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बाल्यावस्था के विकास में विद्यालय के योगदान (Contribution of school in Childhood development)
बाल्यावस्था के विकास में विद्यालय के योगदान- विद्यालय बालकों की शिक्षा का औपचारिक अभिकरण है। विद्यालय प्रत्येक बालक को समझना, उसके व्यक्तित्व का आदर करना, उसको अपनी शक्तियों के लिए ज्ञान देना व अन्य क्रियाओं का आयोजन करना विद्यालय का कार्य है ।
जॉन डीवी के अनुसार – “विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट परिवेश है, जहाँ जीवन के गुणों और विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि वांछित दिशा में बालक का विकास हो सके।”
रॉस के अनुसार – “विद्यालय वे संस्थायें हैं, जिनको सभ्य मनुष्यों द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया गया है कि समाज में सुव्यवस्थित और योग्य सदस्यता के लिए बालकों को तैयार करने में सहायता मिल सके।”
बालक के विकास में विद्यालय के कार्यों की विवेचना निम्नवत् की जा सकती है-
1. मानसिक विकास (Mental Development) – विद्यालय बालक के मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। परिवार के बाद उसका मानसिक विकास विद्यालय के माध्यम से ही होता है। विद्यालय का पाठ्यक्रम, खेलकूद, अनुशासन, स्कूल के साथी और अध्यापक विभिन्न रूपों में बालक के मानसिक विकास में सहायक होते हैं। जो बालक किन्हीं कारणों से विद्यालय नहीं जा पाते, उनका मानसिक विकास निम्न स्तर का रह जाता है ।
2. मानसिक स्वास्थ्य का विकास (Development of Mental Health)- विद्यालय में शैक्षणिक तथा पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन बालक के मानसिक स्वास्थ्य का उन्नयन करते हैं। विद्यालय का वातावरण ऐसा हो जहाँ बालक निडर होकर अन्तःक्रिया कर सके। बालकों की आयु और रुचि के अनुसार खेलने का प्रबंध हो, बालकों की दमित इच्छाओं को प्रकटीकरण का अवसर मिल सके. बालकों को अपने कार्यों में उचित स्वतंत्रता दी जाये, अच्छा पुस्तकालय हो, अध्यापक और बालकों के मध्य अच्छे सम्बन्ध हों, वहाँ बालकों का मानसिक स्वास्थ्य उन्नत होता है।
3. सामाजिक विकास (Social Development) – जो बच्चे विद्यालय जाते हैं, उन्हें सामाजिक विकास के अनेक अवसर मिलते हैं। विद्यालय जाने वाला बालक आत्मनिर्भर बनता है, उसमें असहायता का भाव कम होने लगता है। सहपाठियों के साथ रहने व उठने-बैठने से उसका सामाजिक दायरा बढ़ता है, वह विचारों का आदान-प्रदान करता है । मैत्रीपूर्ण व्यवहार, सामूहिकता, दूसरों के विचार का आदर करना आदि सीखता है, जिससे धीरे-धीरे उसका सामाजिक वातावरण बढ़ता चला जाता है। बालक अध्यापक का अनुर करके अनेक सामाजिक गुण सीखता है।
4. लोकतांत्रिक दृष्टिकोण का विकास (Development of Democratic Outlook)- विद्यालय में विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषायी पृष्ठभूमि वाले बाल एक साथ अध्ययन करते हैं, जिससे उनमें सहयोग, सहनशीलता, बन्धुत्व तथा आदर-भाव का विकास होता है। इससे बालक शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की कला सीखते हैं और उनमें लोकतांत्रिक दृष्टिकोण का विकास होता है।
5. नैतिक विकास (Moral Development)- बालक निरंतर अध्यापकों के व्यक्तित्व, ज्ञान, आचरण और आदतों द्वारा प्रभावित होते रहते हैं। वे अध्यापकों की बातों को शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं। अध्यापकों के नैतिक आचरण के अनुकरण से बालकों का नैतिक विकास होता है । सहपाठी भी बालक के नैतिक विकास को प्रभावित करते हैं। यदि सहपाठी चरित्रवान होते हैं तो बालक में अच्छे आचरण का विकास होता है । गलत मित्र बालक को नैतिक राह से भटका देते हैं। जिन विद्यालयों की व्यवस्था और अनुशासन ठीक होता है, वहाँ बालकों के कार्य व व्यवहार स्वतः ही अनुशासित हो जाते हैं और बालकों का नैतिक विकास होता है।
6. संवेगात्मक विकास (Emotional Development)- विद्यालय बालक के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाला शक्तिशाली कारक है। यदि विद्यालय का कार्यक्रम, अध्यापकों का व्यवहार, बालक के संवेगों को सन्तुष्ट करते हैं तो उसका संवेगात्मक विकास सकारात्मक होता है। बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना, अच्छी और बुरी भावनाओं में अंतर करना जान जाता है।
7. प्रत्यय निर्माण (Concept Formation)- विद्यालय में बालक को व्यापक अनुभव के अवसर मिलते हैं। ये व्यापक अनुभव प्रत्ययात्मक विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। अध्यापक यदि बालक को अपने प्रत्ययों को कक्षा में अभिव्यक्ति करने का अवसर देते हैं, किसी वस्तु विशेष को विभिन्न परिप्रेक्ष्यों या सन्दर्भों में प्रस्तुत करते हैं तो बालक में उचित प्रत्यय का निर्माण होता है।
8. तार्किक चिन्तन का प्रशिक्षण (Training of Logical Thinking)- विद्यालय में आयोजित भाषण प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, विचार-विमर्श गोष्ठियाँ आदि बालक के तार्किक चिन्तन शक्ति का विकास करती हैं। अध्यापक समस्यामूलक अध्यापन विधियों का प्रयोग करके बालक को तार्किक चिन्तन का प्रशिक्षण देते हैं।
9. सृजनात्मकता का विकास (Development of Creativity)- सृजनशील अध्यापकों के प्रभाव से बालकों में सृजनात्मकता का विकास होता है। विद्यालय बालकों को पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन, विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन का अवसर देते हैं, विभिन्न स्रोतों से ज्ञान, कौशल एवं अन्य सूचनायें उपलब्ध कराते हैं, विभिन्न क्षेत्रों के महान अन्वेषकों की जीवनगाथा से परिचित कराते हैं, खेल और आविष्कार की क्रियाओं का अवसर देते हैं, बालकों की रचना की सराहना करते हैं, तो बालक सृजनात्मक कार्यों के लिए प्रेरित होता है।
10. समूह मन का निर्माण (Building Group Mind)- विद्यालय में विद्यार्थी उचित समय तक साथ-साथ रहते हैं। खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, वार्षिकोत्सव, समाज-सेवा कार्य में साथ-साथ भाग लेते हैं। विविध प्रकार की पाठ्य सहगामी क्रियाओं में बालक एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। इससे वे एक-दूसरे के विचारों, कार्यों और सोचने के तरीकों को समझने का प्रयास करते हैं। इससे बालकों में समूह मन का निर्माण होता है।
11. नेतृत्व क्षमता का विकास (Development of Leadership) – विद्यालय बालक को ज्ञानार्जन का ही अवसर नहीं देता, बालक को नेतृत्व का भी प्रशिक्षण देता है। अध्यापक बालकों को विभिन्न क्षेत्र के उत्तरदायित्व सौंपते हैं, स्वानुशासन की भावना का विकास करते हैं, बालकों की संकल्प शक्ति का विकास करते हैं, बालकों को उनकी योग्यताओं और क्षमताओं से परिचित कराते हैं तो बालक में नेतृत्व क्षमता का विकास होता है। विद्यालय में आयोजित सहकारिता के कार्य, प्रतियोगितायें, साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि बालक में नेतृत्व के गुणों का विकास करते हैं।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर स्पष्ट होता है कि विद्यालय के विभिन्न अंग, संसाधन और वातावरण बाल्यावस्था के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, जैसे-
(i) विद्यालय का वातावरण
(ii) प्रधानाध्यापक
(iii) अध्यापकगण
(iv) साथी समूह
(v) विद्यार्थियों का वर्गीकरण
(vi) विद्यालय की प्रयोगशालायें, पुस्तकालय
(vii) अध्यापन के तरीके
(ix) पाठ्य सहगामी क्रियायें
(viii) विशेष शैक्षिक कार्यक्रम
(x) परिवार तथा समुदाय से विद्यालय का सम्बन्ध
(xi) पाठ्यक्रम
(xiii) गृह-कार्य
(xii) समय तालिका
(xiv) विद्यालय- अनुशासन
(xv) विद्यालय में निर्देशन व परामर्श सेवायें आदि।
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