वर्तमान युग के सांस्कृतिक संकट
वर्तमान युग का सांस्कृतिक संकट (Cultural Crisis of the Present Age) प्रसिद्ध समाजशास्त्री सोरोकिन ने सांस्कृतिक विघटन की अवधारणा तथा सांस्कृतिक अद्यःपतन के स्वरूपों को स्पष्ट करने के लिये अपनी प्रख्यात पुस्तक “The crisis of our Age’ में वर्तमान युग में व्याप्त सांस्कृतिक संकट की विस्तृत विवेचना की है। सोरोकिन के विचारों के संदर्भ में यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि वर्तमन विश्व कितने बड़े सांस्कृतिक संकट के बीच फँसा हुआ है तथा इस सांस्कृतिक विघटन को समाप्त करना इस समय कितना अधिक आवश्यक है।
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी देशों में हर कहीं अराजकता व्याप्त हो गयी थी। जीवन में प्रसन्नता और सुरक्षा का अभाव था। मानसिक शान्ति मात्र एक सपना थी तथा मानवीय मूल्यों की खुलेआम अवहेलना हो रही थी। इस समय अनेक विद्वानों ने इस संकट को केवल एक आर्थिक और राजनीतिक संकट मानकर हिटलर, मुसोलिनी और रूजवेल्ट शासकों को इसके लिये उत्तरदायी मान लिया। उनका विचार था कि आर्थिक सुविधाओं में वृद्धि, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था, राजनीतिक संगठन में फेर-बदल और आर्थिक नीतियों के परिवर्तन से यह संकट स्वयं ही समाप्त हो जायेगा। सोरोकिन ने ऐसे विचारों का तीव्र विरोध करते हुये अपनी पैनी दृष्टि से इस संकट को एक असाधारण संकट बताया क्योंकि यह संकट आर्थिक अथवा राजनीतिक न होते हुये सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त एक सांस्कृतिक संकट था । में सोरोकिन ने पश्चिम के अन्य समाजशास्त्रियों से भिन्न यूरोप को ही सभी संस्कृतियों के प्रत्येक मोड़ से परिचित थे। यही कारण है कि सोरोकिन का विश्लेषण अन्य समाजशास्त्रियों की तुलना में कहीं अधिक यथार्थवादी सिद्ध हुआ।
सोरोकिन ने सांस्कृतिक संकट पर अन्य विद्वानों से असहमत होते हुये बताया कि संकट की यह स्थिति किसी अल्पकालीन गड़बड़ी या सद् और असद में से एक की विजय या पराजय से उत्पन्न नहीं हुयी है। यह संकट हमारे साहित्य, कला, धर्म, दर्शन, नैतिकता, कानून, राजनीति, परिवार, आचरण के तरीकों, संस्थाओं यादि सभी कुछ को समाप्त कर चुका है। मध्यकाल में अच्छाइयों को बनाये रखने वाला एक ‘ईश्वर’ जैसा मूल्य था वह भी अब नहीं रहा। इसलिये बिना किसी ठोस आधार के इस संकट को समाप्त कर देने की कोई आशा करना पूर्णतया निराधार है। संस्कृति के विघटन की व्यापकता को स्पष्ट करते हुये सोरोकिन ने कहा कि “आज हमारे जीवन का हर पहलू हर संगठन प्रत्येक संस्था और सम्पूर्ण संस्कृति एक अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है। समाज का बाहरी ढाँचा और आन्तरिक मानस रोगग्रस्त है। इस सामाजिक शरीर का शायद ही कोई हिस्सा ऐसा मिले जो सूजा हुआ और घायल न हो, शायद ही कोई ऐसा स्नायु मिले जो सही ढंग से अपना कार्य कर रहा हो वास्तव में हम दो संस्कृतियों – की संधि में फँसे हुये हैं – एक मरती हुयी इन्द्रियपरक संस्कृति जो कल तक की सुन्दरतम उपलब्धि थी और दूसरी आने वाले कल की विचारात्मक संस्कृति जिसे हम ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं इस गड़बड़ी में सही दिशा देख पाना और अपने को बचाकर सही दिशा में ले जाना संभव सा प्रतीत हो रहा है। इस संक्रमणकालीन संध्या में दिल कँपा देने वाली डरावनी छायाएँ उभर रही हैं और निरन्तर बढ़ रहे संत्रास को चीर पाना कठिन हो गया है।
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