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वैदिक कालीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
वैदिक कालीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य ( Important aims of education in vedic India ) – प्राचीन भारत में शिक्षा के अपने कुछ विशिष्ट उद्देश्य थे जिन्हें अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को आदर्श उद्देश्य माना है। यह शिक्षा एक ओर तो बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करती है और दूसरी ओर उसे सामाजिकता का प्रशिक्षण देती हैं। डाo ए0एस0 अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए लिखा है – “ईश्वर भक्ति एवं धार्मिक भावना का विकास, चरित्र निर्माण, व्यक्ति का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्य पालन की शिक्षा, सामाजिक कुशलता में वृद्धि तथा राष्ट्रीय भावना का संरक्षण एवं प्रसार प्राचीन भारतीय शिक्षा के मुख्य उद्देश्य कहे जा सकते हैं।
1. ज्ञान एवं अनुभव पर बल – प्राचीन भारत में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान और अनुभव पर बल देना था। उस समय छात्रों की मानसिक योग्यता का मानदण्ड उनके द्वारा प्राप्त किये जाने वाले अंक, प्रमाण – पत्र या उपाधि पत्र नहीं थे। इसके स्थान पर उनकी योग्यता का मापदण्ड था उनके द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान, जिनका प्रमाण वे विद्वत्परिषदों में शास्त्रार्थ करके देते थे। “छाब्दोग्य उपनिषद् ” में इसे श्वेतकेतु या कमलायन के उदाहरण मिलते हैं जिनको बारह वर्ष के अध्ययन के उपरान्त भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी नहीं समझा गया था। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य या आदर्श केवल पढ़ना नहीं था, वरन् मनन् , स्मरण और स्वाध्याय द्वारा ज्ञान को आत्मसात करना था। डा० आर०के० मुकर्जी के शब्दों में “शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात करना था।”
2. चित्तवृत्तियों का विरोध- प्राचीन काल में शिक्षा का दूसरा उद्देश्य छात्रों की चित्त वृत्तियों का विरोध करना था। उस समय शरीर की अपेक्षा आत्मा को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था। क्यों कि शरीर नश्वर है जबकि आत्मा अनश्वर है। अतः आत्मा के स्थान के लिए जप तप और योग पर विशेष बल दिया जाता था। ये कार्य चित्त की प्रवृत्ति का विरोध करके अर्थात मन पर नियंत्रण करके ही सम्भव थे। इसलिए छात्रों को विभिन्न प्रकार के अभ्यासों द्वारा अपनी चित्त वृत्तियों का विरोध करने का प्रशिक्षण दिया जाता था ताकि उनका मन इधर उधर भटक कर उनकी मोक्ष प्राप्ति में जिसे जीवन का चरम लक्ष्य समझा जाता था, बाधा उपस्थित न करे। इस प्रकार डा० आर० के० मुकर्जी के शब्दों में – “चित्तवृत्तियों का निरोध शिक्षा का उद्देश्य अर्थात मन के उन कार्यों का निषेध था जिनके कारण वह भौतिक संसार में उलझ जाता है।”
3. ईश्वर-भक्ति व धार्मिकता का समावेश- प्राचीन भारत में शिक्षा का तीसरा – उद्देश्य छात्रों में ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना का समावेश करना था। उस समय इस प्रकार की शिक्षा को सार्थक माना जाता था जो इस संसार में व्यक्ति की मुक्ति को सम्भव बनाये – “सा विद्या या विमुक्तये ” व्यक्ति को मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती थी जब ईश्वर भक्ति व धार्मिकता की भावना से सरोवार हो। छात्रों में इस भावना को व्रत, यज्ञ, उपासना, धार्मिक उत्सवों आदि के द्वारा विकसित किया जाता था। डा० ए०एस० अल्तेकर ने लिखा है “सब प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य छात्र को समाज का धार्मिक सदस्य बनाना था।
4. चरित्र का निर्माण- प्राचीन भारत में शिक्षा का चौथा उद्देश्य छात्रों के चरित्र का निर्माण करना था। उस समय व्यक्ति के चरित्र को उसके पाण्डित्य से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था। “मनुस्मृति” में लिखा है “केवल गायत्री मंत्र का ज्ञान रखने वाला चरित्रवान ब्राह्मण सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता पर चरित्रहीन विद्वान से कहीं अधिक श्रेष्ठ है” गुरुकुलों के उत्तम वातावरण , सदाचार के उपदेशों, महापुरूषों के उदाहरणों, महान विभूतियों के आदर्शों आदि के द्वारा छात्रों के चरित्र का निर्माण किया जाता था। डा० वेद मित्र का कथन है छात्रों के चरित्र का निर्माण – करना शिक्षा का एक अनिवार्य उद्देश्य माना जाता था। “
5. व्यक्तित्व का विकास – भारत में शिक्षा का पाँचवाँ उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वाङ्गीण विकास करना था। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसमें आत्मसंयम आत्म, सम्मान, आत्म विश्वास आदि सदगुणों को उत्पन्न किया जाता था। जीवन व्यतीत करते समय साथ ही गोष्ठियों और वाद विवाद सभाओं का आयोजन करके उनमें विवेक, न्याय और निष्पक्षता की शक्तियों को जन्म देकर इनको बलवती बनाया जाता था।
6. नागरिक व सामाजिक कर्तव्य पालन की भावना का समावेश- प्राचीन भारत में शिक्षा का छठवाँ उद्देश्य छात्रों में नागरिक व समाजिक कर्तव्यों का पालन करने की भावना का समावेश करना था। उस समय प्रत्येक व्यक्ति से आशा की जाती थी वह कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते समय अपने नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों का पालन करे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छात्रों को गुरू द्वारा विभिन्न प्रकार के उपदेश दिये जाते थे। जैसे- अतिथियों का सत्कार करना, दीन दुःखियों की सहायता करना, वैदिक साहित्य की निःशुल्क शिक्षा देना, दूसरों के प्रति निःस्वार्थता का व्यवहार करना और पुत्र – पिता एवं पति के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करना ।
7. सामाजिक कुशलता की उन्नति- प्राचीन भारत में शिक्षा का सातवाँ उद्देश्य छात्रों की सामाजिक कुशलता में उन्नति करना था। उस समय शिक्षा केवल व्यक्ति का मानिसक विकास नहीं करती थी वरन सामाजिक कुशलता में उनकी उन्नति भी करती थी ताकि वह सरलता से अपनी जीविका का उपार्जन करके अपने सुख में अभिवृद्धि कर सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छात्रों को उनकी रूचि और वर्ण के अनुसार किसी उद्योग या व्यवसाय की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। “शिक्षा पूर्णतया सैद्धान्तिक और साहित्यिक नहीं थी, वरन किसी न किसी शिल्प से सम्बद्ध थी।”
8. राष्ट्रीय संस्कृति की संरक्षण और प्रसार- प्राचीन भारत में शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार करना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक पिता अपने पुत्र को व्यवसाय में दक्ष बनाता था, प्रत्येक ब्राह्मण वेदें का अध्ययन करता था और प्रत्येक आर्य वैदिक साहित्य के किसी न किसी भाग का अध्ययन करता था। इन कार्यों से किसी को कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होता था पर इनको करके वे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी संस्कृत को सुरक्षित रखते थे तथा उसका प्रसार भी करते थे। ऊपर प्राचीन शिक्षा के जिन उद्देश्यों को अंकित किया गया है उनसे विदित हो जाता है कि उनका निर्माण व्यक्ति के लौकिक और परलौकिक जीवन की सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया गया था।
आधुनिक भारत में प्राचीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श की उपर्युक्तता
अब हमारे सामने यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि शैक्षिक शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श भारत की आधुनिक शिक्षा में कहाँ तक अपनाये जा सकते हैं। वैदिक काल में शिक्षा के उद्देश्यों की रचना तत्कालीन परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गयी थी किन्तु आधुनिक काल की परिवर्तित परिस्थितियों में वे उद्देश्य तथा आदर्श कहाँ तक उपयुक्त हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। नीचे हम प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों तथा आदर्शों की विवेचना करेंगे जो वर्तमान परिस्थितियों में भी थोड़े परिवर्तन के साथ अपनाये जा सकते हैं।
1. धार्मिकता की भावना का विकास- प्राचीन भारत में यह शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था। शिक्षा का आरम्भ तथा अन्त धार्मिक संस्थाओं द्वारा होता था। पाठ्यक्रम भी धार्मिक पुस्तकों से परिपूर्ण था। गुरुकुलों का वातावरण भी अत्यधिक आध्यात्मिक था। गुरू और शिष्य दोनों मिलकर धार्मिक पुस्तकों का पठन पाठन करते थे और दोनों के बीच का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक शिक्षा धर्म पर आधारित थी। किन्तु आधुनिक भारत में अब धर्म का वह स्थान नहीं रहा क्योंकि अब हमारी आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों में महान परिवर्तन हो गया है। आज का युग अर्थप्रधान युग है। इसीलिए शिक्षा द्वारा व्यक्ति की भौतिक उन्नति आवश्यक है। अतएव शिक्षा का यह उद्देश्य आधुनिक भारत की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त नहीं है।
2. चरित्र निर्माण – प्राचीन भारतीय शिक्षा का यह दूसरा उद्देश्य था। छात्रों में नैतिक आदर्शों के प्रति रूचि उत्पन्न करना, सदाचार का पालन, कर्तव्यनिष्ठ आत्मसंयम, धैर्य एवं उत्साह आदि गुणों के द्वारा चारित्रिक विकास करना शिक्षा का एक महान आदर्श था। वैदिक शिक्षा के इस उद्देश्य को निश्चय ही आधुनिक परिस्थितियों में अपनाया जा सकता है। आजकल के सभी शिक्षाशास्त्री चरित्र निर्माण पर बल दे रहे हैं। आजकल हमारे देश में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव दिखायी देता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बेईमानी, झूठ, भ्रष्टाचार तथा व्यभिचार का बोलबाला है। राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण अन्त में चलकर व्यक्तिगत चरित्र पर ही निर्भर करता है। अतएव शिक्षा को इस महान कार्य की ओर ध्यान देना चाहिए।
3. नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन – प्राचीन शिक्षा का यह उद्देश्य भी आधुनिक परिस्थितियों में अपने देश में अपनाया जा सकता है। आजकल हमारे देश में प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली की स्थापना की गयी है। प्रजातन्त्रात्मक की सफलता उत्तम नागरिकों पर निर्भर करती हैं। उत्तम नागरिक वही है जो सामाजिक दृष्टि से कार्यकुशल हो और जो सभी नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा का यह उद्देश्य भी हमारी प्रजातन्त्रात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। अतएव इसे हमें अपना लेना चाहिए।
4. व्यक्तित्व का विकास- वैदिक शिक्षा प्रणाली में व्यक्तित्व के विकास पर भी जोर दिया जाता था। शिक्षा का यह आदर्श भी आधुनिक युग में अपनाया जा सकता है। आधुनिक युग के सभी शिक्षाशास्त्री बालक के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर जोर दे रहे हैं। हमारे व्यक्तित्व के सभी प्रमुख तत्वों जैसे शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक का शिक्षा के द्वारा संतुलित विकास होना चाहिए।
5. सामाजिक कुशलता में वृद्धि – वैदिक काल में शिक्षा के इस उद्देश्य पर अत्यधिक बल दिया जाता था। शिक्षा में सांस्कृतिक विषयों के साथ ही साथ व्यवसायिक विषयों को भी पढ़ाया जाता था। इसके लिए विभिन्न उद्योगों तथा कौशलों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता था जिससे कि व्यक्ति अपने जीवन में आत्मनिर्भर तथा स्वालम्बी बन सके। आधुनिक युग में भारत जैसे प्रजातन्त्रात्मक देश के लिए इस उद्देश्य की अत्यधिक आवश्यकता है। आजकल शिक्षा द्वारा प्रत्येक बालक को सामाजिक दृष्टि से कार्यकुशल बनाया जा रहा है।
6. राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसारण- वैदिक शिक्षा का यह अन्तिम उद्देश्य था। शिक्षा द्वारा पूर्वजों की संस्कृति का संरक्षण प्रसारण किया जाता था। आधुनिक युग में शिक्षा के इस आदर्श को भी अपनाया जा सकता है। शिक्षा ही संस्कृति के संरक्षण तथा प्रसारण के लिए आवश्यक तथा शक्तिशाली साधन है। यदि हम भारतीय संस्कृति, परम्पराओं तथा मूल्यों को जीवित रखना चाहते हैं, तो आधुनिक युग में भी हम वैदिक शिक्षा के इस आदर्श की अवहेलना नहीं कर सकते। भारतीय संस्कृत के कल्याणकारी तत्वों को हम शिक्षा द्वारा ही सुरक्षित तथा प्रसारित कर सकते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि वैदिक शिक्षा के उपयोग तथा आदर्श के अत्यन्त उपयोगी तथा आकर्षक थे। इन आदर्शों को हम आज भी अपनी शिक्षा प्रणाली में अपना सकते हैं। हम आदर्शों के अलिखित प्राचीन शिक्षा की अन्य विशेषताओं जैसे- गुरू-शिष्य सम्बन्ध, अनुशासन पर बल, ब्रम्हचर्य व्रत का पालन, उपयोगी एवं उदार शिक्षा का समन्वय, कक्षा नायकीय प्रणाली तथा सदा जीवन उच्च विचार को आसानी से अपनाया जा सकता है।
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