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बालक का संवेगात्मक विकास | Emotional Development of Child in Hindi

बालक का संवेगात्मक विकास
बालक का संवेगात्मक विकास

बालक का संवेगात्मक विकास (Emotional Development of Child)

बालक का संवेगात्मक विकास (Emotional Development of Child in Hindi)- क्रो एवं क्रो के अनुसार- “बाल्यावस्था के सम्पूर्ण वर्षों में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं।” इससे स्पष्ट होता है कि बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास के साथ परिवर्तन भी होते रहते हैं। किस प्रकार से उनकी अभिव्यक्ति होती है वह भी विशेष बात होती है। इस अवस्था में आते ही संवेगों में सामाजिकता का भाव आ जाता है। उन्हें इस बात का ज्ञान होने लगता है कि सामाजिक जीवन में कब किस प्रकार के भावों को व्यक्त करना उचित है। अर्थात् बालक संवेगों पर नियंत्रण करना आरम्भ कर देते हैं। समाज की प्रशंसा प्राप्त करने और निन्दा से बचने के लिए वे जहाँ प्रेम प्रदर्शित करना होता है वहाँ प्रेम प्रदर्शित करते हैं, जहाँ सहानुभूति प्रदर्शित करना होता है वहाँ सहानुभूति प्रदर्शित करते हैं और जहाँ द्वेष प्रकट करना होता है वहाँ द्वेष प्रकट करते हैं आदि।

बाल्यावस्था में होने वाले संवेगात्मक परिवर्तनों की कुछ प्रमुख विशेषताओं का निम्नवत् उल्लेख किया जा सकता है-

(i) संवेगों की उग्रता में कमी (Lack of Intensity of Emotions) आ जाती है। शैशवावस्था की भाँति उग्र रूप से अभिव्यक्त नहीं होते हैं। समाजीकरण के प्रारम्भ होने के फलस्वरूप बालक संवेगों का दमन करने का प्रयास करता है अथवा उनको शिष्ट ढंग से अभिव्यक्त करता है। माता-पिता, अध्यापक तथा अन्य बड़े व्यक्तियों के समक्ष वह ऐसे संवेगों को प्रकट नहीं करता है, जिसे अवांछनीय समझा जाता है।

(ii) बाल्यावस्था में, शैशवावस्था की भाँति भय नहीं उत्पन्न होता है। बालकों में भय का सम्बन्ध अधिकतर भावी कार्यों से होता है। जैसे गृह कार्य न करने पर अथवा न पढ़ने-लिखने पर माता-पिता तथा अध्यापक का भय, परीक्षा में सफल होने की चिन्ता एवं असफल होने का भय। इसके अतिरिक्त कोई भयानक घटना, बीमारी आदि भी भय का कारण हो सकता है। इस सम्बन्ध में कारमाइकेल का कथन है-“कोई भी बात जो बालक के आत्मविश्वास को कम करती है या उसके आत्मसम्मान को ठोस पहुँचाती है या उसके कार्य में बाधा उपस्थित करती है या उसके द्वारा महत्वपूर्ण समझे जाने वालो लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसको चिन्तित और भयभीत रहने को प्रवृत्त कर सकती है।”

(iii) बाल्यावस्था में परिवार, समाज या विद्यालय के सख्त नियमों से बालक में निराशा और असहायपन का भाव बड़ी तीव्रता से पैदा होता है। उन्हें लगता है वे बिल्कुल अकेले हैं, उनका अपना कोई नहीं है। जब बालकों की इच्छाएँ पूरी नहीं होती तो वे महसूस करने लगते हैं कि उन्हें कोई प्यार नहीं करता है।

(iv) बालक को अपने कार्य में सुख-दुःख की अनुभूति होती है। सफलता एवं असफलता से संतोष तथा असंतोष की भावना भी बालक में पाई जाती है।

(v) बाल्यावस्था में बालक किसी-न-किसी समूह का सदस्य होता है। वह उस समूह के कार्यकलापों में भाग लेता है। किसी न किसी कारणवश वह समूह के दूसरे सदस्यों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष और घृणा की भावना उत्पन्न कर लेती है, वह दूसरे बालकों के प्रति अपने व्यवहार में इन संवेगों को व्यक्त करने लगता है, यथा-व्यंग, करना, चिढ़ाना, झूठे आरोप लगाना, निन्दा करना, तिरस्कार करना आदि।

(vi) बालक 6-7 वर्ष की आयु से ही अपने वातावरण की वस्तुओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु हो जाता है। उन वस्तुओं से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्न करता है। खिलौनों को खोलकर उनके बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार उनमें जिज्ञासा (Curiosity) संवेग का विकास होता है।

(vii) उत्तर बाल्यावस्था में स्नेह भाव की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्यावस्था की तुलना में कम होती है। वह स्नेह भावना की अभिव्यक्ति उन लोगों के प्रति करता है जो उसके मित्र होते हैं या जिनके साथ रहना चाहता है और सहायता करना चाहता है। स्नेह प्रदर्शित करने का तरीका शैशवावस्था से भिन्न होता है। वह इस भावना को अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है।

(viii) उत्तर-बाल्यावस्था में प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्यावस्था के समान ही होती है। इस अवस्था में बालक विनोदप्रिय अधिक होता है। व्यंग-विनोद में उसे आनन्द मिलता है। वह असाधारण घटना को देखकर, यथा- किसी को गिरते देखकर, किसी को लड़ते या मार-पीट करते देखकर बहुत प्रसन्न होता है।

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors inffluencing emotional development)

बालक का संवेगात्मक विकास अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होता है। इनमें से प्रमुख कारकों को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. स्वस्थ एवं शारीरिक विकास (Health and Physical Development)- शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य का गहरा संवेगात्मक विकास से होता है। आन्तरिक वह बाह्य दोनों प्रकार की शारीरिक न्यूनताएँ कई प्रकार की संवेगात्मक समस्याओं को जन्म दे सकती हैं। स्वस्थ बालकों की अपेक्षा कमजोर अथवा बीमार बालक संवेगात्मक रूप से अधिक संतुलित एवं असमायोजित पाए जाते हैं। संतुलित संवेगात्मक विकास के लिए विभिन्न ग्रन्थियों का ठीक प्रकार से काम करना आवश्यक है जो केवल स्वस्थ और ठीक ढंग से विकसित हुए शरीर में ही सम्भव है। इस प्रकार शारीरिक विकास की दशा का गहरा प्रभाव संवेगात्मक विकास पर पड़ता है।

2. बुद्धि (Intelligence) – समायोजन करने की योग्यता के रूप में बालक के संवेगात्मक समायोजन और स्थिरता की दिशा में बुद्धि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस सम्बन्ध में मेल्टजर (Meltzer) ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है- ” सामान्य रूप से अपनी ही उम्र के कुशाग्र बालकों की अपेक्षा निम्न बुद्धि स्तर के बालकों में कम संवेगात्मक संयम पाया जाता है। विचार शक्ति, तर्क शक्ति आदि मानसिक शक्तियों के सहारे ही व्यक्ति अपने संवेगों पर अंकुश लगाकर उनको अनुकूल दिशा देने में सफल हो सकता है । अत: प्रारम्भ से ही बालकों की मानसिक शक्तियाँ, बालकों के संवेगात्मक विकास को दिशा प्रदान करने में लगी रहती है।’

3. पारिवारिक वातावरण और आपसी सम्बन्ध (Family Environment and Relationship)- परिवार के वातावरण और आपसी सम्बन्धों का भी बालकों के संवेगात्मक विकास के साथ गहरा सम्बन्ध है जो कुछ बड़े करते हैं उसकी छाप बालकों पर अवश्य पड़ती है। अतः परिवार में बड़ों का जैसा संवेगात्मक व्यवहार होता है बालक भी उसी तरह का व्यवहार करना सीख जाते हैं। कलह, लड़ाई-झगड़े से युक्त पारिवारिक वातावरण, क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या आदि कलुषित संवेगों को ही जन्म दे सकते हैं जबकि प्रेम, दया, सहानुभूति और आत्म-सम्मान से भरपूर वातावरण द्वारा बालक में उचित और अनुकूल संवेग स्थायित्व धारण करते हैं। माता-पिता तथा अन्य परिजनों के द्वारा उसके साथ किया जाने वाला व्यवहार भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करता है। यहाँ तक कि परिवार में बच्चों अथवा भाई-बहिनों की संख्या, उसकी पहली, दूसरी या आखिरी संतानं होना, परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति, माता-पिता द्वारा उसकी उपेक्षा या आवश्यकता से अधिक देखभाल या प्यार-दुलार आदि बातें भी बच्चे के संवेगात्मक विकास को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं।

4. विद्यालय का वातावरण और अध्यापक (School Environment and Teacher)- विद्यालय का वातावरण भी बालकों के संवेगात्मक विकास पर पूरा-पूरा प्रभाव डालता है । स्वस्थ और अनुकूल वातावरण के द्वारा बालकों को अपना संवेगात्मक संतुलन बनाए रखने और अपना उचित समायोजन करने में बहुत आसानी होती है। विद्यालय के वातावरण में व्याप्त सभी बातें, जैसे- विद्यालय की स्थिति, उसका प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश, अध्यापन का स्तर, पाठ्यसहगामी क्रियाओं तथा सामाजिक कार्यों की व्यवस्था, प्रधानाध्यापक एवं अध्यापकों के पारस्परिक सम्बन्ध और अध्यापकों का स्वयं का संवेगात्मक व्यवहार आदि बालकों में संवेगात्मक विकास को पर्याप्त रूप से प्रभावित करती है।

5. सामाजिक विकास और साथियों के साथ सम्बन्ध (Social Development and Peer Group Relationship) – सामाजिक विकास और संवेगात्मक विकास का भी आपस में गहरा सम्बन्ध होता है। बालक का जितना अधिक सामाजिक विकास होगा, संवेगात्मक रूप से वह उतना ही परिपक्व संयमशील बनेगा। सामाजिक रूप से अविकसित एवं उपेक्षित बालकों को अपने संवेगात्मक समायोजन में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Sociolisation) में बालकों का ठीक-ठाक संवेगात्मक विकास और संवेगात्मक व्यवहार अपेक्षित है। उसका पोषण बालक में उचित सामाजिक गुणों के विकास पर भी निर्भर करता है तथा इस दृष्टि से सामाजिक विकास संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने में पूरी-पूरी भूमिका निभाता है।

6. पास-पड़ोस, समुदाय और समाज (Neighbourhood, the Comunity and the Society)– परिवार के अतिरिक्त बालकों का अपना पड़ोस, समुदाय और समाज जिसमें वह रहता है, उसके संवेगात्मक विकास को बहुत प्रभावित करते हैं। अपने संवेगात्मक व्यवहार से सम्बन्धित सभी अच्छे बुरे संवेग और आदतों को वह इन्हीं सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से ग्रहण करता है। एक साहसी और निर्भय जाति या समुदाय में पैदा होने वाला अथवा ऐसे वातावरण में पलने वाले बच्चे में भी साहस और निर्भयता के गुण आ जाना स्वाभाविक ही है। जिस समाज में बड़े लोग शीघ्र ही उत्तेजित होकर गाली-गलौज और मार-पीट करते रहते हैं, उनके बच्चे भी अनायास ऐसी ही संवेगात्मक कमजोरियों का शिकार हो जाते हैं। भय, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, प्रेम, सहानुभूति, दया आदि सभी तरह के अच्छे और बुरे संवेगात्मक गुण अच्छे और बुरे सामाजिक परिवेश के परिणाम होते हैं।

संवेग बालकों के व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक सभी प्रकार का विकास और व्यवहार उनके संवेगों द्वारा प्रभावित होता है। पूर्व अनुभव और प्रशिक्षण के अभाव में संवेग अभाव में अपने उन्मुक्त रूप में व्यक्ति और समाज, दोनों के लिए अहितकर सिद्ध हो सकते हैं। इन्हें समाज और व्यक्ति दोनों के लिए हितकर बनाना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में संवेगों के प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया गया है।

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shubham yadav

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