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समावेशन की अवधारणा (Concept of Inclusion)
समावेशन वह प्रक्रिया है जो प्रतिभाशाली बालकों को प्रत्येक दशा में सामान्य शिक्षा-कक्ष में उनकी शिक्षा के लिए लाती है, समावेशन समन्वित एवं पृथक्करण के विपरीत है। पृथक्करण वह प्रक्रिया है जिसमें समाज का विशिष्ट समूह अलग से पहचाना जाता है तथा धीरे-धीरे सामाजिक तथा व्यक्तिगत दूरी बढ़ती जाती है। अलगाववाद के विचार ऐसी परिस्थिति में पैदा होते हैं और वे अपने आपको समाज से अलग पाते हैं। समन्वीकरण ऐसी प्रक्रिया है जिसमें समाज का ‘कुछ भाग जो शारीरिक रूप से बाधित अथवा अपंग है, उनको भी समाज से मिलाती हैं।
सर्वप्रथम विकलांग बालकों को पृथक करके शिक्षा प्रदान करने का विचार आया परन्तु इससे इन बालकों में वंचन एवं हीन भावना ने जन्म ले लिया। तत्पश्चात् इनको एकीकृत रूप में शिक्षित किया गया परन्तु इससे समस्या का समाधान न होने पर सामान्य एवं विशिष्ट बालकों को साथ-साथ कुछ विशिष्ट सुविधाओं सहित एक ही कक्षा में पढ़ाने तथा समावेशन को बढ़ाने का विचार प्रस्तुत किया गया। समावेशन के पश्चात् इनके सशक्तीकरण पर कार्य किया जा रहा है।
जुल्का (Julka 2001) ने समावेशन को चित्रात्मक रूप से इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
समावेशी शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमता वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते हैं। समावेशी शिक्षा दर्शन के अन्तर्गत प्रत्येक बालक अद्वितीय है और उसे अपने सहपाठियों की विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता हो सकती है। बालक के पीछे रह जाने पर उनको दोषी नहीं ठहराया जा सकता है बल्कि उन्हें कक्षा में भली प्रकार समाहित न कर पाने का जिम्मेदार अध्यापक को स्वयं समझना चाहिए। जिस प्रकार हमारा संविधान किसी भी आधार पर किए जाने वाले भेद-भाव का निषेध करता है, ठीक उसी प्रकार समावेशी शिक्षा विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालक को, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उन बालकों को भिन्न देखे जाने की बजाय स्वतंत्र अधिगमकर्ता के रूप में देखती है।
समावेशी शिक्षा में प्रतिभाशाली बालक तथा सामान्य बालक एक साथ कक्षाओं में पूर्ण समय या अर्द्धकालिक समय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। इस प्रकार समायोजन, सामाजिक या शैक्षिक अथवा दोनों को सम्मिलित करता है।
समावेशन की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Inclusion)
स्वतन्त्रता के बाद से भारत में हुए शैक्षिक व्यवस्था का विकास इस बात की पुष्टि करता है। कि भारतीय शिक्षा ने विभिन्न क्षेत्रीय विविधताओं और भिन्न सीमाओं के अतिरिक्त समावेशी शिक्षा के लिए उपकरण के रूप में कार्य किया है। समावेशी शिक्षा से हमारा तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें सभी शिक्षार्थियों को बिना किसी भेद-भाव के सीखने-सिखाने के समान अवसर मिलें परन्तु आज भी समावेशी शिक्षा उस लक्ष्य पर नहीं पहुँची है जहाँ इसे पहुँचना चाहिए। समावेशी शिक्षा की परिकल्पना इस संकल्पना पर आधारित हैं कि सभी बालकों की विद्यालयी शिक्षा में समावेशन व उसकी प्रक्रियाओं की व्यापक समझ की इस प्रकार आवश्यकता है कि उन्हें क्षेत्रीय, सांस्कृतिक परिवेश और विस्तृत सामाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक प्रक्रियाओं दोनों में ही संदर्भित करके समझा जाए क्योंकि भारतीय संविधान में समता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय एवं व्यक्ति की गरिमा को प्राप्त मूल्यों के रूप में निरूपित जाता है जिसका संकेत समावेशी शिक्षा की ओर ही है।
हमारा संविधान जाति, वर्ग, धर्म, आय एवं लैंगिक आधार पर किसी भी प्रकार का विभेद का निषेध करता है और इस प्रकार एक समावेशी समाज की स्थापना का आदर्श प्रस्तुत करता है जिसके परिप्रेक्ष्य में बच्चों के सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, वर्गीय लैंगिक शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से भिन्न देखे जाने के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र अधिगमकर्ता के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है जिससे लोकतान्त्रिक स्कूल में बच्चे के समुचित समावेशन हेतु समावेशी शिक्षा के वातावरण का सृजन किया जा सके। समावेशी शिक्षा की आवश्यकता निम्न कारणों से है-
(1) समावेशी शिक्षा अन्य छात्रों को अपनी उम्र के छात्रों के साथ कक्षा वातावरण में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों या काम करने हेतु अभिप्रेरित करती है।
(2) समावेशी शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित अपेक्षाओं के साथ उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।
(3) समावेशी शिक्षा बालकों को शिक्षा के क्षेत्र में व उनके स्थानीय स्कूलों की गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की पक्षधर है।
(4) समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की स्कूल संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए भी अवसर प्रदान करती है।
(5) समावेशी शिक्षा बच्चों में अपनी स्वयं की व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के साथ प्रत्येक बालक में एक व्यापक विविधता के साथ मित्रता का विकास करने की क्षमता उत्पन्न करती है। इसी प्रकार समावेशी शिक्षा समाज के सभी बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने की बात का समर्थन करती है।
(6) समावेशित शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ, उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।
(7) प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है।
(8) समावेशी शिक्षा बालक को अन्य बालकों के समान कक्षा गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है।
(9) समावेशी शिक्षा बालकों की शिक्षण गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने के लिए वकालत करती है।
समावेशन सही मायनों में शिक्षा का अधिकार जैसे शब्दों का रूपान्तरित रूप है जिसके कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकता वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना।
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