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सभ्यता का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, सभ्यता एवं संस्कृति में अन्तर, संस्कृति एवं शिक्षा में सम्बन्ध

सभ्यता का अर्थ
सभ्यता का अर्थ

सभ्यता का अर्थ (sabhyata kise kahate hain)

सभ्यता का अर्थ समाज के उस सम्पूर्ण तन्त्र एवं संगठन है जो मनुष्य को अपने जीवन की दशाओं को नियन्त्रित करने की प्रेरणा देती है। मनुष्य द्वारा अर्जित समस्त अनुभव इनके द्वारा किए जाने वाली क्रियाएँ ही हैं जिन्हें या तो वे बनाते हैं या करते हैं। ये समस्त क्रियाएँ संस्कृति होती हैं या सभ्यता होती हैं। संस्कृति का स्वरूप व्यापक होता है एवं सभ्यता का स्वरूप संकुचित होता है। अर्थात् एक संस्कृति में कई सभ्यताएँ हो सकती हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं सभ्यता निश्चित रूप से संस्कृति होती है किन्तु समस्त संस्कृति सभ्यता नहीं होती है। समाज में उपस्थित भौतिक, सामाजिक एवं तकनीकी प्रयासों की उन्नत अवस्थाओं को सभ्यता कहते हैं। सभ्यता की श्रेणी के अन्तर्गत वे सभी साधन आते हैं जो किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयुक्त किए जाते हैं। ये साधन उपयोगिता की दृष्टि से अत्यन्त मूल्यवान होते हैं। इन साधनों के अन्तर्गत् सारे भौतिक साधन आते हैं।

सभ्यता की परिभाषा (sabhyata ki paribhasha)

मैकाइवर और पेज के अनुसार, “सभ्यता से हमारा अभिप्राय, उस सम्पूर्ण तन्त्र और संगठन से है जो मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं पर नियन्त्रण करने के प्रयास में बनाया है।”

According to MacIver and Page, “By civilisation, we mean the whole mechanism and organisation which man has devised in his endeavour to control the conditions of his life. “

अतः हम कह सकते हैं कि मनुष्य की बाह्य अभिरुचि के विकास एवं उसकी अभिव्यक्ति को सभ्यता कहते हैं। सभ्यता के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दु आते हैं-

(1) के अन्तर्गत यातायात के साधन आते हैं।

(2) ऊर्जा के उचित उपयोग भी सभ्यता के अन्तर्गत आते हैं।

(3) वस्त्रों के विभिन्न प्रकार, शारीरिक सजावट एवं आभूषण इत्यादि।

(4) कृषि उत्पादन की समस्त विधियाँ सभ्यता के अन्तर्गत आती हैं।

(5) सभ्यता के अन्तर्गत समाज की आर्थिक दशाएँ, वाणिज्य, व्यापार व्यवस्था, बाजार, पूँजी उत्पादन के साधन इत्यादि आते हैं।

(6) घरों के प्रकार एवं उनके निर्माण की विधि सभ्यता के अन्तर्गत आती है।

(7) भोजन बनाने की विधि एवं उसे परोसने एवं खाने का तरीका भी सभ्यता के अन्तर्गत् ही आता है।

(8) भाषा का प्रयोग, प्रकाशन एवं इनके प्रचार-प्रसार की विधियाँ ।

(9) अस्त्रों के प्रकार एवं प्रयोग।

(10) सभ्यता के अन्तर्गत संगठित धर्म एवं उसकी व्यवस्था की व्याख्या की जाती है।

(11) मनोरंजन के विभिन्न साधन भी सभ्यता के अन्तर्गत आते हैं।

(12) मानव की व्यक्तिगत स्वच्छता एवं विधियों की जानकारी ।

(13) उत्सव मनाने की विधि।

(14) विभिन्न मांगलिक कार्यक्रमों को आयोजित करने के कारण एवं विधि।

(15) विभिन्न प्रकार के सामाजिक घटकों की जानकारी जैसे- परिवार, विद्यालय इत्यादि।

सभ्यता की विशेषता

1-इसमें उपयोगिता निहित होती है

सिविलाइजेसन के तहत केवल उन्हीं वस्तुओं को शामिल किया जा सकता है। जिनसे मानव समाज को कुछ ना कुछ बेनिफिट अवशय हो रहा हो।

2-साधन के रूप में सभ्यता

इससे हमारा मतलब यह है कि इसके माध्यम से ही सामाजिक सदस्य के रूप में मानव अपनी जरूरतें पूरी करता है। इसीलिए सिविलाइजेशन को हम मानव की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला माध्यम अथवा साधन कह सकते हैं।

3-सभ्यता परिवर्तनशील है

मानवीय जीवन के दो पक्षों से सभ्यता का सम्बन्ध मानव के जीवन के बाहरी पक्ष से होता है। इसी के कारण सभ्यता में बदलाव निश्चित समय पर होता रहता है ।

जब जब मानव की जरूरतें बढ़ती है, वह जरूरतों को पूरा करने के लिए नए नए साधनों की खोज करता रहता है। जिसके परिणाम स्वरूप सभ्यता में नए नए तत्वों का समावेश होता रहता है, अतः कहा जा सकता है कि सिविलाइजेसन परिवर्तनशील है।

4-सभ्यता में प्रगतिशील का गुण होता है

सिविलाइजेसन का एक विशेष गुण होता है, वह है (CIVILIZATION) सभ्यता कभी पीछे को नहीं आती है। वह हमेशा आगे को ही अग्रसारित होती रहती है। जिसको एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है,जिस प्रकार से छोटे चौपाया वाहन के बाद हवाई जहाज का विकास हुआ है, ना कि मोटरसाइकिल का।

5-सभ्यता का प्रसार सरलता से होता है।

जैसा हमने बताया है कि सभ्यता में उपयोगिता की प्रवृत्ति होती है। इसीलिए सभ्यता की उपयोगिता से प्रेरित होकर अक्सर लोग इसे जल्दी ग्रहण करते हैं, इसी कारण से जो मशीन यूरोपीय या अमेरिका में विकसित होती है। वह कुछ समय के पश्चात विकासशील राष्ट्रों के द्वारा भी अपनाई जा सकती है।

सभ्यता एवं संस्कृति में अन्तर (Differences between Civilisation and Culture)

सभ्यता (Civilisation) संस्कृति (Culture)
(1) यह एक वस्तु है जो हमारे पास है। (1) यह एक गुण है जो हमारे अन्दर निहित है।
(2) सभ्यता में उपयोगिता पर बल दिया जाता है। (2) संस्कृति में मूल्यों पर बल दिया जाता है।
(3) सभ्यता के अन्दर समस्त भौतिक पदार्थ आते हैं। (3) संस्कृति के अन्तर्गत कला एवं कौशल आते हैं।
(4) इसकी अवधि संकुचित होती है। (4) यह सतत् रहने वाली है।
(5) इसकी सामग्री नष्ट हो सकती है। (5) इसकी सामग्री निरन्तर गतिशील है।
(6) इसका सम्बन्ध शारीरिक उपयोगिता से है। (6) इसका सम्बन्ध आत्मिक है।
(7) सभ्यता के विकास को निर्धारित मापदण्डों के माध्यम से मापा जा सकता है। (7) संस्कृति को मापने का कोई सार्वभौमिक पैमाना सुनिश्चित नहीं है।
(8) सभ्यता हमारी बाह्य व्यवस्था एवं साधनों को अभिव्यक्त करती है। (8) संस्कृति हमारी आन्तरिक प्रकृति एवं मूल्यों को व्यक्त करती है।
(9) सभ्यता का विकास तीव्र एवं फैलाव सामान्य रूप से होता है। (9) संस्कृति का विस्तार अत्यन्त धीमा एवं जटिल होता है।
(10) हमारी सभ्यता वही है जिसका उपयोग हम कर सकते हैं अर्थात् साधन। (10) हम जो हैं वही हमारी संस्कृति है।

संस्कृति एवं शिक्षा में सम्बन्ध (Relationship between Culture and Education)

किसी भी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति पर पूरी तरह से आधारित होती है। शिक्षा की सामग्री का निर्माण संस्कृति की सामग्री से ही होता है। बिना संस्कृति के शिक्षा का कोई भी महत्व नहीं है। समाज की संस्कृति के ही कारण शिक्षा में समाज की विशेषता होती है। प्रत्येक समाज अपनी शिक्षा की व्यवस्था अपनी संस्कृति के अनुरूप ही करता है। संस्कृति की सहायता से ही शिक्षा अपने उद्देश्य निर्धारित करती हैं एवं उनकी पूर्ति के लिए स्वयं संस्कृति की सहायता लेती है।

ब्रामेल्ड के अनुसार, “संस्कृति की सामग्री से ही शिक्षा का प्रत्यक्ष रूप से निर्माण होता है और यही सामग्री शिक्षा को न केवल उसके स्वयं के उपकरण वरन् उसके अस्तित्व का कारण भी प्रदान करती हैं।”

संस्कृति एवं शिक्षा के सम्बन्ध को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-

(1) संस्कृति की निरन्तरता में शिक्षा की भूमिका- किसी भी देश के इतिहास का विशुद्ध सार ही उस देश की संस्कृति कहलाता है। संस्कृति के अन्तर्गत उस देश की पुरानी मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों का सार आता है जिन्हें संस्कृति स्वयं में समाहित रखती है। यदि संस्कृति का विनाश होता है तो निश्चित रूप से उस देश का विनाश होगा। शिक्षा के माध्यम से ही संस्कृति अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को निरन्तरता प्रदान करती है। शिक्षा ही संस्कृति को सम्भालकर निरन्तर जीवित रखती है।

स्पेन्स रिपोर्ट के अनुसार, “विद्यालय वह साधन प्रदान करते हैं जिनके द्वारा राष्ट्र का जीवन अखण्ड रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।”

(2) संस्कृति के हस्तान्तरण में शिक्षा की भूमिका- शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में संस्कृति को सीखकर उसे अगली पीढ़ी में हस्तान्तरित करता है। संस्कृति का हस्तान्तरण शिक्षा के अभाव में सम्भव नहीं है। संस्कृति के हस्तान्तरण में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य अज्ञात रूप से संस्कृति में समाहित अनेक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को सीखता है एवं संस्कृति से सम्बन्धित अन्य बातें भी मनुष्य शिक्षा के माध्यम से ही सीखता है।

ओटावे के अनुसार, “शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों को उसके तरुण और को हस्तान्तरित करना है।”

(3) संस्कृति के परिवर्तन में शिक्षा की भूमिका- बालक अपनी आयु में वृद्धि के साथ-साथ अपनी संस्कृति के नियम, आदतों एवं रीति-रिवाजों को सीखता एवं समझता है। बालक ये सब रीति-रिवाज, परम्पराएँ एवं नियमों को समाज (अध्यापक, पारिवारिक सदस्य, माता-पिता, आस-पड़ोस के लोगों) से सीखता है। इस कारण बालक के चेतन एवं अचेतन मन में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। शिक्षा की उपयोगिता संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में तभी सार्थक होगी जब अध्यापक द्वारा शिक्षण का कार्य एक निश्चित योजना बना कर बालकों को संस्कृति का ज्ञान दिया जाए।

बट्स (Butts) के अनुसार, “जब कभी एक व्यक्ति या समूह जान-बूझ कर व्यवहार को निर्देशित करने का प्रयत्न करता है, तभी शिक्षा विद्यमान रहती है। इस प्रकार शिक्षा उन प्रक्रियाओं में जिनके द्वारा संस्कृति हस्तान्तरित और परिवर्तित की जाती है, बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण कार्य करती है।”

(4) व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास में शिक्षा की भूमिका- हमें अपनी संस्कृति के विकास की प्रेरणा अपने उन शूरवीरों एवं महान हस्तियों से प्रेरित होकर मिलती हैं जिनके विषय में हमने इतिहास में पढ़ा हैं। हमारे कला, साहित्य, संविधान एवं इतिहास पर हमारी संस्कृति का गहरा प्रभाव हैं। हमारे द्वारा अर्जित ज्ञान जो कि आदिकाल से ही संचित किया गया है वह सब हमारी संस्कृति का ही अंग है।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अनुसार, “मानवता की स्वाभाविक झलक सांस्कृ तिक विकास की विधि है। जिनमें स्वयं महानता नहीं है, उन्हें (इतिहास का अध्ययन करके) महान शक्तियों की संगत में रहना चाहिए।”

(5) व्यक्तित्व के विकास में सहयोग- बालक के व्यक्तित्व का विकास शिक्षा के मूल उद्देश्यों में से एक है किन्तु शिक्षा इस मूल उद्देश्य की पूर्ति संस्कृति की सहायता के बिना नहीं कर सकती है। शिक्षा को संस्कृति से अनेक ऐसे उपकरण प्राप्त होते हैं जो बालक की चारित्रिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा आध्यात्मिक बुद्धि का विकास करने में सहायक होती है।

ओटावे के अनुसार, “जिस संस्कृति में व्यक्तित्व का विकास होता है उसके द्वारा उसका आंशिक निर्माण किया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित होने के कारण शिक्षा, संस्कृति पर आश्रित रहती है।”

(6) शिक्षा में संस्कृति का समावेश- बिना संस्कृति के उचित शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संस्कृति का समावेश शिक्षा में होना अति आवश्यक है। जिस शिक्षा में संस्कृति का समावेश नहीं होगा वह शिक्षा अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल नहीं हो सकती। शिक्षा के माध्यम से बालक की अन्तर्निहित शक्तियों एवं योग्यताओं को विकसित किया जाता है।

हुमायूँ कबीर के कथनानुसार, “यही कारण है कि आजकल यह बात सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है कि कला, प्रसाधन या सजावट की कोई वस्तु नहीं है वरन् बालकों के शैक्षिक विकास के लिए अति आवश्यक तत्व है।”

समाज के सम्पूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति के अन्तर्गत समाज के प्रत्येक पहलू (नियम, रहन-सहन, रीति-रिवाज, आचार-विचार इत्यादि) के प्रतिमान आ जाते हैं। व्यक्ति इन प्रतिमानों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सीखता रहता है।

बट्स के अनुसार, “माता-पिता, परिवार, गिरजाघर, सरकार और अधिकांश प्रकार की संगठित संस्थाएँ सोच-समझकर छोटों और बड़ों के व्यवसाय को समान रूप से प्रभावित करके शिक्षा देने का प्रयास करती हैं। इस प्रकार, शिक्षा सदैव और सर्वत्र मानव संस्कृति का अभिन्न अंग होती है।

उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शिक्षा संस्कृति का अभिन्न अंग है तथा दोनों में अटूट सम्बन्ध होता हैं।

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shubham yadav

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