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बाल्यावस्था में शारीरिक विकास | physical development during childhood in hindi

बाल्यावस्था में शारीरिक विकास
बाल्यावस्था में शारीरिक विकास

बाल्यावस्था में शारीरिक विकास (physical development during childhood.)

बाल्यावस्था में शारीरिक विकास | physical development during childhood in hindi- कुण्डू तथा टूट ने स्पष्ट किया है- ” शारीरिक अभिवृद्धि से अभिप्राय है, शरीर के विभिन्न अंगों का विकास और उनकी कार्यक्षमता। जन्म के क्षण (समय) से लेकर मृत्युपर्यन्त तक व्यक्ति निरंतर बदलता रहता है। यह बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक कभी भी स्थिरता की स्थिति में नहीं होता और वह प्रौढ़ावस्था को ग्रहण करता है। फिर भी परिवर्तन का अन्त नहीं होता बल्कि वह धीमी गति से होता रहता है। इस प्रकार विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसका प्रारम्भ जन्म से पूर्व ही हो जाता है। जो भी हो, जीवन के शुरू के वर्षों में शारीरिक परिवर्तन की मात्रा में तीव्रता रहती है और स्तर में निश्चितता। प्रत्येक शारीरिक परिवर्तन पहले के परिवर्तन पर आश्रित होता है और बदले में होने वाले परिवर्तन को प्रभावित करता है।”

मानव शरीर का विकास गर्भावस्था से प्रारम्भ होता है। गर्भावस्था के विकास को जन्म पूर्व शारीरिक विकास भी कहा जा सकता है। माना तो यह भी जाता है कि मानव के विकास की आधारशिला गर्भावस्था में हो रख दी जाती है। बालक के शैक्षिक विकास में शारीरिक विकास का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। बालक का शारीरिक विकास उसके व्यवहार को प्रभावित करता है।

मनोवैज्ञानिक के अनुसार शारीरिक विकास व्यवहार के निम्न चार क्षेत्रों को प्रभावित करता है-

1. स्नायु मंडल (Nervous System) – स्नायु मंडल के विकास के साथ बुद्धि विकास में वृद्धि होती है। इससे उसके व्यवहार को एक नया रूप मिलता है। बालक का संवेगात्मक व्यवहार उसकी विभिन्न परिस्थितियों को समझने की योग्यता से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित है। वह जिस सामाजिक अनुमोदन का आनन्द प्राप्त करता है। उसका सम्बन्ध दूसरों के विचारों, भावों और संवेगों को समझने की योग्यता से सम्बन्धित होता है।

2. माँसपेशियों में वृद्धि (Growth in Muscles) – माँसपेशियों की वृद्धि होने के साथ, उसकी शक्ति में विकास होता है, जो कि बालक की क्रियाशीलता में तथा उन क्रियाओं में दिखाई देती है जो परिवर्तित होती रहती है। विकास की सभी अवस्थाओं में बालक के खेल-कूद माँसपेशीय विकास पर निर्भर होते हैं।

3. अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands) – अन्त: स्रावी ग्रन्थियों के कार्यों में परिवर्तन होने से नवीन परिवर्तित व्यवहारों का प्रकाशन होता है।

4. सम्पूर्ण शारीरिक ढाँचा (Total Physical Structure) – सम्पूर्ण शारीरिक ढाँचे में परिवर्तन से अर्थात् उसकी शारीरिक रचना, लम्बाई, भार, शारीरिक अनुपात और सामान्य शारीरिक रूप आदि बालक के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। शरीर का विकास अच्छे स्वास्थ्य पर निर्भर होता है। स्वस्थ व्यक्ति ही मन के साथ अपना सर्वांगीण विकास कर सकता है। अतः यह कहा जा सकता है कि शारीरिक विकास और स्वास्थ्य का व्यक्ति के व्यवहार पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

शारीरिक विकास के नियम (Laws of physical development)

शारीरिक विकास निम्नलिखित नियमों के अनुसार होता है-

1. मस्तकाधोमुखी विकास का नियम (Law of Cephalocaudal Development) – यह नियम शारीरिक विकास की दिशा को निर्देशित करता है। इन नियम के अनुसार पहले सिर के भाग और फिर क्रमशः धड़, हाथों और पैरों का विकास होता है।

2. विकास चक्र का नियम (Law of Cyclic Development)- मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि सम्पूर्ण मानव विकास की प्रक्रिया निम्नलिखित चार चक्रों में होती है-

I. प्रथम चक्र : जन्म से 2 वर्ष तक

II. द्वितीय चक्र : 2 से 11 वर्ष तक

III. तृतीय चक्र : 11 से 15 वर्ष तक

IV. चतुर्थ चक्र : 15 से 18 वर्ष तक ।

प्रथम चक्र में शारीरिक विकास बड़ी तीव्रता से होता है। द्वितीय चक्र में विकास की गति अपेक्षाकृत धीमी रहती हैं। तृतीय चक्र में विकास की गति पुनः तीव्र हो जाती है और चतुर्थ चक्र में विकास की गति पुनः धीमी हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि शारीरिक विकास एक समान गति से नहीं होता है। विकास की यह गति पृथक् आयु-अन्तराल में भिन्न-भिन्न होता है।

हरलॉक के अनुसार – “विकास लयात्मक होता है, नियमित नहीं।”

“Growth in rythmic not regular.”-Hurlock

विकास-चक्रों की तीव्रता और मन्दता का एक क्रम होता है। शारीरिक विकास के ये चक्र सभी बालकों में एक निश्चित समय पर प्रकट नहीं होते हैं। बालकों में व्यक्तिगत भिन्नताएँ होने के कारण विकास चक्रों की गति तथा अन्तराल में अंतर पाया जाता है। विभिन्न शारीरिक अंगों के विकास की गति भी विभिन्न अवस्थाओं में एक समान नहीं रहती है।

थॉमसन का विचार है-“मानव शरीर एक समग्र के रूप में विकास नहीं करता, न ही सभी दिशाओं में एक साथ विकसित होता है।”

“The human body does not grow as a whole, nor it grows in all directions at once. “- Thompson

सभी शारीरिक अंगों का विकास अलग-अलग नियमों के अनुसार होता है। शरीर के कुछ अंगों का विकास एक निश्चित अवस्था में ही होता है।

शारीरिक विकास की विशेषताएँ (Characteristics of physical development)

बालक का शारीरिक विकास मुख्यतः दो प्रकार से होता है-

I. शारीरिक रचना का विकास-इसके अन्तर्गत शरीर का आकार, भार, ऊँचाई, शारीरिक अंगों का शरीर के साथ अनुपात, हड्डियाँ, दाँत आदि का विकास सम्मिलित है ।

II. शारीरिक-क्रिया विकास (Physiological Development)- इसके अन्तर्गत तंत्रिका तंत्र (Nervous System), हृदय (Heart) और रुधिर तंत्र (Circulatory System), श्वसन तंत्र (Respiratory System), पाचन तंत्र (Digestive System), माँसपेशियाँ (Muscles ), अन्तःस्रावी ग्रन्थियों आदि का विकास सम्मिलित है ।

बाल्यावस्था में शारीरिक विकास (Physical development during childhood)

बाल्यावस्था को 6 से 12 वर्ष तक की आयु तक माना जाता है। इस अवस्था को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

I. प्रथम भाग : 6 से 9 वर्ष तक

II. द्वितीय भाग : 9 से 12 वर्ष तक

प्रथम भाग में विकास की गति तेज होती है तथा द्वितीय भाग में गति कुछ मन्द पड़ जाती है किन्तु शरीर में दृढ़ता आनी शुरू हो जाती है। इस आयु में शारीरिक परिवर्तन निम्न प्रकार से होते हैं-

1. लम्बाई या आकार (Height or Size)- लम्बाई में वृद्धि की दृष्टि से यह काल विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। इस अवस्था में लम्बाई बढ़ने की दर 2-3 इंच प्रतिवर्ष रहती है। 6 से 9 वर्ष तक की आयु तक बालिकाओं की लम्बाई बालकों की अपेक्षा कम रहती है। 10वें में वर्ष में दोनों की लम्बाई लगभग समान हो जाती है तथा 12 वर्ष आने तक बालिकाएँ बालकों से अधिक लम्बी हो जाती हैं।

2. भार (Weight)- लम्बाई की भाँति भार में भी बालिकाएँ 9 वर्ष तक बालकों से कम रहती हैं तथा 10 से 12 वर्ष के दौरान बालकों से अधिक हो जाती हैं।

3. मस्तिष्क व सिर (Brain and Head) – इस अवस्था में सिर का विकास तो होता है किन्तु शरीर और सिर का अनुपात वयस्क के शरीर और सिर के अनुपात की समानता की ओर प्रवृत्त होने लगता है। शैशवावस्था के अन्त तक मस्तिष्क का विकास वयस्क मस्तिष्क का 90% होता है जो बाल्यावस्था में अन्त तक बढ़कर 95% हो जाता है। इस प्रकार बाल्यावस्था के दौरान मस्तिष्क का पर्याप्त विकास हो जाता है।

4. माँसपेशियाँ (Muscles)- बाल्यावस्था में माँसपेशियों का विकास मंद गति से होता है। 8 वर्ष की आयु में माँसपेशियों का भार शरीर के कुल भार का 27% होता है जो 12 वर्ष में बढ़कर 33% हो जाता है।

5. धड़ का विकास (Trunk Part of the Body)- बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं के धड़ का विकास महत्व रखता है। इस आयु में शरीर बलिष्ठ, पुष्ट तथा शक्तिशाली होने लगता है जिससे बालक अपने अंगों के संचालन पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं। बालकों के कन्धे चौड़े होने लगते हैं तथा कुल्हे पतले हो जाते हैं। बालिकाओं के कंधे पतले हो जाते हैं तथा कूल्हे चौड़े हो जाते हैं।

6. हाथ व पैर (Hands and Legs) – बाल्यावस्था में बालकों के पैर लम्बे व सीधे हो जाते हैं तथा बालिकाओं के पैर अंदर की ओर कुछ झुकाव ले लेते हैं। भुजाएँ भी लम्बी होने लगती हैं ।

7. दाँत (Teeth) – बाल्यावस्था के आरम्भ में दूध के दाँत गिरने लगते हैं और नए स्थायी दाँत आने प्रारम्भ होने लगते हैं। लगभग 12-13 वर्ष में सभी दाँत आ जाते हैं। सामान्यतया दाँतों की संख्या 27-28 होती है। बालिकाओं के दाँत बालकों की तुलना में कुछ जल्दी निकल आते हैं। दाँत चेहरे की आकृति में स्थायित्व लाते हैं और उसे सुन्दर बनाते हैं।

8. यौन अंगों का विकास (Development of Sex Organs) – बालकों तथा बालिकाओं दोनों के प्रजनन अंगों का विकास भी बाल्यावस्था में होने लगता है किन्तु बालकों में यह विकास धीमी गति से होता है। 11-12 वर्ष तक आते-आते बालिकाओं के यौन अंगों का विकास तीव्र गति पकड़ लेता है।

9. हृदय गति (Heart beating)- शैशवास्था की तुलना में बाल्यावस्था में हृदय के धड़कनों की गति कम हो जाती है। 18 वर्ष के बालकों का हृदय प्रति मिनट 85 बार धड़कता है।

शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors influencing physical development)

1. वंशानुक्रम (Heredity) – वंशानुक्रम या आनुवंशिकता शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाला सर्वप्रमुख कारक है। बेन्डिक्ट के अनुसार- ” आनुवंशिकता माता-पिता के जैविक गुणों का सन्तति हस्तान्तरण है। “

(“Heredity is the transmission of traits from parents to of spring.”-Ruth Bendict)

प्राणी की उत्पत्ति माता-पिता के बीज कोशों के संयोग से होती है। जैव वैज्ञानिकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने अपने विभिन्न अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि माता-पिता के शील-गुणों का उनकी संतान पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। स्वस्थ माता-पिता की संतान प्रायः स्वस्थ होती है और रोगी तथा निर्बल माता-पिता की संतान प्रायः निर्बल और रोगी होती है। वंशानुक्रम या आनुवंशिकता को शारीरिक विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक माना जाता है ।

फ्रांसिस गाल्टन के अनुसार – “मानव विकास में पोषण की अपेक्षा आनुवंशिकता सर्वाधिक सशक्त कारक है।” (“Heredity is a far more powerful agent in human development than nature.”-Francis Galton)

2. वातावरण (Environment) – मनोवैज्ञानिक रॉस के अनुसार – “कोई बाह्य शक्ति जो हमें प्रभावित करती हैं वातावरण है।’ (“Environment is any external force which influence us.”-Ross)

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी व्यक्ति का पर्यावरण वातावरण उन सब उत्तेजनाओं का योगफल है जो गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त प्राप्त होती है । वातावरण के मुख्यतः तीन आयाम होते हैं- भौगोलिक वातावरण, सामाजिक वातावरण तथा मानसिक वातावरण। अनुकूल वातावरण शारीरिक विकास पर अनुकूल प्रभाव डालता है जबकि प्रतिकूल वातावरण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में जलवायु, पर्याप्त प्रकाश, स्वच्छ मनोरम वातावरण बालक-बालिकाओं के शारीरिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।

3. पौष्टिक भोजन (Nutritive Diet) – बालक का स्वस्थ एवं स्वाभाविक विकास विशेष रूप से पौष्टिक तथा संतुलित आहार पर निर्भर होता । इस सम्बन्ध में सोरेन्सन ने कहा है- ‘पौष्टिक भोजन थकान का प्रबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र हैं।”

4. नियमित दिनचर्या (Regulated Routine)- बालक के शारीरिक विकास पर नियमित दिनचर्या का प्रभाव पड़ता है। उसके खाने पीने, पढ़ने, लिखने, सोने आदि के लिए समय निश्चित होना चाहिए। अतः स्वस्थ एवं स्वाभाविक विकास के लिए बालक में आरम्भ से ही नियमित जीवन बिताने की आदत डालनी चाहिए।

5. निद्रा व विश्राम (Step and Rest) – शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा और विश्राम आवश्यक है। अतः शिशु को अधिक-से-अधिक सोने देना चाहिए। तीन या चार वर्ष के शिशु के लिए 12 घंटे की निद्रा आवश्यक है । बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमशः 10 और 8 घंटे की निद्रा पर्याप्त होती है। बालक को इतना विश्राम मिलना आवश्यक है, जिससे कि उसकी क्रियाशीलता से उत्पन्न होने वाली थकान पूरी तरह से दूर हो जाए, क्योंकि थकान उसके विकास में बाधक सिद्ध होती है।

6. व्यायाम, खेलकूद व मनोरंजन (Exercise, Games and Enter- tainment)- सदैव काम करते रहना तथा खेलकूद न करना, मनोरंजन के अवसर न मिलना बालक के विकास को मन्द कर देता है। इस प्रकार शारीरिक विकास के लिए व्यायाम और खेलकूद अपरिहार्य होते हैं। इसके साथ मनोरंजन एवं मनोविनोद भी शारीरिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

7. प्रेम (Love)- बालक के शारीरिक विकास पर माता-पिता तथा अध्यापक के व्यवहार का भी काफी असर पड़ता है। यदि बालक को इनसे प्रेम और सहानुभूति नहीं मिलती है तो वह काफी दुःखी रहने लगता है जिससे उसके शरीर का संतुलित और स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है। उसका विकास कुंठित हो जाता है।

8. सुरक्षा (Security)- शिशु या बालक के सम्यक् विकास के लिए उसमें सुरक्षा की भावना अति आवश्यक है। इस भावना के अभाव वह भय का अनुभव करने लगता है। और आत्म-विश्वास खो बैठता है। ये दोनों बातें उसके विकास को अवरुद्ध कर देती हैं।

9. पारिवारिक परिवेश (Family Environment) – परिवार ममता का स्थल होता है। ममता, मैत्री, वात्सल्य, प्रफुल्लता, स्नेह, सहयोग, संरक्षण, सहानुभूति परिवार में ही सुलभ होते हैं। अतः उपयुक्त शारीरिक विकास के लिए उपयुक्त पारिवारिक परिवेश नितान्त आवश्यक हो जाता है।

10. अन्य कारक (Other Factor) – शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक भी हैं, जैसे-गर्भवती का स्वास्थ्य, रोग अथवा दुर्घटना के कारण उत्पन्न शारीरिक विकृतियाँ, जलवायु, सामाजिक परम्पराएँ, परिवार की आर्थिक स्थिति, परिवार का रहन-सहन, विद्यालय और शिक्षा आदि।

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shubham yadav

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