B.Ed./M.Ed.

अभिवृद्धि तथा विकास की परिभाषा तथा विकास के सिद्धांत

अभिवृद्धि तथा विकास की परिभाषा तथा विकास के सिद्धांत
अभिवृद्धि तथा विकास की परिभाषा तथा विकास के सिद्धांत

अभिवृद्धि तथा विकास की परिभाषा

मेरीडिथ के अनुसार-“कुछ लेखक अभिवृद्धि का प्रयोग केवल आकार की वृद्धि के अर्थ में करते हैं और विकास का विभेदीकरण (विशिष्टीकरण) के अर्थ में।” (“Some writers reserve the use of ‘growth’ to designate increments in size and of ‘development’ to mean differentiation.” -Meridith)

हरलॉक के अनुसार-“विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ तथा नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।” (“Development is not limited to growing larger. Instead, it consists of a progressive series of changes towards the goal of maturity. Development result new characteristics and new abilities on the part of the individual.”-Hurlock)

फ्रैंक के अनुसार- ” अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से होता है, जैसे लम्बाई और भार में वृद्धि, जबकि विकास से तात्पर्य प्राणी में होने वाले सम्पूर्ण परिवर्तनों से होता है।” (“Growth is regarded as multiplication of cells, as growth in height and weight, while development refers to the changes in organism as a whole.”-Frank)

गेसेल के अनुसार- “विकास, प्रत्यय से अधिक है। इसे देखा, जाँचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं- शरीर अंग विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक, में मापा जा सकता है……. इस सब में व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है।” “Development is more than a concept. It can observed, appraised and to some extent even measured, in three major manifestation: (a) anotomic, (b) physiologic, (c) behavioural……….. Behaviour signs, however, constitute a most comprehensive index of development status and development potentials.”-Gasell)

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभिवृद्धि और विकास में उपर्युक्त अंतर होते हुए भी सामान्यतः इन दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है। यहाँ भी दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जा रहा है-

विकास के सिद्धांत (Principles of development)

मनुष्य के विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाती है। गर्भावस्था से आरम्भ हुआ विकास जीवन पर्यन्त निरंतर चलता रहता है। मनुष्य के अंदर बहुत से परिवर्तन अवस्था परिवर्तन के साथ होते रहते हैं। ये परिवर्तन कुछ निश्चित सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। व्यक्ति के विकास के अनेक मनोवैज्ञानिक सिद्धांत हैं। मुख्य सिद्धांतों का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

1. निरंतरता का सिद्धांत (Principle of Continuity) – मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से मृत्यु तक निरंतर चलती रहती है तथा उसमें कोई भी विकास आकस्मिक ढंग से नहीं होता, धीरे-धीरे होता है। स्किनर के अनुसार विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धांत केवल इस तथ्य पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता। उदाहरणार्थ, मनुष्य की शारीरिक अभिवृद्धि आयु बढ़ने के साथ-साथ धीरे-धीरे बढ़ती है, एकदम नहीं और परिपक्वता प्राप्त करने बाद रुक जाती है तथा जहाँ तक मनोशारीरिक क्रिया-अनुक्रियाओं की बात है, उनमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है। इन परिवर्तनों में प्रगतिशील ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों को विकास कहा जाता है और यह भी एकदम नहीं होता, जैसे-जैसे नए अनुभव होते हैं, वैसे-वैसे नई प्रतिक्रियाएँ होने लगती हैं, उनमें विकास होता रहता है।

2. व्यक्तिगतता का सिद्धांत (Principle of Individuality)- यद्यपि मानव विकास का एक समान प्रतिमान होता है किन्तु वंशानुक्रम एवं वातावरण की भिन्नता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विकास में कुछ भिन्नता भी होती है। जिस प्रकार कोई भी दो व्यक्ति पूर्णरूपेण एक समान नहीं हो सकते हैं उसी तरह दो अलग-अलग व्यक्तियों का विकास भी पूर्णरूपेण एक तरह नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बालकों और बालिकाओं के विकास में भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ- बालिकाओं का शारीरिक विकास बालकों के शारीरिक विकास से बहुत अधिक भिन्न होता है।

3. परिमार्जिता का सिद्धांत (Principle of Modifiyability) – परिमार्जिता के सिद्धांत के अनुसार बालक के विकास की दिशा और गति का परिमार्जन किया जा सकता है। इस सिद्धांत का शैक्षिक निहितार्थ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा का उद्देश्य है-बालक का सन्तुलित और सर्वांगीण विकास करना। शिक्षा और प्रशिक्षण के द्वारा बालक के व्यवहार को वांछित दिशा में अनुप्रेरित किया जा सकता है। बालक के विकास की दिशा और गति को परिमार्जित कर उसके व्यक्तित्व के व्यवस्थापन को बिगड़ने से बचाया जा सकता है।

4. विकास क्रम का सिद्धांत (Principle of Development Sequence)- यद्यपि विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त निरंतर चलती रहती है परंतु इस विकास का एक निश्चित क्रम होता है। सबसे पहले बालक का गामक और भाषा सम्बन्धी विकास होता है। बालक पहले क्रंदन करता है, फिर निरर्थक शब्दों का उच्चारण करता है, अन्त में सार्थक शब्दों और वाक्यों पर पहुँचता है। इसी प्रकार गामक विकास में बच्चा पहले-पहले हाथ-पैर पटकता है, फिर पलटता है, फिर बैठता है, उसके बाद खड़ा होता व चलता है।

5. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत (Principle of General to Specific Responses) – मनोवैज्ञानिकों ने यह भी स्पष्ट किया है कि मनुष्य का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर होता है। हरलॉक के अनुसार – “विकास की सब अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रियाएँ विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती है।” उदाहरणार्थ, बालक पहले हर वस्तु मुँह में रखता है, उसके बाद अनुभव द्वारा केवल खाद्य पदार्थों को ही मुँह में रखता है। उसके बाद एक निश्चित समय में निश्चित ढंग से खाना सीख लेता है।

6. केन्द्र से निकट दूर का सिद्धांत (Proximo Distal Principle) – इस सिद्धांत के अनुसार विकास का केन्द्र बिन्दु स्नायुमंडल होता है। विकास की गति केन्द्र से दूरवर्ती भागों की ओर चलती है। पहले स्नायुमंडल का विकास होता है। फिर स्नायुमंडल के निकटवर्ती भाग हृदय, छाती आदि का विकास होता है, अन्त में दूरवर्ती भाग पर एवं उनकी उंगलियों पर नियंत्रण होता है।

7. मस्तकाधोमुखी का सिद्धांत (Celialocandal Principle)- इस सिद्धांत के अनुसार विकास की क्रिया सिर से आरम्भ होकर पैरों की ओर जाती है अर्थात् विकास ऊपर से नीचे की ओर चलता है। गर्भ में पहले सिर विकसित होता है। गर्भ के बाद बालक सर्वप्रथम सिर को उठाता है, फिर घड़ और बाद में दूसरे अंगों जैसे पैरों का हिलाना-डुलाना सीखता है। बैठने के पश्चात् चलना, दौड़ता इत्यादि सीखता है।

8. एकीकरण का सिद्धांत (Principle of Integration)- विकास की प्रक्रिया एकीकरण के सिद्धांत का पालन करती है। इसके अनुसार बालक अपने सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बदलते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं और चेष्टाओं को इकट्ठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। उदाहरण के लिए, एक बालक पहले पूरे हाथ को, फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

9. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धांत (Principle of Interrelation) – मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक सभी प्रकार के विकास में पारस्परिक सम्बन्ध होता है, ये एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और एक के साथ अन्य सबका विकास होता है । उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे व्यक्ति के शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक अंगों की वृद्धि होती है, उनका आकार व भार बढ़ता है जैसे-जैसे उसके शरीर के अंगों की कार्यक्षमता का विकास होता है तथा जैसे-जैसे उसके शरीर के अंगों, विशेषकर ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की कार्यक्षमता बढ़ती है वैसे-वैसे उसका मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक विकास भी होता है। हाँ, यह आवश्यक है इसके लिए उचित वातावरण और शिक्षा उपलब्ध हो।

10. समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of Uniform Pattern) – समान प्रजाति के विकास के प्रतिमानों में समानता पायी जाती है। प्रत्येक प्रजाति, चाहे वह पशु प्रजाति हो या मानव प्रजाति, अपनी प्रजाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है। संसार के समस्त भागों में मानव शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है।

11. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धांत (Principle of Interaction of Heridity and Environment)- इस सिद्धांत के अनुसार बालक के विकास में वातावरण और आनुवांशिकता दोनों का सापेक्षिक महत्व होता है, विकास दोनों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है। जैसे- किसी बीज में अन्तर्निहित क्षमताओं को प्रस्फुटित होने के लिए मिट्टी, खाद, पानी, हवा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बालक में आनुवंशिकता से जो क्षमताएँ उपस्थित होती हैं उन्हें अच्छे वातावरण द्वारा ही पूर्णरूप से विकसित किया जा सकता है अन्यथा वह भेड़िए द्वारा पालित बच्चे की तरह अविकसित रह जाएगा। सन् 1951 में भेड़िए द्वारा पालित एक बच्चा मिला, जिसे लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में रखा गया, इसका नाम रामू रखा गया, इसका विकास भेड़ियों की तरह था। इस प्रकार व्यक्ति के विकास के लिए वातावरण तथा आनुवंशिकता दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने आयु के आधार पर बाल्यावस्था को निम्नवत् चिह्नित किया है-

हरलॉक के अनुसार       –      2 से 12 वर्ष तक

रॉस के अनुसार

प्रारम्भिक बाल्यकाल      –      3 से 6 वर्ष तक

उत्तर बाल्यकाल           –        6 से 12 वर्ष तक

कालेसनिक के अनुसार

पूर्व बाल्यावस्था         –  212 वर्ष से 5 वर्ष तक

मध्य बाल्यावस्था        –  5 वर्ष से 9 वर्ष तक

उत्तर बाल्यावस्था        –  9 वर्ष से 12 वर्ष तक

सैले के अनुसार         –   5 से 12 वर्ष तक

डॉ. अरनेस्ट जोन के अनुसार  –   5 से 12 वर्ष तक

कोल के अनुसार-

प्रारम्भिक बाल्यावस्था    – 2 वर्ष से 5 वर्ष तक

मध्य बाल्यावस्था                       –       बालक : 6 वर्ष से 12 वर्ष तक

                                                       बालिका : 6 वर्ष से 10 वर्ष तक

पूर्व किशोरावस्था / उत्तर बाल्यावस्था   –  बालक : 13 वर्ष से 14 वर्ष तक

                                                        बालिका : 11 वर्ष से 12 वर्ष तक

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shubham yadav

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