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रुचि का अर्थ
रुचि का अर्थ- आमतौर पर ‘रुचि’ को ‘मनोरंजन’ के रूप में लिया जाता है। यह बात ठीक है कि जिस पदार्थ में हमारी रुचि होती है, वह पदार्थ हमें अच्छा लगता है परन्तु सर्वथा ऐसा नहीं होता, उदाहरण के रूप, हमारा घनिष्ठ मित्र बीमार हो जाता है। हमारी उसमें रुचि है। हम उसका हाल जानना चाहते हैं। यहां ‘रुचि’ शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया गया है। इसका मनोरंजन से कोई संबंध नहीं।
रुचि की परिभाषा
उपर्युक्त आधार पर हम रुचि के संबंध में ये दो बातें कह सकते हैं-
1. “ रुचि एक भावात्मक क्रिया है, जो अवधान को जागृत कर, उसे स्थिर रखती है।”
2. “ रुचि एक मानसिक क्रिया है, जिसके कारण कोई वस्तु अच्छी या बुरी लगती है। “
भाटिया के अनुसार – ” रुचि से अभिप्राय है-अंतर करना। हमें वस्तुओं में इसलिए रुचि होती है क्योंकि हमारे लिए उनमें और दूसरी वस्तुओं में अंतर होता है। “
ड्रेवर रुचि को ‘गतिशील संस्कार’ के रूप में ग्रहण करता है।
क्रो तथा क्रो का कथन है कि “रुचि वह प्रेरक शक्ति है, जो किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए अनुप्रेरित करती है।”
रुचि के प्रकार
रुचि का विभाजन मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार से किया है, कुछ विद्वानों का ऐसा मत है कि रुचियों का संबंध आदतों से होता है। किसी वस्तु या क्रिया में रुचि लेने का अर्थ उस वस्तु या क्रिया में आत्मसात् होता है। डीवी (Dewey) के अनुसार – “क्रिया के द्वारा किसी के साथ आत्मसात् करने का प्रयत्न ही वास्तविक रुचि है। “
रुचियों के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. जन्मजात रूचि (Inborn interest)- जन्मजात रुचियों के अभिप्राय मूल प्रवृत्तियों से है। बालकों में खेलने-खाने, हंसने आदि की प्रवृत्तियाँ होती है। माता की रुचि संतान में, भूखे व्यक्ति की रुचि भोजन में, बालक की रुचि खेल में होती है। ऐसी रुचियों का जन्मजात रुचि कहते हैं।
2. अर्जित रुचि (Derived interest)- भाव संवेदना से उत्पन्न रुचि को अर्जित रुचि कहते हैं। इस रुचि के कारण व्यक्ति किसी विशिष्ट कार्य मे कौशल अर्जित कहलाता है। घड़ी सयाज घड़ी की चाल देखते हैं। यह जान लेता है कि गड़बड़ कहां है? इसी प्रकार कुशल अध्यापक कुछ क्षणों में यह जान लेता है कि बालक में कमी कहाँ हैं?
3. अभिव्यक्ति रुचि (Expressive Interest)- अभिव्यक्ति रुचियों को व्यक्ति पूछकर ज्ञात किया जाता है। इसमें व्यक्ति किसी वस्तु, प्रक्रिया, व्यक्ति आदि के संबंध में से अपने विचार व्यक्त करता हैं इसमें व्यक्ति से प्रश्न पूछा जाता है कि क्या वह अमुक क्रिया, व्यक्ति या वस्तु में रुचिशील है अथवा नहीं तथा इसके प्रत्युत्तर में व्यक्ति को उसके प्रति अपनी पसंद रुचि के रूप में अभिव्यक्त करनी होती है। इस प्रकार की रुचियां बहुधा प्रायः वयस्कों में स्थायी रूप से होती है। इस प्रकार की रुचियां बहुधा अविश्वसनीय होती है क्योंकि इसमें व्यक्ति अपने वास्तविक विचारों को छिपाकर गलत उत्तर दे देता है। इस प्रकार की रुचि को केवल छोटे एवं अनपढ़ लोगों पर ही सफलतापूर्वक ज्ञात किया जा सकता है।
4. प्रदर्शित रुचि (Manifested Interest)- प्रदर्शित रुचि को शब्दों द्वारा व्यक्त न करके व्यक्ति के व्यवहार का निरीक्षण करके ज्ञात किया जाता है। जब कोई व्यक्ति नित्य सिनेमा जाता है, हारमोनियम बजाता है, प्रेम की बातें करता है, क्रिकेट का खेल खेलता है तथा विरोधी लिंग मित्रों के साथ क्लब जाता है आदि तो उसकी ऐसी ही क्रियाओं के निरीक्षण द्वारा उसकी वास्तविक रुचियों का प्रदर्शन होता है। इस प्रकार की रुचियां अधिकतर विश्वसनीय होती है, फिर भी कुछ विचारकों के अनुसार ये रुचियां भी वास्तविक नहीं होती है क्योंकि कभी-कभी इन रुचियों के प्रेरक भिन्न-भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, तलत को हारमोनियम में रुचि इसलिए है क्योंकि उसकी सहेली निशा उसमें रुचिशील है। कुछ समय बाद दूसरी सहेली यासमीन की रुचि फिल्म देखने को है तो वह भी अपनी रुचि फिल्म के प्रति बना लेती है। इस प्रकार से तलत की अपनी प्रदर्शित रुचि कुछ भी नहीं है बल्कि वह तो अन्य बालिकाओं के अनुसार अपनी रुचि प्रदर्शित करती है।
5. परीक्षित रुचि (Tested interest) – जब हम यह मानकर चलते हैं कि अमुक व्यक्ति किसी विषय में इतना जानता है तथा वह उसी क्षेत्र में उपलब्धि परीक्षण के द्वारा भी उतने ही अंक प्राप्त कर लेता है तो हम कह सकते हैं कि वह उस विषय में रुचिशील है। उदाहरणार्थ, विनोद को संगीत में उपलब्धि परीक्षण दिया गया, जिसमें उसने 80% अंक प्राप्त किये । अतएव इस परीक्षण के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि उसकी संगीत में रुचि अधिक है। शिक्षा के क्षेत्र में अधिकांशतः रुचियों को इसी प्रकार ज्ञात किया जा सकता है।
6. प्रपत्र रुचि (Inventoried Interest) – इस प्रकार की रुचि को मानकीकृत रुचि प्रपत्रों एवं रुचि-परीक्षणों के द्वारा ज्ञात किया जाता है। इनमें व्यक्ति को विश्वास क्रियाओं के समूहों में से कुछ का चयन करना होता है, जिनके माध्यम से उसकी रुचि को समझा जाता है।
बालकों में पाठ के प्रति रुचि कैसे उत्पन्न की जाये? (How to Arouse Interest of Children in the Lesson?)
पाठ को रोचक बनाने के लिए ये साधन काम में लाये जा सकते है-
1. विद्यार्थी बहुत समय तक किसी विषय पर अपना अवधान केन्द्रित नहीं कर सकते। इसलिए समयानुसार विषयों में परिवर्तन करते रहना चाहिये।
2. स्किनर तथा हैरीमन का कथन है कि अध्ययन की अवधि में बालकों में विभिन्न वस्तुओं, पशुओं, पक्षियों, मशीनों आदि में रुचि पैदा हो जाती है। अतः अध्यापक उन्हें भ्रमण के लिए ले जायें ताकि उनकी रुचियां तृप्त और विकसित हो सकें।
3. अध्यापक इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि पाठ्य-वस्तु का संबंध उन बातों से स्थापित किया जाये जिनमें छात्र रूचि रखते हों।
4. भाटिया दंपत्ति का कथन है कि “विभिन्नता रोचकता में वृद्धि करती है।” (Variety inicreases interst) इसलिए अध्यापक पाठ की विषय-वस्तु तक ही सीमित न रहे, वह पाठ संबंधी विभिन्न रोचक बातें भी बताये।
5. बालक पढ़ते-पढ़ते थक जाते हैं और उनका अवधान पाठ की ओर नहीं रहता । अतः अवकाश और विश्राम की पूरी व्यवस्था रहनी चाहिये। इस दिशा में मनोरंजन कार्य और पौष्टिक भोजन भी बड़े उपयोगी हैं।
6. विद्यार्थी उन्हीं तथ्यों के संबंध में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं जिनका संबंध उनके वातावरण से रहता है। इसलिए पढ़ाते समय विषय-वस्तु का संबंध बालक के दैनिक जीवन का वातावरण के साथ बराबर करते रहना चाहिये। इससे उसका अवधान पढ़ने में भी केन्द्रित होगा और वे आर्थिक ज्ञानार्जन भी कर सकेंगे।
7. यदि पाठ का संबंध किसी न किसी क्रिया से कर दिया जायेगा, तो पाठ बहुत रोचक बन जायेगा।
8. निरंतर मौखिक शिक्षण और अत्यधिक पुनरावृत्ति से पाठ नीरस हो जाता है। अतएव अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों का प्रयोग और निरीक्षण के अवसर प्रदान करें, ताकि वे कार्य में अधिक रुचि लें।
9. यदि बालक-बालिकाओं को पढ़ाते समय स्कूल दृश्य-श्रव्य उपकरणों (Concrete Audi-Visual Aids) का प्रयोग किया जायेगा तो पाठ बहुत ही रोचक बन जायेगा।
10. प्रत्येक बालक की खेल में रुचि होती है। यह रुचि जन्तमात हुआ करती है। इसलिए यथासंभव शिक्षा विधि का आधार, विशेष रूप से छोटे बालकों के लिए खेल होना चाहिये। खेल विधि से पाठ रोचक बन जाता है।
11. हंसराज भाटिया ने एक स्थान पर कहा है कि आयु के साथ-साथ रुचि परिवर्तन होता रहता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर विषय-वस्तु का आयोजन किया जाये।
12. प्रत्येक बालक में जिज्ञासा की भावना बड़े तीव्र रूप में पायी जाती है। इसलिए यदि पढ़ाते समय अध्यापक उसकी जिज्ञासा की मनोवृत्ति को जागृत और तृप्त करेगा तो बालकों का ध्यान पाठ की ओर आकर्षित होगा ।
13. बालक का अवधान पाठ की ओर केन्द्रित करने के लिए कुशाग्र बुद्धि बालकों और मंद बुद्धि बालकों के लिए अलग-अलग सीमा व्यवस्था होनी चाहिये। ‘टके सेर भाजी, टके सेर खा जा’ वाली बात नहीं होनी चाहिये।
14. बालकों को जो नवीन ज्ञान देना हो, उसका संबंध उसके पूर्व-ज्ञान से करना चाहिये। पूर्व ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान टिक सकता है। यह ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर’ (From Known to Unkown) सिद्धांत पर आधारित है। इससे बालक पाठ में खूब रुचि लेगें ।
15. जो प्रकरण कठिन और नीरस हो उन्हें सरल और रोचक ढंग से छात्र-छात्राओं के सामने प्रस्तुत करना चाहिये।
16. भाटिया महोदय ने एक स्थान पर लिखा है कि बालक पाठ में तभी रुचि लेते हैं, जब उन्हें पाठ के उद्देश्यों और उपयोगिता की जानकारी होती है। इसलिए अध्यापक को पाठ का प्रारंभ करते समय, इन दोनों बातों की जानकारी अवश्य करा देनी चाहिये।
17. कक्षा का वातावरण शांत होना चाहियें। शांत वातावरण में ही बालक-बालिकाओं का अवधान अच्छी प्रकार से स्थिर रह सकता है।
18. यदि अध्यापिका का छात्र-छात्राओं के प्रति स्नेह और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होगा, तो वह पाठ में अवश्य रुचि लेंगे।
19. समय-समय पर विद्यार्थियों को ध्यान एकाग्र कराने का अभ्यास कराना चाहिये। अध्यापक बालकों को कोई प्रसंग सुनाये। फिर कहे कि आंख बंद करके इस पर चिंतन करो। फिर 10-15 मिनट बाद आंखें खुलावार प्रश्न करें।
20. अध्यापक और विद्यार्थी इन दोनों के सामने पाठ्य-वस्तु तथा कक्षा-कार्य की मूक निश्चित योजना होनी चाहिये। इससे विद्यार्थी अध्ययन में रुचि लेकर योजना को पूरा करने के लिए अग्रसर होंगे।
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