समाजशास्‍त्र / Sociology

सांप्रदायिकता का अर्थ | साम्प्रदायिकता के उत्तरदायी कारक | साम्प्रदायिकता निवारण के प्रयास एवं सुझाव

सांप्रदायिकता का अर्थ
सांप्रदायिकता का अर्थ

साम्प्रदायिकता से आप क्या समझते हैं ?

साम्प्रदायिकता को विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है,

रेमण्ड हाउस शब्दकोष के अनुसार, साम्प्रदायिकता अपने ही जातीय समूह के प्रति न कि समग्र समाज के प्रति तीव्र निष्ठा की भावना है।

श्री कृष्णदत्त भट्ट के अनुसार सम्प्रदायवाद का अर्थ है, मेरा सम्प्रदाय मेरा पंथ, मेरा मत ही सबसे अच्छा है। उसी का महत्व सर्वोपरि होना चाहिए। मेरे सम्प्रदाय की ही वह तूती बोलनी चाहिए। उसी की सत्ता मानी जानी चाहिए। अन्य सम्प्रदाय हेय है। उन्हें या तो पूर्णतः समाप्त कर दिया जाना चाहिए या वे रहें भी तो मेरे मातहत होकर रहे। मेरे आदेशों का सतत पालन करें। मेरी मर्जी पर आश्रित रहें।

साम्प्रदायिकता को उन्होंने इस प्रकार वर्णित किया है अपने धार्मिक सम्प्रदाय से भिन्न अन्य सम्प्रदाय अथवा सम्प्रदायों के प्रति उदासीनता, उपेक्षा, दया दृष्टि, घृणा, विरोध और आक्रमण की भावना ‘साम्प्रदायिकता’ है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि साम्प्रदायिकता का सम्बन्ध धार्मिक समूहों से है, वे समूह अपने ही धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं अपनी भाषा तथा संस्कृति का वर्चस्व चाहते हैं अन्य धर्म तथा संस्कृतियों का प्रभाव चाहते हैं। उनके प्रति घृणा व विद्वेष का भाव ही इसको प्रकट करता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि साम्प्रदायिकता वह संकीर्ण मनोवृत्ति है जो एक धर्म अथवा सम्प्रदाय के लोगों में अपने आर्थिक एवं राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए पायी जाती है और उसके परिणामस्वरूप विभिन्न धार्मिक समूहों में तनाव एवं संघर्ष पैदा होने हैं।

साम्प्रदायिकता के उत्तरदायी कारक

साम्प्रदायिकता एक दिन में पैदा होने वाली भावना नहीं है बल्कि इसके पीछे बहुत सारे कारक कार्यरत रहते हैं। इनमें से प्रमुख कारक इस प्रकार है-

1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस देश में मुसलमान बाहर से आये। कितने हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। अपने धर्म के प्रचार के लिए अत्याचार किये और दूसरे धर्म के प्रति अपने मन में घृणा पाली है। मुस्लिम लीग ने भारत के दो टुकड़े कर दिये फिर इनके मध्य साम्प्रदायिक भाव क्यों न आयेगा। विभाजन के समय के दंगों का कोई भी भूला नहीं है।

2. मनोवैज्ञानिक कारक

साम्प्रदायिकता एवं मनोवृत्ति है। हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही एक दूसरे के प्रति अविश्वास, विरोध और पृथकरण के भाव रखते हैं। एक-दूसरे से पूर्णतया हिल-मिल नहीं सकते हैं। यद्यपि आज की पीढ़ी इसमें विश्वास नहीं करती है किन्तु एक सम्प्रदाय धार्मिक कट्टरता का शिकार है और इसके कारण ही साम्प्रदायिकता में वृद्धि होती है।

3. भौगोलिक कारक

भौगोलिक कारकों ने भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। यहाँ एक परिवेश में एक ही धर्म जाति और भाषा-भाई समूह एक ही भौगोलिक क्षेत्र में निवास करते हैं। इसमें अत्यन्त का भाव सिर्फ अपने के लिए ही पाई जाती है। बाह्य लोगों को अपनाने का भाव आज भी उत्पन्न नहीं हो सका है।

4. सांस्कृतिक भिन्नता

भारत में रहने वाले दो प्रमुख सम्प्रदाय हिन्दू और मुस्लिम दोनों की ही सांस्कृतिक रूप से बिल्कुल पृथक् है। उनमें कुछ भी समान नहीं है। ये दोनों एक-दूसरे के प्रति इसी के कारण सहिष्णुता नहीं रख सकते हैं।

5. धार्मिक सहिष्णुता

विश्व में अनेक धर्म है और उनके आदर्श मूल्य व मान्यतायें भी पृथक् पृथक् हैं। सभी अपने-अपने धर्म का प्रचार-प्रसार चाहते हैं और यही कारण है कि उनमें एक- दूसरे के प्रति विद्वेष का भाव रहता है और वे साम्प्रदायिकता की दिशा में चले जाते हैं।

6. राजनैतिक स्वार्थ

स्वतंत्रता के पश्चात् प्रजातांत्रिक प्रणाली लागू की गई। इसमें राजनैतिक दलों का बहुत प्रभाव रहता है। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए विभिन्न धार्मिक दलों का निर्माण हुआ और उन्होंने ही साम्प्रदायिकता को हवा दी है। यह कार्य स्वतंत्रता पूर्व मुस्लिम लोग ने भी यही कार्य किया था।

7. साम्प्रदायिक संगठन

सामाजिक दृष्टि से धर्म अनिवार्य विचार है। यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, – सिख, इसाई, जैन आदि सम्प्रदाय है और इनमें से कुछ तो स्पष्ट रूप से अन्य धर्मों के प्रति भड़काऊ भाषण देते हैं। अपने सम्प्रदाय के लोगों का संघर्ष के लिए भड़काते हैं। यह कार्य धर्म नहीं करता अपितु धार्मिक संगठन करते हैं।

8. असामाजिक तत्व एवं निहित स्वार्थ

साम्प्रदायिकता बढ़ाने की बात कोई भी धर्म नहीं कहता है। इसमें कुछ असामाजिक तत्व लोगों की धार्मिक भावना को उकसाकर अफवाहें फैलाकर लड़ाई दंगे करवाते हैं और स्वयं लूटपाट का फायदा उठाते हैं।

9. धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग

भारतीय संविधान में भारत को एक धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित करता है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक धर्म एवं सम्प्रदाय को फलने, फूलने तथा विकास का पूर्ण अवसर प्राप्तः है। सब सम्प्रदाय के लिए अलग-अलग सामाजिक विधानों की व्यवस्था है और ये सभी इसका दुरुपयोग कर साम्प्रदायिकता बढ़ाते हैं।

इन साम्प्रदायिक परिस्थितियों का समाज पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव भी कम नहीं है। अतः इन पर एक संक्षेप में दृष्टि डालना अत्यन्त अनिवार्य है-

(i) राष्ट्रीय एकता के मार्ग को बाधित करते हैं।

(ii) समाज एवं राष्ट्र में तनाव और संघर्ष की स्थिति बनी रहती है तथा जन सामान्य असुरक्षा की भावना से ग्रसित होता है।

(iii) साम्प्रदायिकता के परिणामस्वरूप होने वाले दंगों के कारण जन-धन की हानि होती है।

(iv) इससे देश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है।

(v) इस मौके की आड़ में असामाजिक तत्व सक्रिय हो जाते हैं।

(vi) सामाजिक तथा सांस्कृतिक विघटन होता है।

(vii) आपस में व्यक्ति एक दूसरे से सम्प्रदाय विभिन्नता के कारण विश्वास खो देते हैं। एक विकासशील देश के इस तरह की परिस्थितियाँ सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखती है बल्कि विकास कार्य बार-बार अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए इन परिस्थितियों के निवारण हेतु निम्नलिखित प्रयास किये जाना आवश्यक है।

साम्प्रदायिकता निवारण के प्रयास एवं सुझाव

1. धार्मिक संगठनों पर रोक लगाई जाये।

2. शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से ही राष्ट्र प्रेम का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए।

3. साम्प्रदायिक तनावों के खिलाफ कठोर कदम उठाये जायें।

4. साम्प्रदायिक सहिष्णुता का प्रचार होना चाहिए।

5. सम्प्रदाय के आधार पर आरक्षण बन्द होना चाहिए।

6. चलचित्र, रेडियो, टी. वी. तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से साम्प्रदायिक एकता एवं  सद्भावना का प्रचार किया जाना चाहिए।

7. असामाजिक तत्वों तथा राजनीतिक स्वार्थों समूहों से सख्ती से निपटा जाये।

8. प्रशासनिक शिथिलता को समाप्त किया जाये तथा साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने वालों से सख्ती से निपटा जाये।

9. राष्ट्रीय नेताओं को उदारवादी विचारधारा अपनानी चाहिए तथा राष्ट्रीय हित में सद्भाव एवं आपसी समझदारी का सन्देश देना चाहिए।

10. सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए समान सामाजिक विधान बनाये जायें ताकि पारस्परिक भेदभाव समाप्त हो ।

11. इस कार्य में स्त्रियों को विशेष योगदान देना चाहिए। क्योंकि बच्चों की प्रथम शिक्षिका माँ होती है।

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shubham yadav

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