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शिक्षा के भावात्मक आयाम (affective dimension of learning)
व्यक्ति की जीवन-पद्धति पर उसकी भावनाओं का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिए पाठ्यक्रम में भावात्मक समायोजन एवं नियंत्रण को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए जो उसके व्यक्तित्व के विकास तथा मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखते हैं। व्यक्ति के भावात्मक विकास को प्रभावित करने वाली स्थितियों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-
1. व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास से उत्पन्न होने वाली आन्तरिक प्रवृत्तियाँ जो उसकी स्वयं की संकल्पना पर निर्भर करती हैं।
2. पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्ध माता-पिता और बालकों के बीच मित्र- मण्डली शिक्षक तथा अन्य अधिकार सम्पन्न व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन में से सम्बन्ध सहायक एवं बाधक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। अतः इन्हें पाठ्यक्रम विकास के प्रथम चरण से आधारभूत बातों में स्थान दिया जाना चाहिए। कक्षा – शिक्षक को भी इन्हें महत्त्व प्रदान करना चाहिए।
3. तृतीय वर्ग में वे बाह्य निर्धारक आते है। जिन्हें कोई स्पष्ट एवं निश्चित रूप नहीं दिया जा सकता ये ऐसे सामान्य निर्धारक होते हैं जो किसी शारीरिक उद्दीपक से उत्पन्न अनुक्रिया के रूप में होते हैं। ये अनुक्रियायें शीघ्र ही सामान्य बन जाती हैं तथा किसी विशेष वस्तु या पदार्थ से उत्तेजना प्राप्त करने लगती हैं। चूँकि ऐसी अनुक्रियाएँ सीखी भी जा सकती हैं और छोड़ी भी जा सकती हैं, अतः इनका शैक्षिक महत्त्व है। अनुबन्धित प्रशिक्षण अनुशासन आदि विधियों के द्वारा अपेक्षित भावात्मक प्रतिक्रियाओं को विकास किया जा सकता है और अनपेक्षित प्रतिक्रियाओं को समाप्त भी किया जा सकता है।
ब्लूम द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण में भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है-
1. आग्रहण या प्राप्ति (Receiving)
2. अनुक्रिया ( Responding)
3. अनुमूल्यन (Valuing)
4. व्यवस्थापन (Organising)
5. मूल्य का लक्षण वर्णन (Characterization)
1. आग्रहण या प्राप्ति (Receiving) – यह भावात्मक पक्ष का निम्नतम अर्थात् आरम्भिक वर्ग है। इस स्तर पर सीखने वाला उत्तेजक के प्रति संवेदनशील प्रदर्शित करता है। इस उद्देश्य के तीन स्तर होते हैं-
(i) अभिज्ञान (Awareness)
(ii) प्राप्त करने की सहमति (Willingness to receive)
(iii) नियंत्रित अथवा चयनित ध्यान (Controlled or Selected Anentiro)।
2. अनुक्रिया (Responding) – इसके अन्तर्गत अभिप्रेरणा तथा अवधान में अधिक सक्रियता एवं नियमितता की अपेक्षा की जाती है। व्यावहारिक दृष्टि से इसे अभिरुचि भी कहा जा सकता है। इस उद्देश्य के भी तीन स्तर होते हैं-
(i) अनुक्रिया की मौन स्वीकृत।
(ii) अनुक्रिया की सहमति।
(iii) अनुक्रिया से सन्तुष्टि।
3. अनुमूल्यन (Valuing) – इसके अन्तर्गत व्यवहार की वह अभिप्रेरणा आती है जो व्यक्ति की किसी मूल्य प्रति प्रतिबद्धता पर आधारित होती है। सुविधा के लिए इसे अभिवृत्ति कहा जा सकता है। इसमें प्रत्ययों के मूल्य का अवलोकन करना होता है तथा इसके तीन स्तर होते हैं-
(i) मूल्य की स्वीकृति
(ii) मूल्यों को वरीयता क्रम देना
(iii) प्रतिबद्धता (किसी मूल्य को अपनाना )।
4. व्यवस्थापन (Organising) – सामान्यतया व्यक्ति का व्यवहार किसी एक अभिवृत्ति से अभिप्रेरित नहीं होता, बल्कि अभिवृत्ति समूह से होता है। अभिवृत्ति के ऐसे समूह के व्यवस्थित रूप को व्यवस्थापन कहा जाता है। उदाहरण के लिए आचार संहिता को मूल्य प्रणाली की व्यवस्था माना जा सकता है। इस उद्देश्य के दो स्तर होते हैं-
(i) मूल्य का सम्बोधीकरण (मूल्य प्रणाली को धारण करना)।
(ii) मूल्य प्रणाली की व्यवस्था या संगठन।
5. मूल्य का लक्षण वर्णन या चरित्रीकरण (Characterization) – जब कोई व्यक्ति कुछ मूल्यों अथवा अभिवृत्तियों के अनुसार निरंतर व्यवहार करता हुआ ऐसे स्तर पर पहुँच जाता है जिसे उसका जीवन दर्शन कहा जाने लग जाता है तो वह लक्षण वर्णन की स्थिति होती है। भावात्मक क्षेत्र का यही सर्वोच्च एवं अंतिम उद्देश्य है। इसके भी दो स्तर हैं-
(i) सामान्यीकृत समुच्चय।
(ii) लक्षण वर्णन (मूल्यों को आत्मसात् करना)।
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