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स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार,  जीवन दर्शन, शिक्षा-दर्शन, पाठ्यचर्या, स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा को देन

स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार
स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार

अनुक्रम (Contents)

स्वामी विवेकानन्द का  जीवन परिचय (SWAMI VIVEKANAND)

जीवन परिचय (Life Sketch)- भारत की अमर विभूति स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में हुआ था। इनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। इनके पिता का नाम श्री विश्वनाथ दत्त था। वे कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील थे। इनके पिता अत्यन्त बुद्धिमान, ज्ञानी, उदार मन वाले व्यक्ति थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी भी अत्यंत बुद्धिमती, गुणवती एवं परोपकारी महिला थी। स्वामी जी पर अपनी माँ के व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी। ये बाल्यावस्था से ही पूजा-पाठ में रुचि लेते हुए ध्यानमग्न हो जाते थे।

पाँच वर्ष की अवस्था में स्वामी जी को पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया किन्तु नरेन्द्र की पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने में कोई रुचि नहीं थी। मैट्रिक पास करने के पश्चात् इन्होंने कालेज में प्रवेश लिया। इनके प्रखर प्रतिभा सुन्दर शरीर और बातचीत के सुन्दर तरीके ने महाविद्यालय में सभी को प्रभावित किया और उन्हें अति लोकप्रिय बना दिया।

चूँकि धर्म एवं सेवा कार्य में इनकी जन्म से ही रुचि थी। अतः उन्होंने सेवा का व्रत लेकर सन्यास ले लिया। सन् 1893 ई० में इन्होनें विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया और अमेरिका गए। देश की गरीबी एवं दुःख को इन्होंने भारत की अशिक्षा का प्रमुख कारण बताया तथा भारतीय शिक्षा का स्वरूप कैसा हो इस पर अपने विचार भी दिए। शिक्षा-सम्बन्धी इनके ये विचार शिक्षा के क्षेत्र में हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। 4 जुलाई सन् 1902 में इस महामानव ने संसार से विदा ली और स्वर्ग सिधार गए।

स्वामी विवेकानन्द की रचनाएँ (Compositions of Swami Vivekanand)

स्वामी जी ने भारतीय धर्म, दर्शन, वेदान्त एवं संयोग आदि से सम्बन्धित कई विषयों पर व्याख्यान दिए और अनेक लेख लेखबद्ध किए तथा पुस्तकों का रूप भी दिया। इन पुस्तकों में प्रमुख हैं- हिन्दू धर्म, चिन्तनीय बातें, स्वाधीन भारत, व्यावहारिक जीवन में विवेकानन्द जी से वार्तालाप, वेदान्त, विवेकानन्द जी के उद्गार देववाणी, राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, धर्म आदि।

स्वामी विवेकानन्द का  जीवन दर्शन (Philosophy of Life)

स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान एवं अद्वैत वेदान्त के पोषक थे। वे वेदान्त को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिए प्रसिद्ध हैं। स्वामी जी शिक्षा के द्वारा मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवनों के लिए तैयार करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि जब तक मनुष्य भौतिक दृष्टि से सम्पन्न एवं सुखी नहीं होता, तब तक ज्ञान, कर्म, भक्ति, योग आदि सब उसके लिए कल्पना की वस्तु हैं। लौकिक दृष्टि से उन्होंने उद्बोधित किया, “हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिसके द्वारा चरित्र का गठन हो, मन का बल बढे, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य स्वावलम्बी बने।” इस प्रकार की शिक्षा को वह मनुष्य के निर्माण की शिक्षा (Man-Making Education) कहते थे। उनके अनुसार-

(1) विश्व परमात्मा का स्वरूप है।

(2) मनुष्य को ईश्वर की अद्भुत रचना माना है।

(3) ज्ञान, भोग, कर्म एवं भक्ति को मुक्ति का मार्ग बताया है।

(4) शरीर के अस्तित्व को नकार कर आत्मस्वरूप को महत्व दिया।

उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिक एवं भौतिक रूप से एक समान माना है। स्वामी विवेकानन्द वेदान्त दर्शन के समर्थक थे तथा इन्होंने शाश्वत और सर्वव्यापी चेतन सत्ता को विश्व में समाहित माना है।

स्वामी विवेकानन्द की नस नस में भारतीयता तथा आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। अतः उनके शिक्षा दर्शन का आधार भी भारतीय वेदान्त तथा उपनिषद् ही रहे। वे कहते थे कि प्रत्येक प्राणी में आत्मा विराजमान है। इस आत्मा को पहचानना ही धर्म है। स्वामी जी का अटल विश्वास था कि सभी प्रकार का सामान्य तथा आध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य के मन में है। अधिकतर इसकी खोज नहीं हो पाता है। यह ढका ही रह जाता है लेकिन जब इस पर पड़ा हुआ आवरण उतार दिया जाता है, तो हम कहने लगते हैं कि हम सीख रहे हैं। संक्षेप में, स्वामी विवेकानन्द के अनुसार कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को सीखता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप स्वयं ही सीखता है। बाहरी शिक्षक तो केवल सुझाव ही प्रस्तुत करता है, जिससे भीतरी शिक्षक को समझने और सीखने की प्रेरणा मिल जाती है। इसी दृष्टि से स्वामी जी ने अपने समय की शिक्षा को निषेधात्मक बताया तथा लोगों से कहा “आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं, जिसने कुछ परीक्षाएँ पास कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, किन्तु वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जन साधारण को जीवन-संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती, जो शिक्षा चरित्र-निर्माण नहीं कर सकती, जो शिक्षा समाज सेवा की भावना को विकसित नही कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ है।”

स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार (Educational Philososphy)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का अर्थ केवल उन सूचनाओं से नहीं है, जो बालकों के मस्तिष्क में बलपूर्वक ठूंसी जाती हैं। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “यदि शिक्षा का अर्थ सूचनाओं से होता तो पुस्तकालय संसार के सर्वश्रेष्ठ संत होते तथा विश्वकोष (Encyclopaedias) ऋषि बन जाते।”

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है।”

शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Theories of Educational Philosophy)

स्वामी विवेकानन्द की गणना संसार के महान शिक्षाशास्त्रियों में की जाती है। उनके शिक्षा-दर्शन सम्बन्धी आधारभूत सिद्धान्तों पर हम निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकाश डाल रहे हैं-

(1) पुस्तकों का अध्ययन ही शिक्षा नहीं है।

(2) ज्ञान व्यक्ति के मन में विद्यमान है। वह स्वयं ही सीखता है।

(3) चित्त की एकाग्रता की शक्ति ज्ञान प्राप्त करने की कुंजी है। इस शक्ति को विकसित करने के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है।

(4) मन, वचन तथा कर्म की शुद्धि आत्म-नियन्त्रण है।

(5) शिक्षा बालक में आत्मिक निष्ठा तथा श्रद्धा विकसित करे एवं उसमें आत्म त्याग की प्रवृत्ति विकसित करके पूर्णता की अभिव्यक्ति करे।

(6) शिक्षा बालक का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास करे।

(7) शिक्षा से बालक के चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े तथा बुद्धि विकसित जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए।

(8) धार्मिक शिक्षा को पुस्तकों की अपेक्षा व्यवहार, आचरण तथा संस्कारों के द्वारा दिया जाए।

(9) बालक तथा बालिका दोनों को समान शिक्षा मिलनी चाहिए।

(10) स्त्रियों को विशेष रूप से धार्मिक शिक्षा दी जाए।

(11) जन साधारण में शिक्षा का प्रचार किया जाए।

(12) तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए, जिससे औद्योगिक उन्नति हो तथा देश की आर्थिक दशा सुधर जाए।

(13) शिक्षक एक मित्र, दार्शनिक तथा पथ-प्रदर्शक है। उसे सहानुभूति ढंग से बालक के मस्तिष्क में स्थित ज्ञान का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए।

(14) शिक्षक तथा छात्रों का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का हो।

(15) पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों को स्थान दिया जाए, जिनके अध्ययन से बालक का भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार का विकास हो जाए।

(16) शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास होना चाहिए।

(17) चूँकि स्त्रियाँ धर्मधारिणी होती है अतः स्त्री-शिक्षा का केन्द्र धर्म ही चाहिए।

(18) पाठ्यक्रम के अन्तर्गत् लौकिक एवं अलौकिक दोनों प्रकार के विषय होने चाहिए।

(19) यदि देश की औद्योगिक प्रगति करनी है तो प्राविधिक शिक्षा का विस्तार किया जाना चाहिए।

(20) मात्र पुस्तकी ज्ञान द्वारा, अध्ययन शिक्षा नही है। मन, वचन तथा कर्म की शुद्धि आत्म-नियन्त्रण है।

शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित होने चाहिए-

(1) पूर्णता को प्राप्त करने का उद्देश्य- स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का प्रथम उददेश्य अन्तर्निहित पूर्णता को प्राप्त करना है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “लौकिक तथा आध्यात्मिक सभी ज्ञान मनुष्य के मन में पहले से ही विद्यमान होता है। इस पर पड़े आवरण को उतार देना ही शिक्षा है। अतः शिक्षा को मनुष्य के अन्तर्निहित ज्ञान अथवा पूर्णता की अभिव्यक्ति करनी चाहिए।”

(2) शारीरिक एवं मानसिक विकास का उद्देश्य – विवेकानन्द जी के अनुसार, “शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास है।” उन्होंने शारीरिक उद्देश्य पर इसलिए बल दिया है, जिससे आज के बालक भविष्य में निर्भीक एवं बलवान योद्धा के रूप में गीता का अध्ययन करके देश की उन्नति कर सकें। शिक्षा के मानसिक उद्देश्य पर बल देते हुए उन्होंने बताया कि हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो जाए।

(3)नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य- स्वामी जी का विचार था कि किसी देश की महानता केवल उसके संसदीय कार्यों से नहीं होती, अपितु उसके नागरिकों की महानता से होती है किन्तु नागरिकों को महान बनाने के लिए उनका नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास परम आवश्यक है, अतः इसके लिए शिक्षा परम आवश्यक है।

(4) चरित्र निर्माण का उद्देश्य – विवेकानन्द जी ने चरित्र निर्माण को शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य माना है। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मचर्य पालन पर बल दिया और बताया कि ब्रह्मचर्य के द्वारा मनुष्य में बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्तियां विकसित होगी तथा वह मन, वचन और कर्म से पवित्र बन जाएगा।

(5) आत्मविश्वास, श्रद्धा एवं आत्मत्याग की भावना का उद्देश्य – स्वामी जी ने आजीवन इस बात पर बल दिया कि अपने ऊपर विश्वास रखना, श्रद्धा तथा आत्म त्याग की भावना को विकसित करना शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है। उन्होंने लिखा है, “उठो! जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तक कि चरम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाए।”

(6) विभिन्नता में एकता की खोज का उद्देश्य – स्वामी जी के अनुसार, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य विभिन्नता में एकता की खोज करना है उन्होंने बताया कि अध्यात्मिक तथा भौतिक जगत एक ही है। अतः, विभिन्नता की अनुभूति दोष अथवा माया है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि विभिन्नता में एकता की अनुभूति करने लगे।

(7) धार्मिक विकास का उद्देश्य– स्वामी जी चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति उस सत्य अथवा धर्म को मालूम कर सके जो उसके अन्दर छिपा हुआ है। इसके लिए उन्होने मन तथा हृदय के प्रशिक्षण पर बल दिया और बताया कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिसे प्राप्त करके बालक अपने जीवन को पवित्र बना सके, तथा उसमें आज्ञापालन, समाजसेवा एवं महापुरूषों और सन्तों के अनुकरणीय आदर्शों को अपनाने की क्षमता विकसित हो जाए।

(8) समाज सेवा का उद्देश्य- स्वामी जी का मानना था कि व्यक्ति को पढ़ने-लिखने के बाद मानव मात्र की भलाई करनी चाहिए न कि केवल अपनी ही भलाई करें। इन्होंने भारत की जनता की दरिद्रता को स्वयं अपनी आँखों से देखा था अतः ये चाहते थे कि देश के पढ़े-लिखे व्यक्ति इन दीन-हीनों की सेवा करें, उन्हें ऊँचा उठाने के लिए प्रयास करें और समाज की सेवा करें। समाज सेवा से इनका अभिप्राय मात्र दया अथवा दान से नहीं था अपितु समाज सेवा से इनका अभिप्राय दीन-दुःखियों के उत्थान (प्रगति) में सहयोग करने से था। स्वामी जी शिक्षा के माध्यम से समाज सेवकों का एक समूह बनाना चाहते थे। ये आध्यात्म की दृष्टि से भी समाज सेवा को अति महत्वपूर्ण मानते थे।

(9) विश्वबन्धुत्व एवं प्रेम का उद्देश्य – स्वामी जी ने शिक्षा एक प्रमुख उद्देश्य बालकों में देश-प्रेम की भावना का विकास करना बताया। इनका विचार था कि जो शिक्षा देश भक्ति की प्रेरणा नहीं देती, वह राष्ट्रीय शिक्षा नहीं कही जा सकती है, चूँकि स्वामी जी के समय हमारा भारत देश अंग्रेजों के अधीन था, अतः स्वामी जी ने यह अनुभव किया कि परतन्त्रता हीनता को जन्म देती है और यही हीनता हमारे समस्त दुःखों का कारण है। इसलिए इन्होंने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए युवकों को जागृत किया। ये संकीर्ण राष्ट्रीयता के पक्षधर नहीं थे बल्कि सभी व्यक्तियों में विश्व बन्धुत्व एवं प्रेम का विकास करने के पक्षधर थे।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार पाठ्यचर्या (Curriculum)

स्वामी जी ने पाठ्यचर्या के अन्तर्गत् उन सभी विषयों को सम्मिलित किया, जिनके अध्ययन से आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भौतिक उन्नति भी होती रहे। स्वामी जी ने आध्यात्मिक पूर्णता के लिए धर्म, दर्शन, पुराण, उपनिषद, उपदेश तथा कीर्तन-भजन और समृद्धि के लिए भाषा, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मनोविज्ञान, कला, गृहविज्ञान, व्यावसायिक विषय, कृषि, प्राविधिक विषय, खेलकूद, व्यायाम आदि विषयों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया।

स्वामी जी के शैक्षिक विचार के अनुसार पाठ्यचर्या विकास के निम्नलिखित सिद्धान्त होने चाहिए-

(1) पाठ्यचर्या के द्वारा बालक का शारीरिक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का विकास होना चाहिए।

(2) पाठ्यचर्या में क्रियात्मक कार्यों का भी स्थान दिया जाना चाहिए।

(3) पाठ्यचर्या रोजगारपरक हो अर्थात् ऐसा पाठ्यचर्या जो रोजगार की शिक्षा दे।

(4) विज्ञान की शिक्षा को पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाए।

(5) पाठ्यचर्या में परिवर्तन विद्यार्थियों की आवश्यकतानुसार किया जाना चाहिए।

इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर स्वामी जी ने बालकों को विज्ञान, इतिहास, भूगोल एवं साहित्य पढ़ाने का सुझाव दिया। धर्म एवं सत्य की शिक्षा को भी इन्होंने महत्व देते हुए पाठ्यचर्या में शामिल करने को कहा। कृषि, रोजगार एवं उद्योग धन्धों आदि की शिक्षा को भी पाठ्यचर्या में रखने का सुझाव दिया। इन सबके अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा एवं पाश्चात्य विज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त मातृभाषा एवं संस्कृत की शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया।

शिक्षण-पद्धति (Teaching Method)

स्वामी जी ने भारत की उसी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षण-पद्धति को अपनाने पर बल दिया, जिसमें गुरु और शिष्य के सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ रहते थे। आध्यात्मिक अथवा

धर्म-पद्धतियों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) चित्त की वृत्तियों का योग द्वारा निरोध करना।

(2) शिक्षक के गुणों तथा चरित्र का बुद्धि द्वारा अनुकरण करना।

(3) बालक को व्यक्तिगत निर्देशन तथा परामर्श विधि द्वारा उचित मार्ग की ओर अग्रसर करना।

(4) मन को केन्द्रीयकरण विधि द्वारा विकसित करना।

(5) ज्ञान को व्याख्यान, तर्क, विचार-विमर्श, स्वानुभव तथा रचनात्मक कार्यों तथा उपदेशों द्वारा अर्जित करना ।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार बालक का स्थान (Place of Student)

फ्रोबेल की भाँति स्वामी जी ने भी बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना तथा बताया कि बालक लौकिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार के ज्ञान का भण्डार होता है। वह पेड़ तथा पौधे की भाँति स्वयं ही स्वाभाविक रूप से विकसित होता है। अतः उन्होंने बालकों को स्वयं विकसित होने का सुझाव देते हुए कहा, “अपने अन्दर जाओ और उपनिषदों को अपने में से बाहर निकालो। तुम सबसे महान पुस्तक हो, जो कभी थी अथवा होगी। जब तक अन्तरात्मा नहीं खुलती, समस्त बाह्य शिक्षण व्यर्थ है। “

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षक का स्थान (Place of Teacher)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, शिक्षक एक दार्शनिक, मित्र तथा पथ-प्रदर्शक है जो बालक को अपने ढंग से अग्रसर होने के लिए सहायता प्रदान करता है।

शिक्षा के अन्य पहलू (Other Aspects of Education)

विवेकानन्द की शिक्षा के अन्य पहलुओं का अध्ययन निम्नवत् है-

(1) जन-साधारण की शिक्षा (Education of Public) – स्वामी जी के समय में शिक्षा जन-साधारण को सुलभ न थी। इसका क्षेत्र केवल समर्थ व्यक्तियों तक ही सीमित था। फलस्वरूप दीन दुखियों तथा निम्न वर्ग के लोगों को पेट भरकर भोजन नहीं मिल पाता था। अतः स्वामी जी ने तत्कालीन भारतीय समुदाय की आर्थिक दृष्टि से हीन दशा को सुधारनें के लिए जन साधारण की शिक्षा पर बल दिया और कहा, “मैं जन- साधारण की अवहेलना करना महान राष्ट्रीय पाप समझता हूँ। यह हमारे पतन का मुख्य कारण है, जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार उपयुक्त शिक्षा, अच्छा भोजन तथा अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जायेगी, तब तक प्रत्येक राजनीति बेकार सिद्ध होगी।” उनका विश्वास था कि शिक्षा के द्वारा ही इन दीन-हीनों की दशा को सुधारा जा सकता है यदि भारत को समृद्धिशाली बनना है, तो उसे इन करोड़ों नर-नारियों को शिक्षित करना होगा।

(2) स्त्री शिक्षा (Women Education) – स्वामी जी अपने देश की स्त्रियों की दयनीय दशा के प्रति बहुत सचेत थे। ये स्त्रियों को सम्मानपूर्ण स्थान देना चाहते थे। विवेकानन्द जी यह विश्वास करते थे कि जब तक समाज में स्त्रियों को सम्मान तथा आदर नहीं मिलेगा तब तक कोई भी समाज एवं राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता। इनके अनुसार धर्म को स्त्री-शिक्षा का केन्द्र-बिन्दु होना चाहिए ताकि स्त्रियाँ अपने चरित्र का निर्माण कर उसे ऊँचा उठा सके।

स्वामी जी के अनुसार स्त्री-शिक्षा के पाठ्यचर्या में धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त इतिहास, पुराण, गृह-विज्ञान, कला, पारिवारिक जीवन के सिद्धान्त तथा सिलाई, शिशु पालन एवं पाक कला की शिक्षा सम्मिलित होनी चाहिए, ताकि वे समाज की आदर्श नारियाँ बन सकें। स्त्रियों की असहाय स्थिति को देखकर स्वामी जी ने उन्हें आत्मरक्षा की शिक्षा देना भी आवश्यक बताया है।

विवेकानन्द के शैक्षिक चिन्तन का मूल्यांकन (Evaluation of Vivekanand’s Educational Thoughts)

स्वामी विवेकानन्द जी तात्कालीन शिक्षा के प्रबल आलोचक थे। स्वामी विवेकानन्द जी का शैक्षिक चिन्तन उनके जीवन दर्शन की ही तरह समन्वयवादी था। उनके जीवन दर्शन में समन्वयवादी दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। विवेकानन्द ने शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार व्यक्त किए तथा उनको प्रभावित किया है। स्वामी जी भक्ति, कर्म, एवं ज्ञान को परस्पर एक साथ सम्बन्धित मानते है तथा चिन्तन एवं क्रिया को भी एक दूसरे से सम्बन्धित मानते हैं। शिक्षा को उपयोगी एवं महत्वपूर्ण बनाने हेतु वे उसमें कुछ परिवर्तन करना चाहते थे। वे राष्ट्रवादी एवं राष्ट्रीय विकास के प्रबल समर्थक थे। उनकी शिक्षा द्वारा भारतीय छात्रों को भारतीय संस्कृति को सिखाने एवं विदेशी संस्कृति एवं सभ्यता से प्रभावित न होने पर बल दिया है।

स्वामी जी समाज के सभी वर्गों को शिक्षित करने के पक्ष में थे परन्तु सर्वप्रथम वे निम्न वर्ग को शिक्षित करना चाहते थे। उनकी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चाण्डाल को धीरे-धीरे बह्म तत्व के स्वरूप को धारण करना है जिसके द्वारा समाज के उच्च वर्ग की भाँति समाज के निम्न वर्ग को भी शिक्षा का समान अधिकार प्राप्त हो सके।

जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “भारत के अतीत में अटल आस्था रखते हुए और भारतीय विरासत पर गर्व करते हुए भी विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजन थे।”

According to Jawahar Lal Nehru, “Rooted in the part and full of pride in India’s prestige, Vivekanand was yet modern in his approach to his life’s problems and was kind of bridge between the part of India and her present.”

स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा को देन (Contribution of Swami Vivekanand to Education)

एक शिक्षाशास्त्री के रूप में स्वामी विवेकानन्द की प्रतिष्ठा बहुत अधिक है। संक्षेप में भारतीय शिक्षा को उनकी देन का उल्लेख निम्नलिखित बिन्दुओं में किया जा सकता है-

(1) स्वामी जी ने वेदान्त को व्यावहारिक रूप प्रदान किया। उन्होंने मानव सेवा को बहुत ऊँचा स्थान दिया। उन्होंने मानव सेवा को ही ईश्वर की सेवा माना।

(2) स्वामी जी ने आध्यात्मिक और दोनों की आवश्यकताओं पूर्ति बल दिया। उन्होंने कहा कि जब तक हम भौतिक दृष्टि से सुखी नहीं होते, तब तक ज्ञान, भक्ति और योग सब कल्पना की वस्तु हैं।

(3) स्वामी जी द्वारा बताए गए शिक्षा के उद्देश्य आज की परिस्थितियों में अत्यन्त सामयिक हैं। वे बालक की उन्नति और विकास में विशेष योगदान दे सकते हैं।

(4) पाठ्यचर्या के सम्बन्ध में स्वामी जी के विचार अत्यन्त व्यापक है। उन्होंने अपने पाठ्यचर्या में आध्यात्मिक और लौकिक उन्नति के लिए सभी विषयों के अध्ययन पर बल दिया है।

(5) स्वामी जी की एक महत्वपूर्ण देन बालकों के लिए प्राविधिक व औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था करना है, जिससे बालक अपना जीविकोपार्जन कर सके और स्वावलम्बी बन सके। स्वामी जी के इस विचार को कार्यान्वित करने पर ही बेरोजगारी की समस्या का समाधान किया जा सकता है।

(6) स्वामी जी ने शारीरिक शिक्षा पर विशेष बल दिया है स्वामी विवेकानन्द के अनुसार बालक को स्वस्थ और बलिष्ठ बनाना भी आवश्यक है। स्वामी जी का यह कथन कितना महत्वपूर्ण है, “तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल खेलने के द्वारा स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच सकते हो। तुम्हारी स्नायु और माँस-पेशियों के दृढ़ होने पर तुम्हें गीता भली-भाँति समझ में आ जाएगी।” स्वामी जी का यह विचार आज की परिस्थितियों में अत्यन्त उपयोगी और महत्वपूर्ण है।

(7) स्वामी जी ने शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के लिए ब्रह्मचर्य पर बल दिया है। आज की परिस्थितियों में स्वामी जी का यह दृष्टिकोण उत्यन्त उपयोगी है।

(8) स्वामी जी के जन शिक्षा सम्बन्धी विचार भारत की वर्तमान परिस्थितियों में अत्यन्त आवश्यक और उपयोगी है और देश की अनेक समस्याओं का समाधान करने में सहायक हैं।

(9) स्वामी जी के विचारों में समन्वय की विचारधारा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उन्होने प्राचीन और आधुनिक विचारों का समन्वय किया। उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय वेदान्त का शारीरिक और धार्मिक शिक्षा का भौतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का प्राचीन और आधुनिक शिक्षा आदर्शों का समन्वय करके शिक्षा को व्यावहारिक बनाने का प्रयत्न किया है।

डॉ. एम. लक्ष्मी कुमारी के अनुसार स्वामी विवेकानन्द हमारे सन्तों एवं दार्शनिकों के मध्य एक अनुपम स्थान पर अधिष्ठित है। यदि वह न होते तो भारत अब तक अपनी सभ्यता और संस्कृति के सत्य, सौन्दर्य और संजीवन की पुनः प्राप्ति का अवसर सदैव के लिए गवाँ देता और आम भारतीय पाश्चात्यीकरण की आँधी में उड़ गया होता। स्वामी जी अपने परम गुरु की महानता, मानवीयता और सच्ची सार्वभौम भावना को आत्मसात कर मानवता के परस्पर संघर्षरत वर्गों के मध्य सामंजस्य स्थापित किया।

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shubham yadav

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