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प्रयोजनवाद का अर्थ, परिभाषा, रूप, दार्शनिक दृष्टिकोण, सिद्धान्त, प्रयोजनवाद एवं शिक्षा, किलपैट्रिक की योजना पद्धति

प्रयोजनवाद का अर्थ
प्रयोजनवाद का अर्थ

प्रयोजनवाद का अर्थ (Meaning of Pragmatism)

प्रयोजनवाद (Pragmatism) शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के प्रेग्मा (Pragma) शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है क्रिया अथवा किया गया कार्य। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार यह शब्द ग्रीक भाषा के प्रेग्मेटिकोज (Pragmatikos) शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है – व्यावहारिकता अथवा उपयोगिता। अतः इस विचारधारा के अन्तर्गत् क्रियाशीलता तथा व्यावहारिकता को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। प्रयोजनवादियों का अटल विश्वास है कि पहले क्रिया अथवा प्रयोग किया जाता है। फिर इसके फल के अनुसार विचारों अथवा सिद्धान्तों का निर्माण होता है। इसीलिए प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद अथवा फलवाद के नाम से भी पुकारा जाता है।

प्रयोजनवाद को फलवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक क्रिया का मूल्यांकन उसके परिणाम अथवा फल के अनुसार निश्चित किया जाता है। प्रयोजनवाद का नारा है परिवर्तन इस दृष्टि से कोई भी सत्य स्थायी न होकर सदैव परिवर्तन की अवस्था में है। अतः प्रयोजनवाद का दावा है कि सत्य सदैव देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है।

प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद (Experimentalism) इसीलिए कहा जाता है क्योंकि प्रयोजनवादी केवल प्रयोग को ही सत्य की एकमात्र कसौटी मानते हैं। उनके अनुसार सत्य, वास्तविकता, अच्छाई तथा बुराई सब सापेक्ष शब्द हैं। ये पूर्व निश्चित नहीं अपितु इन सबको मानव अपने प्रयोग तथा अनुभवों के द्वारा सिद्ध करता है। प्रयोगवादियों का अखण्ड विश्वास है कि सत्य तथा वास्तविकता अनेक हैं। ये सब निर्माण की अवस्था में हैं। मानव अपने प्रयोगों तथा अनुभवों के द्वारा इन सबकी खोज करता है। अतः केवल वही बातें सत्य हैं जिन्हें प्रयोग के द्वारा सिद्ध किया जा सके। प्रयोजनवादियों का यह भी विश्वास है कि जो विचार अथव सिद्धान्त कल सत्य था, यह आवश्यक नहीं कि वह आज भी सत्य ही हो। ऐसी स्थिति में कोई भी निश्चित अथवा प्रचलित सिद्धान्त समस्त संसार को प्रगति पथ से नहीं रोक सकता।

अतः प्रयोजनवाद, आदर्शवाद की भाँति पूर्व निश्चित तथा प्रचलित सिद्धान्तों के अनुसार चिरन्तर आदर्शों तथा मूल्यों के अस्तित्व को स्वीकार न करके प्रत्येक निश्चित दर्शन का विरोध करता है तथा इस बात पर जोर देता है कि केवल वही आदर्श तथा मूल्य सत्य है जिसका परिणाम किसी देश काल तथा परिस्थिति में मानव के लिए व्यावहारिक, लाभदायक, फलदायक तथा सन्तोषजनक हो।

प्रयोजनवाद के प्रमुख प्रवर्तक सी. बी. पीयर्स (C.B. Pearce), विलियम जेम्स (Willium James), शिलर (Shiller) तथा जॉन ड्यूवी (John Dewey) हैं।

प्रयोजनवाद की परिभाषाएँ (Definitions of Pragmatism)

प्रयोजनवाद के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रसिद्ध विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

बी. प्रेट के अनुसार, “प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धान्त, सत्य का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त तथा वास्तविकता का सिद्धान्त देता है।”

According to James B. Prett, “Pragmatism offers us a theory of meaning, a theory of knowledge and a theory of reality.”

रॉस के अनुसार, “प्रयोजनवाद आवश्यक रूप से एक मानवतावादी दर्शन है जो यह जानता है कि मानव क्रिया को करते हुए अपने मूल्यों का निर्माण स्वयं करता है, और या मानता है कि वास्तविकता सदैव निर्माण की अवस्था में रहती है।”

According to JI.S. Ross, “Pragmatism is essentially a humanistic philosophy, maintaining that man creates his own values in the course of activity, that reality is still in the making and avails part of its complexion from the future, that to an unascertainable extent our truths are man made products.”

विलियम जेम्स के अनुसार, ‘प्रयोजनवाद मस्तिष्क का एक स्वभाव और अभिवृत्ति है। यह विचार और सत्य की प्रकृति का सिद्धान्त भी है, और अन्त यह वास्तविकता का सिद्धान्त देता है।”

According to William James, “Pragmatism is a temper of mind, an attitude, it is also a theory of the nature of ideas and truth and finally it is a theory about reality.”

रोजन के अनुसार, प्रयोजनवाद के अनुसार सत्य को उसके व्यावहारिक परिणामों के द्वारा जाना जाता है और इसलिए सत्य निरपेक्ष न होकर व्यक्तिगत अथवा सामाजिक समस्या है।”

According to Rosen, “Pragmatism states that truth can be known only through its practical consequences and is thus an individual or social matter rather than an absolute.”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर प्रयोजनवाद के विषय में कहा जा सकता है कि यह सत्य निरन्तर न होकर परिवर्तनशीलता पर अधिक विश्वास करता है।

प्रयोजनवाद के रूप (Forms of Pragmatism)

प्रयोजनवाद के मुख्य रूप निम्नलिखित हैं-

  1. प्रयोजनवाद के रूप (Forms of Pragmatism)
  2. मानवतावादी प्रयोजनवाद (Humanistic Pragmatism)
  3. प्रयोगवादी प्रयोजनवाद (Experimental Pragmatism)
  4. जीवविज्ञानवादी प्रयोजनवाद (Biological Pragmatism)
  5. नामरूपवादी प्रयोजनवाद (Nominalistic Pragmatism)

प्रयोजनवाद का दार्शनिक दृष्टिकोण (Philosophical Approach of Pragmatism)

प्रयोजनवादियों के दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने के लिए उसकी तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को समझना आवश्यक होता है। यद्यपि प्रयोजनवादियों नें इन पक्षों को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया है, परन्तु इस सृष्टि एवं मानव से सम्बन्धित इनका जो भी चिन्तन है, उसी को आधार मानते हुए हम प्रयोजनवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को समझने का प्रयास करेंगे।

(1) तत्व मीमांसा – प्रयोजनवाद की तत्व मीमांसा को हम इस प्रकार समझ सकते हैं-

(i) संसार अग्रभूमि (Foreground) है अर्थात् संसार किसी अन्य सत्यता की पृष्ठभूमि नहीं है। इसका स्वयं में अस्तित्व है। संसार में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं अर्थात् संसार निरन्तर बदलता रहता है, अतः यह अनिश्चित है। संसार अपूर्ण अर्थात् अधूरा है।

(ii) यह बहुतत्ववादी (Pluralistic) है। इसमें अनेकों तत्व सम्मिलित हैं जिनका अपना अस्तित्व है। संसार की प्रक्रिया में ही इसकी प्रयोजन की प्रक्रिया निहित है। संसार न तो अनुभव से अलग है एवं न ही कोई अनुभव से अलग ज्ञान को अपने में सम्मिलित करता है। संसार में प्रगति का आश्वासन निहित है।

(2) ज्ञान एवं तर्क मीमांसा- प्रयोजनवादियों की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा अनुभववाद तथा तर्कवाद के मध्य में है। चूंकि तर्कवाद के समान प्रयोजनवाद सार्वभौमिक सत्यों या सिद्धान्तों से प्रारम्भ नहीं होता है अतः यह तर्कवाद से अलग है। किन्तु तर्कवाद की भाँति यह तथ्यों के सफलतापूर्वक संगठन का प्रतिमान है जो ज्ञान में केन्द्रित है।

प्रयोजनवादियों के अनुसार हमें किन्हीं तथ्यों का ज्ञान उस समय प्राप्त होता है जब हम वस्तुओं का सक्रिय अनुभव करते हैं एवं उसके गुण उस समय प्रकाशित होते हैं जब हम उन्हें जान जाते हैं। हम यह सकते हैं कि प्रयोजनवाद ज्ञान प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिक विधि, जो कि प्रयोगात्मक विधि है, पर बल देता है।

(3) मूल्य एवं आचार मीमांसा – इस सम्प्रदाय के अनुसार मूल्य समय एवं स्थान के अनुसार बदलते रहते हैं। अतः प्रयोजनवादियों की मूल्य मीमांसा को हम इस प्रकार समझ सकते हैं-

(i) सत्य का स्वरूप, समय, आदर्श तथा स्थान के अनुसार बदलता रहता है। सत्य निर्मित होता है एवं यह अनिश्चित है।

(ii) चूंकि सत्य परिवर्तनशील है अतः जीवन के आदर्श एवं उद्देश्य भी स्थायी नहीं समझे जा सकते हैं।

(iii) कार्य ज्ञान के आधार पर किया जाए। किसी भी सिद्धान्त का अनुसरण, आँखे बन्द करके करना अनुचित है। अतैव जो विचार मान्य हों उनकी आधारशिला क्रियाशीलता हो।

(iv) समाज ही मानव का पूर्ण विकास कर उसे सफलता एवं सन्तोष प्रदान करता है।

प्रयोजनवाद के प्रमुख सिद्धान्त (Main Principles of Pragmatism)

प्रयोजनवाद के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) सत्य की परिवर्तनशील प्रकृति (Changing Nature of Truth) – प्रयोजनवादी पूर्व निर्धारित सत्यों में विश्वास नहीं करते। उसके अनुसार सत्य सदैव देश, काल, तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। उनका विश्वास है कि जो वस्तु किसी अमुक स्थान पर किसी व्यक्ति के लिए सत्य है, वह दूसरे स्थान पर अन्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के लिए सत्य होना आवश्यक नहीं है। विलियम जेम्स के अनुसार, “सत्यता किसी विचार का स्थाई गुणधर्म नहीं है, वह तो अकस्मात् विचार में निर्वासित होता है।” उनके अनुसार जो वस्तु आज सत्य है, आवश्यक नहीं कि वह आगे भी सत्य होगी, क्योंकि मानव के अनुभव परिवर्तनशील हैं। अतः सत्य भी परिवर्तनशील है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रयोजनवाद के अनुसार सत्य सदैव परिवर्तनशील होता है। इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए विलियम जेम्स ने लिखा है “सत्यता किसी विचार का स्थायी गुण-धर्म नहीं है। वह तो एकाएक विचारों से प्रकट होता है।”

According to William James, “The truth of an idea is not a stagnant property inherent in it- Truth happens to an idea”.

(2) वर्तमान तथा भविष्य में विश्वास (Faith in Present and Future)-प्रयोजनवाद भूत में विश्वास नहीं करता। प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्तमान तथा भविष्य की समस्याओं को हल करना होता है। प्रयोजनवाद के मत में व्यक्ति को वर्तमान और भविष्य में आने वाली समस्याओं का हल ढूँढ़ना पड़ता है। जो व्यतीत हो गया है उसका क्या सोचना। अतः प्रयोजनवाद वर्तमान तथा तात्कालिक भविष्य पर विशेष बल देता है।

(3) बहुतत्ववाद में विश्वास (Faith in Pluralism) – प्रयोजनवाद बहुतत्ववाद का समर्थन करता है। इस विचारधारा के अनुसार सत्य की कसौटी अनुभव है। जो विचार अथवा आदर्श अनुभव रूपी कसौटी पर सत्य सिद्ध होगा वे अनेक हैं। जो बात व्यक्ति के द्वारा सत्य सिद्ध हो जायेगी वही सत्य है। रस्क के अनुसार, प्रकृतिवाद प्रत्येक वस्तु को जीवन अथवा भौतिक तत्व, आदर्शवाद मन अथवा आत्मा मानता है। प्रयोजनवाद इस बात की आवश्यकता ही नहीं समझता कि संसार को किसी एक तत्व अथवा सिद्धान्त के आधार पर स्पष्टीकरण करे। प्रयोजनवाद सिद्धान्तों को स्वीकार करने में संतोष अनुभव करता है। अतः वह बहुत्ववादी है।”

According to Rusk, “Naturalism reduces everything to life, idealism to mind or spirit- Pragmatism sees no necessity for seeking one fundamental principle of explanation. It is quite content to admit several principles and accordingly pluralistic.”

(4) उपयोगिता के सिद्धान्त पर बल (Emphasis on the Principle of Utility)- प्रयोजनवाद एक उपयोगितावादी विचारधारा है, जिसके अनुसार प्रत्येक सिद्धान्त की यथार्थता उसकी उपयोगिता है। यदि कोई विचार अथवा अनुभव हमारे लिए उपयोगी है तो ठीक है, अन्यथा व्यर्थ है। दूसरे शब्दों में जो विचार अथवा वस्तु उपयोगी है वही सत्य है। विलियम जेम्स के अनुसार, “किसी वस्तु की सत्यता उसकी उपयोगिता के आधार पर निर्धारित की जा सकती है।”

According to William James, “It is true, because it is useful.”

(5) सत्य का निर्माण उसके फल से होता है (Truth is Formed by its Result)- प्रयोजनवादियों के अनुसार सत्य एक सापेक्ष शब्द है जो व्यक्ति के विकास तथा उसके जीवन में आने वाली परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। इसका कारण यह है कि परिस्थितियों में परिवर्तन होने से व्यक्ति के सामने नई-नई समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं जिसको सुलझाने के लिए उसके मस्तिष्क में नये-नये विचार आने लगते हैं। इन नवीन विचारों में केवल वही विचार सत्य है जिनका प्रयोग करने पर उसे सन्तोषजनक परिणाम प्राप्त होता है। अतः प्रयोजनवादियों का अटल विश्वास है कि सत्य का निर्माण उसके फल अथवा परिणाम से होता है।

(6) सामाजिक परम्पराओं एवं प्रथाओं का विरोध (Opposition of Social Customs and Traditions)- प्रयोजनवाद प्राचीनतम् प्रथाओं तथा परम्पराओं एवं समाज की प्रचलित रूढ़ियों, बन्धनों तथा उलझनों का घोर विरोधी है। वह जीवन की वास्तविकता में विश्वास करता है। अतः वह सामाजिक बन्धनों के चक्कर में न पड़कर व्यक्ति की शक्तियों को महत्व देता है।

(7) समस्याएँ सत्य के निर्माण हेतु प्रेरणा के रूप में (Problems as the Motives of Truth) – प्रयोजनवाद के अनुसार जीवन एक प्रयोगशाला है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में आने वाली नाना प्रकार की समस्याओं को सुलझाने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग करता है। प्रयोग की सफलता ही सत्य की खोज है। इस प्रकार समस्याएँ ही सत्य की प्रेरक शक्ति हैं।

(8) लचीलेपन में विश्वास (Faith in Flexibility)- प्रयोजनवादियों का विश्वास है कि संसार में कोई भी वस्तु स्थिर (Fixed) तथा अन्तिम (Final) नहीं है। प्रत्येक वस्तु आगे बढ़ती है, परिवर्तित होती है तथा विकसित होती है। दूसरे शब्दों में, संसार में परिवर्तन हो रहा है तथा संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तन की अवस्था में है। मानव के जीवन में भी परिवर्तन हो रहे हैं। उसे अपने जीवन में अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिन्हें सुलझाने के लिए उसे नाना प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस जीवन संग्राम में मानव के अनुभव तथा विचार ही उसे समस्याओं के सुलझाने में सहयोग प्रदान करते हैं। अतः वास्तविक संसार अनुभव का संसार है।

(9) क्रिया का महत्व (Importance of Activity)- प्रयोजनवाद विचारों की अपेक्षा क्रिया को विशेष महत्व प्रदान करता है। प्रयोजनवादियों को विश्वास है कि विचार का जन्म सदैव क्रिया के पश्चात् होता है। मानव एक क्रियाशील प्राणी है। वह अपने जीवन की लम्बी यात्रा में केवल अपनी क्रियाओं तथा अनुभवों के आधार पर प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ सीखता रहता है। यही कारण है कि शिक्षा में क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त, प्रयोजनवादियों का मूल आधार है।

(10) वास्तविक अभी निर्माण की अवस्था में (Reality Still in the Making)- प्रयोजनवादियों का विश्वास है कि वर्तमान की तुलना में भविष्य अधिक उज्जवल है। अतः उसके अनुसार संसार को बना बनाया, सुन्दर तथा पूर्ण कहना बहुत बड़ी भूल है। संसार तो अभी निर्माण की अवस्था में है। मानव को उसे अभी इतना सुन्दर बनाना है, जिसमें रहते हुए उसकी समस्त इच्छाओं की भी पूर्ति हो सके। इस प्रकार प्रयोजनवादी दृष्टिकोण प्रगतिशील तथा आशावादी है। विलियम जेम्स के अनुसार, “प्रकृतिवाद के लिए वास्तविकता पूर्ण निर्मित वस्तु है तथा वह आदिकाल से ही पूर्ण है किन्तु प्रयोजनवाद के लिए वास्तविकता का अभी निर्माण हो रहा है तथा अपने स्वरूप का कुछ भाग भविष्य के लिए छोड़ देती है।”

According to James William, “For Naturalism reality is readymade and complete from all entirety while for pragmatism it is still in the making and awaits its part of completion from the future.”

प्रयोजनवाद के प्रमुख सिद्धान्त

प्रयोजनवाद एवं शिक्षा (Pragmatism and Education)

प्रयोजनवाद एवं शिक्षा के सम्बन्ध को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

प्रयोजनवाद तथा शिक्षा के उद्देश्य (Pragmatism and Purpose of Education)

प्रयोजनवाद विचारधारा आदर्शवादी सिद्धान्त की भाँति जीवन के स्थिर तथा पूर्व निश्चित मूल्यों को स्वीकार नहीं करती। जब जीवन का कोई निश्चित मूल्य सत्य ही न हो तो शिक्षा के उद्देश्य को पहले से ही कैसे निश्चित किया जा सकता है। प्रयोजनवाद का दावा है कि मानव-जीवन के मूल्य देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। प्रसिक प्रयोजनवादी दार्शनिक ड्यूवी के अनुसार, शिक्षा के उद्देश्य नहीं होते हैं। शिक्षा एक सापेक्ष विचार है। शिक्षा के उददेश्य केवल व्यक्तियों के होते हैं तथा व्यक्तियों के उद्देश्य बहुत अधिक भिन्न होते हैं। ये विभिन्न बालकों के लिए विभिन्न होते हैं। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होते जाते हैं त्यों-त्यों उद्देश्य बदलते जाते हैं। निर्धारित किए हुए उद्देश्य भलाई की तुलना में बुराई अधिक कर सकते हैं। उनको केवल आने वाले परिणामों को जानने, स्थितियां की देखभाल करने तथा बालकों की शक्तियों को मुक्त तथा निर्देशित करने के साधनों को चुनने के लिए सुझावों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। प्रयोजनवाद के अन्तर्गत् शिक्षा के उद्देश्यों को चार्ट के माध्यम से समझ सकते हैं-

प्रयोजनवाद तथा शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा की पाठ्यचर्या एवं प्रयोजनवाद (Curriculum of Education and Pragmatism)

पाठ्यचर्या निर्माण के सम्बन्ध में प्रयोजनवादियों ने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। जिसे एक चार्ट द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

प्रयोजनवाद का शिक्षा पाठ्यचर्या

(1) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)- प्रयोजनवादी पाठ्यचर्या का प्रथम सिद्धान्त उपयोगिता है। प्रयोजनवाद के मत में समस्या का समाधान करना ही ज्ञान की कसौटी है अन्यथा तो ज्ञान सूचना मात्र है। इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यचर्या में उन विषयों को ही सम्मिलित किया जाना चाहिए जो न केवल बालक के वर्तमान जीवन के लिए अपितु भविष्य के प्रौढ़ जीवन के लिए भी उपयोगी हों। अतः पाठ्यचर्या में भाषा, स्वास्थ्य विज्ञान, शारीरिक प्रशिक्षण, भूगोल, इतिहास, विज्ञान तथा कृषि विज्ञान एवं बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान आदि विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिए। यही सिद्धान्त आगे चलकर व्यावसायिक शिक्षा की माँग भी उपस्थित करता है। अतः पाठ्यचर्या का निर्माण उपयोगिता की दृष्टि से होना चाहिए जिससे मानव प्रगति की ओर अग्रसर होता रहे।

(2) रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest)- प्रयोजनवादी पाठ्यचर्या का दूसरा सिद्धान्त बालक की प्राकृतिक अभिरुचियाँ हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार बालक जिन क्रियाओं में रुचि लेता है, उन्हें पाठ्यचर्या के अन्तर्गत अवश्य सम्मिलित करना चाहिए। जॉन ड्यूवी के अनुसार, रुचियाँ चार प्रकार की होती हैं-

रुचियों का वर्गीकरण

(3) अनुभव एवं क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Experience and Activity)- प्रयोजनवादी पाठ्यचर्या का तृतीय सिद्धान्त बालक की क्रिया, व्यवसाय तथा अनुभव है। इन तीनों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, प्रयोजनवाद पुस्तकीय ज्ञान एवं रटने के सिद्धान्त का विरोध करते हुए अनुभवों को अधिक महत्व देता है। अतः इस विचारधारा के अनुसार पाठ्यचर्या में विषयों के अतिरिक्त उन क्रियाओं को विशेष स्थान मिलना चाहिए जो स्वतन्त्र, सामाजिक तथा सोद्देश्य हों तथा जिनके द्वारा बालक अनुभवशील बन जाए।

(4) एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration)- प्रयोजनवादी पाठ्यचर्या का चौथा सिद्धान्त विषयों का एकीकरण है। प्रयोजनवाद के अनुसार ज्ञान एक इकाई है। इसे अलग-अलग विभागों में नहीं बाँटा जा सकता। अतः आवश्यकता इस बात की है कि बालक को विभिन्न विषयों का ज्ञान पृथक-पृथक संकुचित रूप में न देकर समस्त विषयों को परस्पर सम्बन्धित करके पढ़ाया जाए। प्रयोजनवादी की दृष्टि में ज्ञान समग्र है और उस समग्रता को बनाए रखने के लिए उसे बालकों के अनुभवों से समन्वित किया जाना चाहिए इस प्रकार एक ही उद्देश्य से सम्बन्धित विभिन्न क्रियाओं के रूप में विभिन्न विषयों की शिक्षा देने से एकीकरण सरलतापूर्वक स्थापित किया जा सकता है।

प्रयोजनवाद तथा शिक्षण विधियाँ ( Pragmatism and Methods of Teaching)

प्रयोजनवाद का शिक्षण- सिद्धान्तों तथा शिक्षण विधियों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। व्यक्ति शून्य में कोई चिन्तन नहीं करता और चिन्तन शक्ति को उद्दीप्त करने के लिए किसी समस्या का होना आवश्यक है, क्योंकि ड्यूवी के मत में जब तक क्रिया बाध गति से चलती रहती है तब तक विचार-प्रक्रिया उद्दीप्त नहीं हो सकती। बालक को पूर्णरूपेण विकसित करने के लिए बालक तथा शिक्षक दोनों का ही यह कर्तव्य बनता है। कि वह ऐसी शिक्षण विधि को चुनें जो बालक के जीवन से सम्बन्धित हो तथा जिसमें क्रियाशीलता, व्यावहारिकता तथा अनुभव आदि का समावेश हो ।

प्रयोजनवाद पुरानी शिक्षण विधियों को त्यागकर नई शिक्षण विधियों को अपनाने में सहायता प्रदान करता है जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसी कारण प्रयोजनवाद की शिक्षण विधियाँ अतिमहत्वपूर्ण मानी गई हैं जो कि इस प्रकार हैं-

(1) सीखने की उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Purposive Process of Learning)- बच्चे उन्हीं क्रियाओं में रुचि लेते हैं जिनसे तत्कालीन उद्देश्य प्राप्त होते हैं। अतः उन्हें जो भी शिक्षा दी जाए वो उनके तत्कालिक जीवन से जुड़ी हो।

(2) अनुभव द्वारा सीखने का सिद्धान्त (Principle of Learning by Experience)- प्रयोजनवाद विचारकों का मानना है कि बच्चे रटने के बजाय अपने अनुभव के माध्यम से या स्वयं करके सीखें, जिससे वे विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हो पाएँ।

(3) सीखने की प्रक्रिया में एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration in Learning Process)- प्रयोजनवादियों के अनुसार समस्त विषयों को परस्पर अंतःसम्बंधित करके पढ़ाना शिक्षक की सबसे अच्छी विधि है।

(4) योजना पद्धति (Project Method)- किलपैट्रिक की योजना पद्धति के अन्तर्गत शिक्षक बालकों को कुछ योजनाएं उपलब्ध कराता है उनका मार्गदर्शन करके उन कार्यों का निरीक्षण करता हैं।

(5) समस्या-समाधान विधि (Problem Solving Method) – इस विधि में बालक अपने शिक्षक के निर्देशानुसार समस्याओं का हल सक्रिय रूप से स्वयं के अनुभवों के माध्यम से खोजता है।

यह दर्शन मनुष्य के व्यावहारिक पक्ष पर ही विचार देता है और सम्पूर्ण सृष्टि को क्रियाओं का परिणाम मानता है। कहने का तात्पर्य है कि प्रयोजनवाद में ज्ञान के विभिन्न पक्षों के होते हुए भी यह एक ही है। इसे अलग-अलग टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। इस दृष्टि से जहाँ तक सम्भव हो प्रत्येक विषय को एक-दूसरे से सम्बन्धित करके ही पढ़ाया जाना चाहिए। प्रयोजनवाद के अनुसार वही शिक्षण-पद्धति सबसे उत्तम है जिसके द्वारा विभिन्न को परस्पर सम्बन्धित करके पढ़ाया जा सके।

किलपैट्रिक की योजना पद्धति (Project Method of Kilpatrick)

जॉन ड्यूवी के प्रिय शिष्य किलपैट्रिक (Kilpatrick) ने शिक्षा को एक ठोस तथा व्यावहारिक शिक्षण पद्धति प्रदान की। इस शिक्षण-पद्धति को योजना पद्धति (Project Method) के नाम से पुकारा जाता है। यह पद्धति प्राचीन शिक्षण-पद्धतियों की भाँति निष्क्रिय नहीं अपितु सक्रिय पद्धति है। इसमें कार्य को शिक्षक नहीं करता वरन् स्वयं करके सीखता है। शिक्षक का कार्य केवल इतना ही कि वह बालक के सामने ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करे जिससे वह समस्या को पहचान ले। समस्या को पहचानने अथवा चुनने के पश्चात् प्रत्येक बालक को प्रयोग तथा अनुभव करने के लिए स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता है। प्रत्येक बालक एक-दूसरे के सहयोग से समस्या को सक्रिय रूप से सुलझाने का प्रयास करता । अन्त में जब समस्या सुलझ जाती है, तो ठोस एवं निश्चित परिणामों को प्राप्त करके नवीन मूल्यों का निर्माण किया जाता है।

प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक-छात्र सम्बन्ध (Teacher-Pupil Relationship According to Pragmatism)

प्रयोजनवाद के अनुसार, “अध्यापक का कार्य ऐसी परिस्थितियों का आयोजन करना है जिनके द्वारा बालकों की क्षमताओं का विकास हो सके और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो सके।” इस वाद के मत में शिक्षा अनुभवों की पुनर्रचना है किन्तु सामाजिक परिस्थितियाँ जटिल होती हैं। अतः शिक्षक का काम उन्हें सरल रूप में छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करना है जिससे छात्र अपनी क्षमता व योग्यतानुसार सुगमता से व एक आदर्शात्मक रूप में शैक्षिक अनुभव प्राप्त कर सकें। आदर्शात्मक रूप के साथ-साथ सन्तुलित रूप में अनुभव प्राप्त कराना भी शिक्षक का दायित्व है।

प्रयोजनवाद के अनुसार छात्र अनुभव का केन्द्र है। इस रूप में वह सक्रिय रूप से ज्ञान प्राप्त करता है। छात्रों के विकास के लिए प्रयोजनवाद ने तीन स्तर माने हैं; जैविक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक (Biological, Sociological and Psychological)। अतः शिक्षक का दायित्व छात्रों की रुचि, क्षमता व आदतों को जानना है जिससे वह एक सलाहकार व पथ-प्रदर्शक के रूप में छात्रों को उचित शिक्षा, दिशा-निर्देश दे सके। शिक्षक-छात्र सम्बन्ध मधुर बताये गये हैं। छात्र, शिक्षक के प्रति आदर-सम्मान की भावना रखते हैं । यह छात्र अपनी रुचि, रुझान, योग्यता और आवश्यकताओं के अनुसार विकास करते हैं और शिक्षक उनका मापन करके छात्रों में सुधार करने को कहते हैं।

ड्यूवी के अनुसार, छात्रों की मनोवैज्ञानिक स्थिति को जानना अध्यापक के लिए आवश्यक है। सामाजिक दृष्टि से भी छात्र का अस्तित्व महत्वपूर्ण है। सामाजिक क्रियाएँ, व्यवहार के तरीके व संस्कार आदि उसे सामाजिक बनाते हैं ।

प्रयोजनवाद का उद्दीपन (Estimate of Pragmatism)

प्रयोजनवाद का उद्दीपन ग्रीक भाषा के “प्रेग्मा (Pragma) ” अथवा “प्रेग्मेटिकोस (Pragmaticos)” शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ ‘व्यवहारिकता और क्रिया’ से होता है।

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shubham yadav

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