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वृत्तिका नियोजन एवं उसके सोपान
वृत्तिका नियोजन एक सतत प्रक्रिया है जो किशोरावस्था प्रारम्भ होने के साथ प्रारम्भ हो जाती है और उस समय तक चलती है जब तक कि व्यक्ति उस वृत्तिका में स्थान न प्राप्त कर ले जहाँ उसको अत्यधिक आत्म सन्तुष्टि प्राप्त होती है। कुछ छात्र प्रारम्भ से ही नियोजन के आधार पर अपनी रुचि की जीविका में नियुक्ति पा लेते हैं और कुछ रुचि की जीविका में प्रवेश न पाने पर वृत्तिका नियोजन में व्यस्त रहते हैं। वृत्तिका नियोजन से आशय ऐसी योजना बनाने से है जिसके माध्यम से बालक अपनी योग्यता और अभिरुचि के अनुरूप वृत्तिका में नियुक्ति पा सके। वृत्तिका नियोजन में चार सोपानों का अनुसरण करना आवश्यक है जो निम्नलिखित हैं-
1. स्वयं का ज्ञान- वृत्तिका नियोजन करने के लिए बालक के लिए आवश्यक है कि वह स्वयं को समझे। हमने इस पुस्तक के एक अध्याय ‘व्यक्ति का अध्ययन’ में देखा कि निर्देशन में व्यक्ति का अध्ययन क्यों आवश्यक है और व्यक्ति अध्ययन में व्यक्ति से सम्बन्धित किन तथ्यों का संग्रह करना चाहिये। निर्देशन में व्यक्ति का अध्ययन करने का कारण निर्देशन का व्यक्तित्व केन्द्रित होना है, न कि समस्या केन्द्रित होना। व्यक्ति अध्ययन में जो तथ्य परामर्शदाता के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, वे ही तथ्य व्यक्ति को स्वयं को समझने में सहायक होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति कुछ गुणों अथवा विशेषताओं से विभूषित होता है। इसमें से कुछ गुण जन्मजात होते हैं और कुछ वातावरण से अर्जित होते हैं। ये गुण छात्र की बुद्धिलब्धि, रुचि, अभिरुचि, अभिवृत्ति, व्यक्तित्व आदि से सम्बन्धित होते हैं। इसी प्रकार विषयों में उपलब्धि उसकी कक्षा में प्रगति को दर्शाती है। उदाहरण के लिए बर्ट ने एक सूची तैयार की है जिसमें दर्शाया है कि किस व्यवसाय में सफलता के लिए कितनी बुद्धिलब्धि आवश्यक है। इसी प्रकार रुचि का मापन दर्शाता है कि व्यक्ति में किसी कार्य को करने की रुचि है या नहीं। रुचियों के अनेक क्षेत्र है— जैसे यांत्रिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक लिपिक, कलात्मक संगीतात्मक संगणनात्मक आदि। इसी प्रकार अभिरुचि वह वर्तमान दशा है जो व्यक्ति की भावी क्षमताओं की ओर संकेत करती है। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि निर्देशक उपर्युक्त वर्णित जिन गुणों को तथ्य परीक्षण द्वारा एकत्रित करता है, वे तथ्य छात्रों को भी बताने चाहिये। क्योंकि इन तथ्यों का स्पष्टीकरण ही छात्र की स्वयं को समझने में सहायता करेगा। इन सूचनाओं के अतिरिक्त बालकों को अपने शारीरिक बल और स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान होना भी महत्त्वपूर्ण है।
2. वृत्तिका का ज्ञान- वृत्तिका नियोजन के लिए वृत्तिका का पूरा ज्ञान छात्र को होना चाहिये। इस कार्य में व्यवसाय या वृत्तिका से सम्बन्धित सभी सूचनाओं का प्रसारण छात्रों में होना चाहिये। किसी भी वृत्तिका से सम्बन्धित निम्नलिखित सूचनाओं की जानकारी आवश्यक है—
(i) वृत्तिका का नाम व वृत्तिका का सामाजिक महत्त्व, (ii) कार्य की प्रकृति, (iii) प्रतिष्ठान में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या, (iv) कार्य-स्थल की भौतिक दशाएँ (v) वृत्तिका के लिए आवश्यक योग्यताएँ—(अ) शारीरिक योग्यता- आयु, लिंग, शारीरिक क्षमताएँ, बौद्धिक योग्यताएँ, (ब) शैक्षिक योग्यता – सामान्य शिक्षा, विशिष्ट प्रशिक्षण, अनुभव आदि। (vi) नियुक्ति की प्रक्रिया— चयन परीक्षा, साक्षात्कार, रोजगार कार्यालय द्वारा, शारीरिक परीक्षा (vii) वेतन–प्रारम्भिक वेतन क्रम, भत्ता, अन्य सुविधाएँ जैसे निवास, पानी, बिजली, परिवहन भत्ता। (viii) समय-कार्य की अवधि, कार्य का समय रात्रि का दिन, स्वास्थ्य व दुर्घटना की सम्भावना, (ix) उन्नति के अवसर, (x) अन्य ।
परामर्शदाता द्वारा उपर्युक्त सूचनाएँ विविध स्रोतों से एकत्रित की जाती हैं। समय-समय पर इन सूचनाओं का प्रसारण छात्रों में होना चाहिये। ये सूचनाएँ वृत्तिका नियोजन में छात्र की अत्यधिक सहायता करती हैं।
3. व्यक्तितगत और वृत्तिक सूचनाओं का विश्लेषण करना- वृत्तिका नियोजन का यह तीसरा सोपान है जिसमें व्यक्ति स्वयं के तथ्यों और वृत्तिक सूचनाओं का विश्लेषण करता है। वह देखता है कि वृत्तिका के लिए आवश्यक गुणों में से कितने गुण उसमें पाये जाते हैं।
4. निर्णय लेना- विश्लेषण के बाद किसी वृत्तिका का चयन करने का निर्णय लेना वृत्तिका नियोजन का अन्तिम सोपान है। वृत्तिका नियोजन में यद्यपि बालक माता-पिता और परामर्शदाता की सलाह लेता है किन्तु माता-पिता को अपनी महत्त्वाकांक्षा बालक पर थोपनी नहीं चाहिये। इसी प्रकार परामर्शदाता को बालक के उपयुक्त वृत्तिकाओं के विकल्प उसके सामने रखने चाहिये। वृत्तिका चयन का अन्तिम अधिकार बालक का ही होना चाहिये।
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