः निम्नलिखित होते हैं—
(अ) अधीक्षक,
(ब) सहायक अधीक्षक,
(स) प्रधानाचार्य ।
जिस विद्यालय में निर्देशन-संचालक होता है, वहाँ का प्रधानाचार्य निर्देशन सेवाओं का कार्य संचालक को सौंप देता है। सामान्य कर्मचारी एक योग्य तथा अनुभवी व्यक्ति होना चाहिये। सामान्य कर्मचारी को निम्नलिखित सिद्धान्तों के आधार पर कार्य करना चाहिये-
1. सामान्य कर्मचारी को विद्यालय के सभी अध्यापकों से सम्बन्ध स्थापित करने चाहिये। छात्रों से भी सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिये।
2. सामान्य कर्मचारी को निर्देशन सेवाओं के सिद्धान्तों का भी ज्ञान होना आवश्यक है। इसी ज्ञान के आधार पर निर्देशन कार्यक्रम में अधिक सहयोग देने की आशा सामान्य कर्मचारी से की जाती
3. निर्देशन-व्यवस्था में विशेषज्ञ भी अपना उत्तरदायित्व पूरा करते हैं। सामान्य कर्मचारियों का
यह कर्त्तव्य है कि वे विशेषज्ञों को अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करें।
2. विशेषज्ञ- विशेषज्ञ वे व्यक्ति होते हैं जो निर्देशन कार्य का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किये होते हैं, इनमें निर्देशन-संचालक, परामर्शदाता, विद्यालय मनोवैज्ञानिक आदि विशेष कर्मचारी होते हैं। इन सभी को अपने क्षेत्र का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये।
निर्देशन-व्यवस्था में निम्नलिखित कर्मचारी संलग्न रहते हैं—
(अ) प्रधानाचार्य,
(ब) निर्देशन-संचालक,
(स) परामर्शदाता,
(द) अध्यापक,
(य) कक्षाध्यापक,
(र) मनोवैज्ञानिक,
(ल) स्वास्थ्य विशेषज्ञ।
इनमें से प्रत्येक के कार्य एवं उत्तरदायित्व वर्णन निम्न प्रकार है
प्रधानाचार्य
विद्यालय में प्रधानाचार्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है। पी.सी. रैन ने विद्यालय में प्रधानाध्यापक के स्थान के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं—“घड़ी में प्रधान कमानी, मशीन में प्रचक्र या जलयान में यन्त्रीकरण को जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान किसी भी विद्यालय में प्रधानाचार्य का है।”
प्रधानाचार्य की योग्यता, सूक्ष्मता एवं प्रशासकीय क्षमता पर विद्यालय की प्रगति निर्भर करती है। निर्देशन प्रक्रिया शिक्षा का आवश्यक अंग स्वीकार की गयी है। अतः प्रधानाचार्य का नेतृत्व इस क्षेत्र में प्राप्त होना चाहिये। विद्यालय के निर्देशन कार्यक्रम का प्रशासकीय प्रधान प्रधानाचार्य ही होता है। कार्यभार अधिक होने से वह निर्देशन कार्यक्रम का भार किसी योग्य अध्यापक को सौंप सकता हैं परन्तु वह अपने नेतृत्व एवं समर्थन को किसी अन्य को नहीं सौंप सकता। प्रधानाचार्य को चाहिये कि अपने सभी अध्यापकों को निर्देशन कार्य के लिये प्रोत्साहित करे एवं सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करे।
प्रधानाचार्य के निर्देशन कार्यक्रम सम्बन्धी उत्तरदायित्व
प्रधानाचार्य विद्यालय का प्रमुख अधिकारी होता है, अतः सामान्यतः वह विद्यालय की समस्त क्रियाओं को सफलतापूर्वक करने के लिये उत्तरदायी होता है। निर्देशन कार्यक्रम विद्यालय का ही अभिन्न अंग है। इसलिये निर्देशन कार्यक्रम के प्रति प्रधानाचार्य के उत्तरदायित्व का वर्णन यहाँ किया जायेगा, यथा
1. निर्देशन सेवाओं के संगठन में नेतृत्व प्रदान करना।
2. अपने विद्यालय के अध्यापकों को निर्देशन का महत्त्व, प्रयोजन एवं समस्याओं को समझने में सहायता देना।
3. योग्य निर्देशन कर्मचारियों की नियुक्ति एवं कार्य वितरण करना।
4. निर्देशन क्रियाओं का निरीक्षण करना।
5. अध्यापकों एवं निर्देशन कर्मचारियों को नौकरी के समय प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान करना।
6. निर्देशन कमेटी का निर्माण करना।
7. निर्देशन कार्य के लिये पर्याप्त समय प्रदान करना।
8. निर्देशन कार्यक्रम के लिये धन देना।
9. परामर्श सेवा के लिये अच्छे भवन का प्रबन्ध
10. निर्देशन कार्यक्रम के प्रभाव का मूल्यांकन अध्यापकों के सहयोग से करना ।
11. बालकों के माता-पिता को निर्देशन सेवाओं से परिचित रखना।
प्रधानाचार्य का महत्त्व ‘शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन पत्रिका’ में भी स्पष्ट किया गया कि- “प्रधानाचार्य या प्रधानाध्यापक अपने विद्यालय के निर्देशन कार्यक्रम का मुख्य व्यक्ति (Keyman). होता है। उसको उसके उद्देश्यों के साथ सहानुभूति रखनी चाहिये तथा अपनी हार्दिक सहायता प्रदान करनी चाहिये।”
प्रत्येक विद्यालय में प्रधानाचार्य को आज की परिवर्तित परिस्थितियों में निर्देशन की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिये। इसके उपलब्ध साधनों के आधार पर उसको निर्देशन कार्यक्रम की योजना बनानी चाहिये।
प्रधानाचार्य को विद्यालय में एक निर्देशन समिति बनानी चाहिये। प्रधानाचार्य स्वयं इस समिति का प्रधान रहेगा। सभी सदस्य मिलकर निर्देशन क्रियाएँ निश्चित करेंगे। समय-समय पर यह समिति मूल्यांकन द्वारा निर्देशन क्रिया की उपयुक्तता निश्चित करेगी। निर्देशन समिति में सदस्यों का चुनाव बड़ी सावधानी से करना चाहिये। उन अध्यापकों को ही समिति का सदस्य बनाया जाये जो निर्देशन में कुछ रुचि तथा योग्यता रखते हों।
अध्यापकों को निर्देशन कार्य का प्रशिक्षण देने के लिये प्रधानाचार्य को नौकरी वालों की शिक्षा का आयोजन करना चाहिये। इस कार्य के लिये विभागीय मीटिंग करनी चाहिये। इसमें किसी योग्य व्यक्ति को आमन्त्रित किया जा सकता है जो निर्देशन के क्षेत्र में ज्ञान रखता हो । विद्यालयों में ही अध्यापकों के लिये अंशकालीन पाठ्यक्रम संगठित किये जायें।
प्रधानाचार्य का उत्तरदायित्व है कि निर्देशन कार्यक्रम के लिये सभी सुविधाएँ उपलब्ध करे। निर्देशन कार्यालय की व्यवस्था करे। उसके लिये पर्याप्त फर्नीचर प्रदान करे। सभी प्रकार की सामग्री खरीदने के लिये पर्याप्त धन जुटाये। भारत में धनाभाव के कारण सभी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पाती हैं।
अध्यापकों को निर्देशन कार्य का उत्तरदायित्व देते समय उनके कार्यभार पर ध्यान दिया जाये। जिन अध्यापकों को निर्देशन कार्य सौंपा जाये उनको शिक्षण कार्य कम दिया जाये। छात्रों तथा अध्यापकों के समय-चक्र में कुछ घण्टे खाली रखे जायें, जिससे वे निर्देशन सुविधाओं का लाभ उठा सकें।
प्रधानाचार्य को विद्यालय कार्य की भाँति निर्देशन-क्रियाओं का भी निरीक्षण करना चाहिये। परामर्शदाता के सुझावों के अनुसार पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन के लिये तैयार रहना चाहिये।
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