अनुक्रम (Contents)
निर्देशन कार्यक्रम के संगठन से आप क्या समझते हैं?
भारतवर्ष में निर्देशन कार्यक्रम विद्यालय स्तर पर जिस गति के साथ संगठित हो रहा है वह अधिक सन्तोषप्रद नहीं है। किसी विद्यालय में निर्देशन कार्यकम संगठित करने के पूर्व प्रश्नों पर विचार करना चाहिये-
1. विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों की कौन-कौन-सी और किस प्रकार की आवश्यकता है जिनकी सन्तुष्टि के लिये उसी प्रकार से संगठन का रूप हो।
2. निर्देशन कार्यक्रम में कार्यभार एवं कार्य क्षेत्रों के आधार पर कितने कर्मचारी आवश्यक हैं।
3. विविध सेवाओं को प्रारम्भ करने के लिये विद्यालय में कौन-कौन से अध्यापक योग्य हैं?
4. क्या विद्यालय के अध्यापकों के पास अध्यापन कार्य के अतिरिक्त निर्देशन के कार्यभार को सम्भालने के लिये समय बचता है।
5. निर्देशन कार्य में विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं (Tests) एवं सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। क्या विद्यालय के बजट में से इनको खरीदा जा सकता है ?
6. क्या कार्यक्रम का संगठन करने के लिये विद्यालय में उचित स्थान की व्यवस्था हो सकेगी?
7. माता-पिता तथा अन्य संस्थाएँ इस प्रकार के कार्यक्रम में रुचि रखते हैं या नहीं ?
विद्यालय निर्देशन कार्यक्रम का संगठन
यहाँ पर शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर निर्देशन-व्यवस्था का रूप दिया जायेगा। एक बात ध्यान देने योग्य है कि कोई निर्देशन व्यवस्था सभी विद्यालयों में उपयोगी नहीं हो सकती है। अतः इसमें लचीलापन होना आवश्यक है जिसमें विद्यालय की आवश्यकताओं तथा आर्थिक साधनों के अनुरूप परिवर्तन किया जा सके।
1. प्रारम्भिक विद्यालयों का निर्देशन कार्यक्रम – प्राथमिक विद्यालयों में अध्ययन करने वाले बालकों की समस्याएँ कम होती हैं एवं अधिक गम्भीर भी नहीं होती हैं। अतः इस स्तर पर निर्देशन कार्य अध्यापक ही सम्पन्न करता है, किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं होती है।
प्राथमिक स्तर पर निर्देशन व्यवस्था का प्रशासन विद्यालय के हाथों में होता है। कक्षाध्यापक छात्रों के अधिक सम्पर्क में रहता है, अतः वह उनकी समस्याओं को भी भली-भाँति समझता है।
निर्देशन कार्य को पूर्ण करने के लिये अध्यापक एवं प्रधानाचार्य सामाजिक संस्थाओं एवं विद्यालय के बाहर की संस्थाओं की सहायता भी लेते हैं। माता-पिता, चिकित्सक, उपस्थिति अधिकारी आदि सभी का सहयोग प्राप्त करना होता है।
प्राथमिक स्तर पर निर्देशन कार्यक्रम के प्रयोजन
प्राथमिक विद्यालय में निर्देशन कार्यक्रम के अधोलिखित प्रयोजन हो सकते हैं-
(i) व्यक्तिगत छात्रों की आवश्यकताओं, समस्याओं एवं गुणों का अवलोकन ।
(ii) अवलोकित तथ्यों का संकलित आलेख-पत्र में लेखन करना।
(iii) उन छात्रों को पहचानना जो विद्यालय से बाहर की समस्याओं से ग्रसित होते हैं। उदाहरण के लिये-
(अ) वे छात्र जो सामाजिक या सांवेगिक समायोजन नहीं कर पाते।
(आ) वे छात्र जो शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं से ग्रसित होते हैं। इनका ज्ञान साफल्य परीक्षा द्वारा होता है।
(इ) कुछ छात्र अधिक या कम मानसिक योग्यता के कारण विद्यालय के नियमित कार्यक्रम में समायोजित नहीं हो पाते हैं। ऐसे छात्र बुद्धि परीक्षा द्वारा ज्ञात किये जा सकते हैं।
(ई) कुछ छात्रों का स्वास्थ्य खराब होता है।
(iv) माता-पिता एवं विद्यालय के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना ।
(v) उपस्थित अधिकारी के साथ सहयोग अधिक अनुपस्थित रहने वाले छात्रों का अध्ययन हो सके।
(vi) छात्र के विकास का निरन्तर मूल्यांकन।
(vii) सभी अध्यापकों का सहयोग।
2. माध्यमिक विद्यालय की निर्देशन- व्यवस्था प्राथमिक विद्यालयों की अपेक्षा माध्यमिक विद्यालय में निर्देशन-व्यवस्था निश्चित रूप धारण कर लेती है। इस स्तर पर संगठन कुछ जटिल हो जाता है। निर्देशन समिति एवं परामर्शदाता माध्यमिक विद्यालयों में निर्देशन कार्य में प्रधानाचार्य की सहायता करते हैं। अध्यापक के माता-पिता एवं निर्देशन समिति से भी सम्पर्क स्थापित करना होता है। परामर्शदाता मुख्य व्यक्ति होता है जो निर्देशन कार्य में केन्द्रीय स्थान प्राप्त करता है।
3. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की निर्देशन-व्यवस्था— माध्यमिक शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर भारत के कुछ प्रान्तों में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय स्थापित किये गये हैं। इन उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में छात्रों को मुख्यतः निर्देशन सहायता की आवश्यकता है। इसी समय छात्र विभिन्न व्यवसायों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं या विश्वविद्यालय शिक्षा प्राप्त करने के लिये कॉलेजों या विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करना चाहते हैं। अतः इन विद्यालयों में निर्देशन क्रियाओं एवं निर्देशन कर्मचारियों की अधिकता होती है।
उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में प्रधानाचार्य पर कार्यभार अधिक होने से वह निर्देशन विभाग पर विशेष ध्यान नहीं दे पाता है। अतः निर्देशन कार्य के संगठन का काम निर्देशन-संचालक को सौंप देता है। निर्देशन कार्य में कक्षाध्यापक, कक्षा-परामर्शदाता आदि सभी सहयोग देते हैं। इस स्तर पर विशेषज्ञों की विशेष रूप से आवश्यकता होती है।
- निर्देशन का महत्त्व
- निर्देशन के विभिन्न सिद्धान्त
- निर्देशन कार्यक्रम की विशेषताएँ
- निर्देशन कार्यक्रम को संगठित करने के उपाय, विशेषताएँ तथा प्रकार
- निर्देशन का क्षेत्र, लक्ष्य एवं उद्देश्य
- निर्देशन का अर्थ | निर्देशन की परिभाषा | निर्देशन की प्रकृति | निर्देशन की विशेषताएँ
- निर्देशन की आवश्यकता | सामाजिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता
इसी भी पढ़ें…
- अभिप्रेरणा क्या है ? अभिप्रेरणा एवं व्यक्तित्व किस प्रकार सम्बन्धित है?
- अभिप्रेरणा की विधियाँ | Methods of Motivating in Hindi
- अभिप्रेरणा का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार
- अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
- अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ, परिभाषाएं, प्रकार, महत्त्व, उपयोग/लाभ, सीमाएँ
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अनुप्रयोग
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का क्षेत्र
- विद्यालयों में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अर्थ
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का प्रारम्भ
- अधिगम के नियम, प्रमुख सिद्धान्त एवं शैक्षिक महत्व
- शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ, परिभाषा ,क्षेत्र ,प्रकृति तथा उपयोगिता
- वैश्वीकरण क्या हैं? | वैश्वीकरण की परिभाषाएँ
- संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा देते हुए मूल्य और संस्कृति में सम्बन्ध प्रदर्शित कीजिए।
- व्यक्तित्व का अर्थ और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक