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परामर्शदाता (उपबोधक) से आप क्या समझते हैं?
परामर्श की प्रक्रिया में परामर्शदाता महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परामर्श की सफलता बहुत अंशों तक परामर्शदाता की प्रतिभा, ज्ञान तथा दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। परामर्श की सम्पूर्ण प्रक्रिया परामर्शदाता के कार्य, उसके व्यक्तित्व एवं गुणों से प्रभावित होती रहती है।
विद्वानों ने परामर्शदाता के कार्यों एवं उनकी प्रकृति को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। प्रारम्भ में परामर्शदाता शब्द के स्थान पर ‘निर्देशन विशेषज्ञ’ शब्द बहुत प्रचलित था। उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक में कई लेखकों ने ‘परामर्शदाता’ शब्द का प्रयोग किया। निर्देशन विशेषज्ञों के लिये डी.डब्ल्यू. लीफिवर आदि ने परामर्शदाता शब्द का प्रयोग सुझाते हुये परामर्शदाता एवं अध्यापक परामर्शदाता का अन्तर स्पष्ट करते हुये लिखा, “विशेषज्ञों के लिये अदल-बदल के आधार पर परामर्शदाता तथा अध्यापक परामर्शदाता शब्द का प्रयोग किया जाता है, किन्तु कुछ अन्तर के साथ एक परामर्शदाता वह व्यक्ति है जो अपने आधे अथवा उससे अधिक समय का उपयोग निर्देशन कार्य के लिये करता है……एक अध्यापक परामर्शदाता वह है जिसे निर्देशन कार्य हेतु कम-से-कम एक कक्षा के कार्य से मुक्त किया जाये, किन्तु जो अपने सम्पूर्ण समय के आधे समय का उपयोग उपबोध्य के लिये न करे।”
गत शताब्दी के चौथे दशक में निर्देशन विशेषज्ञ तथा परामर्शदाताओं का कार्य एक ही जैसा समझा जाता था, परन्तु धीरे-धीरे परामर्शदाताओं के कार्यों एवं उनकी प्रकृति को स्पष्ट किया गया और अनेक विद्वानों ने इस बारे में अपने विचार व्यक्त किये।
जोन्स के विचार से परामर्शदाता वह है जो परामर्श का कार्य करता है। जोन्स के इस कथन का अभिप्राय यह है कि परामर्शदाता को अन्य प्रकार के कार्य तथा जिम्मेदारियाँ नहीं सौंपी जानी चाहिये। उसका कार्य है परामर्श और इसी को केन्द्र मानकर उसको परामर्शदाता की संज्ञा दी गयी है। लेखन और लेखक का जो शाब्दिक विश्लेषण है, उसी प्रकार का विश्लेषण परामर्श और परामर्शदाता का किया जा सकता है। लेखन और परामर्श यहाँ पर संज्ञार्थक कृदन्त के रूप में प्रयुक्त हैं और लेखक एवं परामर्शदाता जातिवाचक संज्ञाओं के रूप में परामर्शदाता की प्रकृति को जोन्स ने इसी प्रकार स्पष्ट किया है।
परामर्शदाता की प्रकृति एवं परामर्श प्रक्रिया को ध्यान में रखकर जोन्स ने परामर्शदाता के कार्यों पर प्रकाश डाला है। उसके अनुसार परामर्श के दौरान परामर्शदाता निम्नलिखित आवश्यकताओं को पूरा करता है-
1. एक व्यक्ति की समस्या से सम्बद्ध सूचना की प्रयोजनवश व्याख्या करने की आवश्यकता।
2. ध्यानपूर्वक सुनने, जाँच करने तथा सलाह की प्रक्रिया की आवश्यकता।
3. जिन समस्याओं के समाधान तक छात्र या व्यक्ति आसानी से न पहुँच सके उसमें सहायक उपकरणों को गतिशील करना।
4. उन समस्याओं की जानकारी जाग्रत करने की आवश्यकता जो वर्तमान में तो है किन्तु जिन्हें अभी स्वीकृत नहीं किया गया है।
5. स्वीकार की गयी किन्तु समझी न जा सकने वाली समस्याओं की परिभाषा करने की आवश्यकता।
6. जब विद्यार्थी किसी समस्या का समाधान खोजने में सहायता की आवश्यकता चाह रहा हो तब रचनात्मक कार्यवाही की आवश्यकता।
7. निश्चित गम्भीर अप-समायोजनों में सहायता की आवश्यकता।
इस प्रकार परामर्शदाता को परामर्श के दौरान उपबोध्य की अनेक आवश्यकताओं पर ध्यान देना होता है। जोन्स द्वारा निर्दिष्ट उपर्युक्त आवश्यकताओं के अध्ययन से हमें परामर्शदाता की प्रकृति एवं उसके कार्यों को समझने में सहायता मिलती है।
परामर्शदाता के गुण
केरल के अनुसार एक अच्छे परामर्शदाता में निम्नलिखित विशेषतायें एवं गुण होने चाहिये-
1. अच्छी आधारभूत बुद्धि-परामर्शदाता में इतना कौशल होना चाहिये कि वह अनुभव द्वारा अथवा औपचारिक अध्ययन के माध्यम से प्राप्त ज्ञान का यथास्थान उपयोग कर सके।
2. समृद्ध सामान्य ज्ञान- परामर्शदाता के लिये अपने आस-पास के सांस्कृतिक एवं आर्थिक जगत् का सामान्य ज्ञान पर्याप्त मात्रा में अपेक्षित है। विशेष रूप से व्यावसायिक जगत् की उसकी जानकारी विस्तृत होनी चाहिये। यह कहने का अभिप्राय यहाँ यह नहीं है कि परामर्शदाता विश्वकोष का स्थान ले ले। ऐसा उसके लिये असम्भव है, पर उसका सामान्य ज्ञान जीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोगों की अपेक्षा समृद्ध होना आवश्यक है।
3. गहरी विशिष्ट जानकारी- व्यवसाय का क्षेत्र परामर्शदाता का विशिष्ट क्षेत्र है। परामर्शदाता को व्यवसाय सम्बन्धी जानकारी में विशेषता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। उसे केवल भविष्य में उत्पन्न होने वाले रोजगारों की सम्भावनाओं का ज्ञान ही नहीं होना चाहिये, अपितु यह भी पता होना चाहिये कि उसके लिये कौन-सी अर्हतायें एवं प्रशिक्षण वांछनीय हैं। उसे व्यक्तियों के स्वभाव, उनकी मनोवैज्ञानिक कमजोरियों तथा संस्कारों के सम्बन्ध में गहरी जानकारी प्राप्त करनी होती है।
4. विशेष कौशल- परामर्शदाता को कुछ विशेष तकनीकों के प्रयोगों में कुशल होना चाहिये। ये तकनीक हैं- परीक्षण की तकनीक, साक्षात्कार की तकनीक तथा नियोजन की तकनीक। इन तकनीकों के अतिरिक्त उसे व्यावसायिक सूचनायें एकत्र करने, उनके वितरण एवं अन्य मापन परीक्षण की जानकारी अपेक्षित है।
5. विशेष वैयक्तिक गुण- उपर्युक्त गुणों एवं विशेषताओं के अतिरिक्त परामर्शदाता में कुछ विशेष वैयक्तिक गुण भी आवश्यक हैं। उसमें सहानुभूति, सहिष्णुता और वस्तुगतता वांछनीय है। उसका व्यक्तित्व सन्तुलित एवं निष्ठावान होना चाहिये। कुछ लोग अपनी स्वभावगत क्षतिपूर्ति के लिये प्रत्येक को सहायता प्रदान करने के लिये तत्पर रहते हैं। परामर्शदाता को निश्चय ही उन लोगों में से नहीं होना चाहिये। उसे यथासम्भव विवेकशील, उत्साही तंथा दूसरों की कमजोरियों के प्रति संवेदनशील होना चाहिये। वास्तव में परामर्शदाता एक असाधारण व्यक्ति होता है।
स्टीफ्लेर तथा स्टीवर्ट ने परामर्शदाता की अभिवृत्ति व प्रवीणता के समय में, उसमें निम्न गुणों का पाया जाना आवश्यक बताया है-
1. नैतिक व्यवहार- परामर्शदाता का नैतिक गुणों से युक्त होना परम आवश्यक है क्योंकि परामर्श की प्रक्रिया के मध्य उसे बहुधा अत्यन्त गोपनीय सूचनायें प्राप्त होती हैं। जब तक उपबोध्य को परामर्शदाता पर पूर्ण विश्वास नहीं होगा तब तक वह उससे खुलकर बातचीत एवं सहयोग सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पायेगा। अतः परामर्शदाता में नैतिक व्यवहार का होना परामर्श की प्रभावकता के लिये एक अनिवार्य दशा है।
2. लचीलापन- परामर्शदाता को रूढ़िवादी या अधिक दृढ़ नहीं होना चाहिये। अपने छात्र या सहयोगी से परामर्श के अन्तर्गत सहयोगी सम्बन्ध विकसित करने के लिये परामर्शदाता को छात्र की अभिवृत्तियों में हो रहे परिवर्तनों एवं उसकी प्रत्याशाओं के प्रति जागरूक रहना चाहिये व तदनुसार अपना व्यवहार निर्देशित करना चाहिये।
3. बौद्धिक योग्यता- परामर्शदाता का बौद्धिक रूप से कुशाग्र होना भी आवश्यक है। उसे मानव व्यवहार तथा वर्तमान घटनाओं को अपने प्रशिक्षण एवं पूर्व अनुभवों से जोड़ने का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये। साथ ही व्यवस्थित एवं तार्किक चिन्तन की योग्यता भी परामर्शदाता में वर्तमान होनी चाहिये, जिससे कि वह छात्र के सम्मुख उद्देश्यों के प्रस्तुतीकरण में सफल सिद्ध हो सके।
4. स्वीकृति – व्यक्ति परामर्शदाता के पास कुछ जानने व सहायता प्राप्त करने के लिये आता है। उसमें भय, आशा, सन्देह, चिन्ता सभी कुछ व्याप्त रहती है। अतः ऐसी दशा में परामर्शदाता के लिये आवश्यक है कि वह छात्र की बातों को स्वीकार करे, उसे अपने जीवन के लिये उत्तरदायी माने तथा यह स्वीकार करके चले कि छात्र को अपने जीवन में निर्णय लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता या अधिकार है। दूसरे शब्दों में, “उपबोध्य के व्यक्तित्व की अवहेलना कर, परामर्श को सफल या प्रभावक नहीं बनाया जा सकता।”
5. समक्ष – परामर्शदाता को उपबोध्य के विषय में दो स्तरों पर समझ आवश्यक है। ये दो स्तर हैं— भावात्मक तथा वैचारिक अर्थात् परामर्शदाता का उपबोध्य के साथ संचार इस प्रकार का होना चाहिये जिससे कि वह भावात्मक तथा वैचारिक स्तर पर उपबोध्य के साथ अपने को जोड़ सके।
6. संवेदनशीलता- परामर्शदाता का ईमानदार तथा अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक होना, एक आवश्यक गुण है। परामर्श की प्रक्रिया में परामर्शदाता का निर्णय व भूमिका तभी पक्षपातरहित होगी जब वह अपने दायित्यों के प्रति पर्याप्त रूप में जागरूक होगा तथा उसकी पूर्ति में ईमानदारी से प्रयास करेगा।
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