समाजशास्‍त्र / Sociology

सांस्कृतिक विघटन क्या है ? | सांस्कृतिक विघटन का अर्थ

सांस्कृतिक विघटन क्या है
सांस्कृतिक विघटन क्या है

सांस्कृतिक विघटन क्या है ? स्पष्ट कीजिए।

सांस्कृतिक विघटन- संस्कृति सामान्य रूप से मानव विवेक की चिरस्थायी परम्परा मानी जा सकती हैं, जो उसके जीवन के आचार-विचार के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। आचार-विचार में समन्वय भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व है, जिसमें पारस्परिक संव्यवहार और सद्व्यवहार है। इनमें सहनशक्ति, सहयोग जैसे नैतिक मूल्यों का आविर्भाव होता है। भारतीय संस्कृति की तुलना उस रत्नहार से की जाती है, जिसके विविध रत्न समन्वय के एक सूत्र में पिरोये गये हो। भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक तत्वों की आधारशिला प्राचीन भारतीय सामूहिक चेतना है, जिसके मूल में शाश्वत नैतिक मूल्य आते हैं, जिनका मूर्तरूप धर्म की अवधारणा है, जो समाज के निर्माण का आधार भी है। भारतीय संस्कृति तथा उसकी समन्यवयवादी प्रवृत्ति को यहाँ की कला सम्पदा में स्पष्ट देखा जा सकता है।

18वीं सदी के अन्तिम चरण तक भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीव पड़ चुकी थी। अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता की स्थापना के साथ पाश्चात्य संस्कृति और उसकी विचारधारा भारतीय जन-जीवन को प्रभावित करने लगी थी। भारतीय संस्कृति पतन के गर्त में पड़ी सिसक रही थी और उसकी नव सृजन की शक्ति प्रायः लुप्त हो चुकी थी। भारत के लिए यह एक चिंताजनक सांस्कृतिक संकट का समय था।

संस्कृति का संकट हमारे लिए नया नहीं है, आज यह संकट अपनी चिंता के साथ हमारे समक्ष मौजूद है। मनुष्य की जरूरतों को गोली व जेल की यातना में बदलने वाली शक्तियाँ आर्थिक संकट के साथ सांस्कृतिक संकट भी पैदा करती हैं। मूल चिन्ता और जरूरत से भटकने वाली सोच तथा कार्य प्रणाली भी सांस्कृतिक संकट पैदा करती है। मूल्य, जरूरत और चिन्ता से भटकने वाली आदि छीनना भी सांस्कृतिक संकट का एक रूप है। यह भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती, वह एक जीवित प्रत्यय भी होती है, जिससे उस मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन धड़कता और बोलता है। जिसके बिना हमारा जीवन उलट-पलट जाता है।

हमारी कृषि व्यवस्था और कृषि सम्बन्धों से जुड़े संस्कार गीतों में जिस दिन सिनेमा की फूहड़ता प्रवेश कर गयी, उसी दिन कृषि संस्कृतियाँ लोक संस्कृति नष्ट होने के मुहाने पर खड़ी हो गयी और अपसंस्कृति जन्म लेने लगी। सरकार की संस्कृति रक्षा की चिन्ता ने तमाम संस्कृति की संस्थाओं को जन्म दिया। संस्कृति के संरक्षण व संवर्द्धन के नाम पर ये संस्थाएँ व्यापार का केन्द्र बन गयी हैं। यही संस्कृति दिखाने की चीज बन गयी है, पेश करने की चतुराई से उसे शहराती बनाकर उसका व्यापार किया जाने लगा है। इस संस्कृति के विशेषज्ञ पैदा किये जाने लगे हैं। पूरी एक नकली संस्कृति लोक कलाओं के नाम पर पैदा हो गयी है। इसने वर्ग भेद को बढ़ावा दिया है। ऐसी संस्कृति ने प्रकारान्तर से साम्राज्यवादी शक्तियों को हमारी संस्कृति में हस्तक्षेप करने का अवसर दिया है, इस रास्ते हमारी भारतीय संस्कृति का विघटन हुआ। यह संस्कृति सम्पन्न लोगों के ड्राईंग रूम का शगल बन गई है। आदिवासी स्त्री की अर्धनग्न पेंटिंग लगाकर हम संस्कृति पर गर्व करने लगे हैं या गरीबी, फटेहाली व पिछड़ेपन को सजाना संस्कृति मानने लगे हैं।

भारतीय संस्कृति नष्ट हुई जा रही है, यह चिन्ता अमेरिका और जापान को सताने लगी है। अनुदान और संस्थान द्वारा और परियोजनाओं द्वारा उन्होंने संस्कृति का मनचाहा मोड़ एक सांस्कृतिक प्रदूषण पैदा किया है, नशे की संस्कृति, कैबरे व डिस्को की संस्कृति, हिप्पी संस्कृति जैसी बीमारियाँ इस प्रदूषण का परिणाम हैं। वैश्वीकरण से तात्पर्य विश्व को एक सूत्र में बाँधने से है, परन्तु हम पश्चिम अंधानुकरण में इस तरह ग्रसित हो गये हैं कि अपनी सामाजिक सांस्कृतिक परिपाटीकरण को त्यागकर वैश्वीकरण के नाम पर पश्चिमी अंधानुकरण में अपनी नैतिकता भुला चुके हैं, यह सौगात हमें उनसे मिली है, जिनकी कोई संस्कृति भी नहीं है।

माँ-बाप को पश्चिम की तर्ज पर संयुक्त परिवार का विघटन होता जा रहा है, श्रवण कुमार जैसे बेटा की धरत मे, जिन्होंने कांवर पर माता-पिता को बैठाकर तीर्थाटन कराया, दूसरी तरफ आज विवाहोपरान्त वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देते हैं। हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, अनेकता में एकता जैसी बातें करते हैं। आज यह अनेकता एक-दूसरे को लील रही है। भाषा, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र इस अनेकता के सबसे बड़े प्रत्यय हैं। भाषा भी अब साम्प्रदायिक हो गयी है। सामान्य बोलचाल की भाषा हम ‘आप’ जैसे सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करना भी भूलते जा रहे हैं। अंग्रेजी में शब्दों का प्रयोग करन फैशन बनता जा रहा है। परम्परागत जीवन शैली में परिवर्तन के फलस्वरूप घर में व्यस्त पति-पत्नी बच्चा है।

मुक्त विश्वविद्यालय कागजी सिद्ध हो रहा है, अंग्रेजी कोढ़, खाज की तरह चिपकी है। आज राष्ट्रीय संकट समाज की मर्यादा और मनुष्य की अस्मिता के खतरे की बात फिर दोहराई जाने लगी है, परन्त प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय संकट क्यों गहरा हुआ है। समाज की मर्यादाएँ कब व कैसे टूटी, मनुष्य की अस्मिता क्यों व कैसे छटपटायी है। ये प्रश्न अचानक ही उत्पन्न नहीं हुए हैं। वस्तुतः परिस्थितिय स्वाधीनता के बाद से ही निर्मित होने लगी थी।

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shubham yadav

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