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व्यक्तियों और समूहों में पहचान निर्माण के कारक
पहचान निर्माण पूरी जिन्दगी चलती रहती है चाहे वह बाल्यावस्था हो या किशोरावस्था। विषयगत निर्धारकों में पहचान निर्माण में शर्म की बहुत बड़ी भूमिका है। यह वह कष्टदायक संवेगात्मक अनुभव है जिससे आत्म विकास रूकता है। शर्म को कारण वह अपने आपको दूसरों के सामने आने से रोकता है। यह अपने आपको शक्तिहीन समझता है। बच्चों में शर्म के गुण के विकसित होने का मुख्य कारण परिवार का वातावरण है। अभी पहचान बनाने और उद्देश्यों को पूरा करने में हमें बच्चों के अन्दर शर्म की भावना को दूर करना होगा।
हम यह सोचते हैं कि शर्म के अनुभव की भावना किसी भी व्यक्ति के आत्म निर्माण में और सामाजिक स्वीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इससे वह अपनी आत्म छवि तथा अपना वातावरण से सम्बन्ध बनाता है। शर्म को नियमित करने की योग्यता ही पहचान निर्भर का मुख्य निर्धारक है।
बचपन और किशोरावस्था के अनुभव हमारे जीवन में विश्वासों को आकार देते हैं। ये क्रिया और उपलब्धि में अन्तर करने के लिए हमारे प्रयासों को नया मोड़ देते हैं। व्यक्ति और समूह का द्वन्द्व बहुत पुराना। कुछ विचारक शिक्षा में व्यक्ति को अधिक महत्व देते हैं तो कुछ समाज को। व्यक्ति को अधिक महत्व देने वाले कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित जैविक इकाई है और इसके दैहिक विकास की गति प्रत्येक के लिए अद्वितीय है। मनोविज्ञान बताता है कि व्यक्ति अपने योग्यताओं और क्षमताओं में अद्वितीय होता है और इसके समान दूसरा कोई नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति की वैयक्तिक भिन्नता उसकी पहचान निर्माण में महत्वपूर्ण है। व्यक्ति की योग्यता में भिन्नता के साथ-साथ अन्तर्निहित शक्तियों में भी भिन्नता होती है।
समूह को महत्व वाले कहते हैं व्यक्ति अकेले में अपना विकास भी नहीं कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति एक परिवार, पड़ोस, मोहल्ले, गाँव या नगर का सदस्य होता है। व्यावसायिक आधार पर हममें से अनेक व्यक्ति अध्यापक डॉक्टर, इंजीनियर, कलाकार, मजदूर, क्लर्क तथा व्यापारी समूह के सदस्य है। उम्र के आधार पर हम बच्चों युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध समूह के सदस्य हो सकता है। स्त्री और पुरुषों को अलग समूह होता है। इसी प्रकार एक विशेष प्रकार की रूचि रखने वाले सभी व्यक्ति एक-एक समूहों का निर्माण करते हैं।
सामान्यतः व्यक्तियों के संग्रह को लोग समूह समझ लेते हैं परन्तु समूह का निर्माण केवल उन्हीं व्यक्तियों से होता है जो अपने विभिन्न स्वार्थों अथवा आवश्यकताओं के कारण स्वयं को एक दूसरे से सम्बन्धित समझते हैं।
मैकाइवर एवं पेज (Maciever and Page) के अनुसार, “समूह से मेरा तात्पर्य मनुष्यों के उस सकंलन से है जो एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।”
स्माल (Small) के अनुसार, “समूह का अर्थ कम या अधिक ऐसे व्यक्तियों से है जिनके बीच इस प्रकार के सम्बन्ध विद्यमान हों कि उन्हें एक सम्बद्ध इकाई के रूप में देखा जाने लगे।”
अतः हम कह सकते हैं कि समूह में दो या दो से अधिक व्यक्तियों का किसी मान्यता या उद्देश्यों के आधार पर आपस में एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करना है समूह में पहचान स्थापित करने वाले तत्त्वों को जानने के लिए हमें समूह के तत्व को समझना आवश्यक है जो निम्नलिखित हैं-
1. दो या दो से अधिक व्यक्तियों का संग्रह- समूह वह संग्रह है जिसकी सदस्य संख्या कम से कम दो या दो से अधिक हो। एक व्यक्ति अकेले समूह का निर्माण नहीं कर सकता है।
2. वैयक्तिक सम्पर्क आवश्यक नहीं- समूह के निर्माण में यह आवश्यक नहीं है कि सभी सदस्य एक दूसरे की व्यक्तिगत रूप से जानते पहचानते हों। छोटे समूहों जैसे मित्र मण्डली, परिवार, पड़ोस में तो व्यक्तिगत सम्पर्क सम्भव है बड़े समूहों में नहीं।
3. समान स्वार्थ – एक समूह के सभी सदस्य एक समान हित, स्वार्थ या उद्देश्य द्वारा आपस में बँधे होते हैं।
4. समूह निर्माण का आधार निश्चित- प्रत्येक समूह के निर्माण का कोई न कोई आधार होता है जैसे परिवार समूह तथा जाति समूह का आधार रक्त सम्बन्ध है।
5. समूह निर्माण का आधार निश्चित- व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है अतः वह किसी किसी समूह का सदस्य अवश्य होता है। वह किस समूह को चुनेगा वह उसकी रुचि एवं न आवश्यकता पर निर्भर करता है।
6. अन्तःक्रिया का एक निश्चित स्वरूप- प्रत्येक समूह के सदस्यों के बीच अन्तःक्रियात्मक सम्बन्ध पाया जाता है जैसे-परिवार सदस्यों के बीच एक अन्त: क्रियात्मक सम्बन्ध होता है तो उसे भीड़ से अलग करता है।
7. समूह की एक संरचना- फिचर ने बताया कि समान समूह की एक निश्चित संरचना होती है जो समूह के सभी सदस्यों की स्थिति निर्धारित करती है।
8. आदर्श नियमों की प्रधानता प्रत्येक समूह अपने सदस्यों के व्यवहारों को नियंत्रित करने के लिए किसी न किसी नियम को अपनाता है। यह आदर्श नियमों के अनुरूप होते हैं जिससे सदस्यों के व्यवहारों में एकरूपता रहती है।
9. अस्तित्व के कुछ अवधि – समूह के अस्तित्व की एक अवधि होती है जिसको मापा जा सकता है। यह अवधि कई वर्षों की भी हो सकती है और कुछ मिनटों की भी।
10. सामाजिक लक्ष्य- प्रत्येक समूह का एक मान्यता प्राप्त सामाजिक लक्ष्य होती है। यह लक्ष्य की समानता ही एक समूह के सदस्यों की आपस में बाँधे रखती है। व्यक्ति और समूहों में पहचान करने में दोनों की ही भूमिका है।
पहचान स्थापित करने में व्यक्ति और समूह की आपस में अन्तःक्रिया होनी बहुत आवश्यक है समूह की पहचान भी प्रत्येक व्यक्ति की पहचान पर निर्भर करेगी।
एक व्यक्ति की अपनी पहचान की उसे समूह की या राष्ट्र की पहचान में बदलती है। एक व्यक्ति की पहचान से ही पूरे देश का प्रतिनिधित्व होता है।
सांस्कृतिक पहचान – एक समूह या संस्कृति के लिए पहचान का अनुभव है । एक व्यक्ति एक समूह या संस्कृति से भिन्नता रखता है। सांस्कृतिक पहचान एक व्यक्ति की समूह के बारे में पहचान है।
नैतिक पहचान – यह भी एक व्यक्ति विशेष को दिखाती है यह सामान्य जनता द्वारा समान रूप से स्वीकार भी की जाती है। यह प्रत्येक समूह राज्य देश की अलग-अलग होती है।
धार्मिक पहचान – विश्वास और अभ्यासों का समूह है जो एक व्यक्ति के विश्वास, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक परम्पराओं पर आधारित होता है। यह भी प्रत्येक जाति, धर्म, देश की अलग-अलग होती है।
राष्ट्रीय पहचान- एक दार्शनिक प्रत्यय है जहाँ पूरा समूह एक राष्ट्र में विभक्त होता है। वह समूह या व्यक्ति ही अपने राष्ट्र की पहचान सिद्ध करता है।
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