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योजना विधि (Project Method)
शिक्षा जगत में योजना (Project) शब्द का सबसे पहले प्रयोग सन् 1900 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड्स ने किया था। इस विधि का प्रयोग उस स्थान पर किया था जहाँ बालक को वास्तविक समस्या की योजना स्वयं अपनी बनानी होती है और साथ ही यह निश्चित करता है कि उसे समस्या हल करने में किन-किन पदों का प्रयोग करना पड़ेगा और इस प्रकार वह उस समस्या को हल करता है।
योजना विधि को जन्म देने का श्रेय प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री किलपैट्रिक को दिया जाता है। किलपैट्रिक अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी के शिष्य थे जो कोलम्बिया विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्र के प्राध्यापक थे। उनका मानना था कि शिक्षा को वास्तविक जीवन की गहराई में प्रवेश करना चाहिए।
किलपैट्रिक के अनुसार, प्रोजेक्ट वह सहृदयतापूर्ण अभिप्राय युक्त क्रिया उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक पर्यावरण में किया जाता है।”
According to W.H. Kilpatrick, “A project is a wholehearted purposeful activity proceeding in a social environment.”
सी.वी. गुड के अनुसार, “योजना नियोजित होती है तथा इसकी पूर्ति का प्रयास शिक्षक तथा शिक्षार्थियों के द्वारा स्वाभाविक जीवन जैसी परिस्थितियों में किया जाता है।
According to C.V. Good, “A project is a significant, practical unit of activity having educational value and aimed at one or more definite goals of understanding.”
बैलार्ड के अनुसार, “प्रोजेक्ट वास्तविक जीवन का एक छोटा सा अंश होता है जिसे विद्यालय में सम्पादित किया जाता है।”
According to Ballard, “A project is a bit of real life that has been imparted into school.”
पार्कर के अनुसार, “योजना कार्य की एक इकाई है, जिसमें छात्रों को कार्य की योजना और सफलता के लिए उत्तरदायी बनाया जाता है।”
According to Parker, “A project is a unit of activity in which pupils are made responsible and purposing.”
योजना विधि के प्रकार (Types of Project Method)
किलपैट्रिक ने अपनी पुस्तक ‘Foundation of Method’ में योजना के चार प्रकार बताए हैं-
(1) रचनात्मक योजनाएँ (Constructive Projects) – रचनात्मक प्रोजेक्ट में कार्य भौतिक रूप में होते हैं। जैसे- पत्र लिखना, कुआँ खोदना, मॉडल बनाना और नाटक खेलना।
(2) कलात्मक योजनाएँ (Artistic Projects) – इस प्रकार के प्रोजेक्ट में कलात्मकता जाग्रत की जाती है। जैसे- संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करना, कविताएं सुनाना ।
(3) समस्यात्मक योजनाएँ ( Problematic Projects) – इस प्रकार के प्रोजेक्ट में बौद्धिक कठिनाई को सुलझाया जाता है। जैसे- समुद्र में ज्वारभाटा आने का कारण ।
(4) अभ्यासात्मक योजनाएँ (Drill Projects) – इस प्रकार के प्रोजेक्ट में विशिष्ट कार्य सीखने में विद्यार्थियों की कार्यकुशलता तथा क्षमता में वृद्धि की जाती है। जैसे- मानचित्र बनाना।
योजना विधि के प्रमुख सिद्धान्त (Major Principles of Project Method)
योजना विधि के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Definite Purpose)- किलपैट्रिक के अनुसार, बच्चे सप्रयोजन क्रियाओं में अधिक रुचि लेते हैं और उन्होंने अपनी इस विधि में ऐसे प्रोजेक्टों को चुनने पर बल दिया जिनका उद्देश्य निश्चित होता है। इससे बच्चों का प्रयोजन पूर्ण होता है।
(2) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity) – इस प्रणाली में करके सीखने पर बल दिया जाता है। इसमें बच्चों को किसी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए स्वयं विचार करने को कहा जाता है। इस क्रिया में बच्चे की कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ क्रियाशील होती हैं। अध्यापक भी इस क्रिया में बच्चे की सहायता करते हैं।
(3) वास्तविकता का सिद्धान्त (Principle of Reality)- प्रयोजनवादी वास्तविक जीवन को ही भौतिक जीवन मानते रहे हैं। अतः वे किसी भी क्रिया को करने की आज्ञा नहीं देते जिसका सम्बन्ध भौतिकता से न हो। यह सिद्धान्त जीवन से जोड़ने का सिद्धान्त है।
(4) अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience)- योजना पद्धति में छात्र स्व-अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। इससे प्राप्त ज्ञान छात्रों के मस्तिष्क का स्थाई अंग बन जाता है। तथा इस प्राप्त ज्ञान का प्रयोग ये जीवन की व्यावहारिक परिस्थितियों में कर सकते हैं।
(5) समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Correlation)- योजना पद्धति में छात्र अलग-अलग विषयों का अध्ययन नहीं करते। किसी भी समस्या को हल करने के दौरान उन्हें सभी विषयों का ज्ञान समन्वित रूप में प्राप्त होता है। विद्यालय में विषयों का स्वाभाविक सहसम्बन्ध होता है।
(6) मितव्ययिता का सिद्धान्त (Principle of Economy)- यह सिद्धान्त बालक को निर्धारित समय में अपना कार्य पूर्ण करने का आदेश देता है। इस पद्धति में यह प्रयास किया जाता है कि छात्रों को अल्प समय में अधिक से अधिक ज्ञान की प्राप्ति हो सके।
(7) सामाजिकता का सिद्धान्त (Principle of Socialisation)- यह पद्धति छात्रों में सामाजिकता की भावना का विकास करती है। कोई भी कार्य छात्र मिलजुलकर करते हैं। ऐसा करने से उनमें सामाजिक गुणों, जैसे- सहयोग, संयम आदि का उदय होता है। इस पद्धति में सामाजिक क्रिया को महत्व दिया जाता है।
योजना पद्धति के स्वरूप या पद (Nature or Steps of Project Method)
योजना पद्धति के स्वरूप या पद निम्नवत् हैं-
(1) परिस्थिति उत्पन्न करना (Creating the Situation)- शिक्षक द्वारा परिस्थिति का निर्माण करना योजना विधि का प्रथम पद है। शिक्षा से विद्यार्थी के सामने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करना जिससे उसमें दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाली किसी समस्या को पूरा करने की रुचि उत्पन्न होती है जिससे वे स्वयं ही किसी समस्या को शिक्षक के सामने रखते हैं।
(2) योजना का चयन (Choosing the Project) – यह योजना पद्धति का दूसरा पद है। इसमें छात्र वैयक्तिक तथा सामूहिक रूप से अपनी-अपनी योजनाओं को शिक्षक के सामने रखते हैं। शिक्षक उन समस्याओं में कौन सी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, उसका चयन कर बालकों का मार्गदर्शन करता है। शिक्षक को यह भी ध्यान रखना होता है कि यह योजना धन, समय तथा साधनों की दृष्टि से मितव्ययी हो।
(3) योजना का नियोजन (Planning of Project) – किसी भी योजना की सफलता उसकी योजना पर निर्भर करती है। योजना को पूर्ण करने के लिए शिक्षक छात्र का मार्गदर्शन करते हैं। अतः शिक्षक को रुचि, योग्यता, क्षमता आदि के अनुरूप अलग-अलग रूप से उस योजना के कार्यों को छात्र को सौंप देना चाहिए।
(4) योजना को क्रियान्वित करना (Executing the Project)- यह चौथा पद है जो योजना को क्रियान्वित करता है। जब योजनाओं का विभाजन हो जाता है तो सभी विद्यार्थी अपने-अपने कार्य को प्रसन्नता से आरम्भ कर देते हैं। शिक्षक द्वारा उन्हें कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। योजना के क्रियान्वयन में छात्रों को योजना से सम्बन्धित सामग्री एकत्रित करना होता है। इसके लिए पुस्तकालय आदि स्थानों का भ्रमण किया जाता है।
(5) योजना का मूल्यांकन (Evaluating the Project) – विद्यार्थी द्वारा अपने कार्य को पूर्ण करने के पश्चात् यह निर्णय लिया जाता है कि उन्हें उस उद्देश्य की प्राप्ति हुई अथवा नहीं, जिसके कारण उन्होंने कार्य का संचालन किया। इस पद में सभी विद्यार्थी स्वतन्त्रतापूर्वक योजना चुनने, कार्यक्रम बनाने तथा योजना को किस प्रकार क्रियान्वित किया गया जैसे समस्त विवरणों को शिक्षक के समक्ष रखता है।
(6) योजना की लिखित रिपोर्ट (Written Report of the Project) – यह अन्तिम पद है। यह पद एक महत्वपूर्ण पद है जिसमें सभी विद्यार्थियों के द्वारा अपनी-अपनी प्रोजेक्ट पुस्तक में मूल्यांकन क्रिया को पूर्ण किया जाता है। इसमें योजना का चुनाव, नियोजन, तर्क-वितर्क, कार्य-विभाजन, प्रयोग में आने वाली पुस्तकें तथा सामग्री, मार्ग में आने वाली बाधा और अनुभव सम्मिलित किए जाते हैं।
योजना विधि के गुण (Merits of Project Method)
योजना विधि के निम्नलिखित गुण हैं-
(1) यह प्रणाली मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
(2) छात्रों को अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने की एवं चुनने की स्वतन्त्रता होती है।
(3) प्रोजेक्ट बच्चों के वर्तमान एवं भविष्य की क्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं।
(4) इस प्रणाली में स्वतन्त्र पाठ्य विषयों और क्रियाओं को प्रोजेक्ट के माध्यम से इकाई के रूप में विकसित किया जाता है।
(5) इस प्रणाली में बच्चे किसी प्रोजेक्ट को सामूहिक रूप से पूरा करते हैं।
(6) प्रोजेक्ट को पूरा करने और चुनने में बच्चों को पूरी स्वतन्त्रता होती है।
(7) इस प्रणाली में विद्यालय और घर में सहयोग बना रहता है।
योजना विधि के दोष (Demerits of Project Method)
योजना विधि के दोषों को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
(1) इस प्रणाली को बड़े समूह के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता।
(2) शैक्षिक महत्व के प्रोजेक्ट छाँटने में बड़ी कठिनाई होती है।
(3) इस प्रणाली में पाठ्यचर्या के सभी विषयों का शिक्षण असम्भव है।
(4) इस प्रणाली में क्रमबद्ध शिक्षण असम्भव है।
(5) इस प्रणाली में कामचोरी के अवसर अधिक होते हैं।
(6) इस प्रणाली में समय एवं शक्ति का दुरूपयोग होता है।
(7) इस प्रणाली में प्रोजेक्ट कार्य आसानी से पूरा नहीं होता है।
(8) मूल्यांकन कार्य कठिन होता है।
योजना विधि को सफल बनाने हेतु सुझाव (Suggestions for the Success of Project Method)
इस विधि के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं-
(1) इस विधि में विद्यार्थियों की शारीरिक श्रम के प्रति निष्ठा उत्पन्न हो सके, इसके लिए अध्यापक को प्रयत्नशील रहना आवश्यक है।
(2) इस विधि में अध्यापकों को छात्रों द्वारा योजना का चुनाव करते समय उसके शैक्षिक महत्व एवं सोद्देश्यता पर ध्यान देना चाहिए।
(3) इस विधि की सफलता के लिए पूर्व नियोजन होना आवश्यक हैं।
(4) इस योजना के क्रियान्वयन में शिक्षक का पथ-प्रदर्शन विद्यार्थियों को समय-समय पर मिलना चाहिए जिससे शिक्षक का व्यक्तित्व और ज्ञान निरर्थक न रहे।
(5) इस विधि में छात्रों के द्वारा की जाने वाली क्रिया कम खर्चीली होनी चाहिए।
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