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परामर्श के लक्ष्यों के निर्धारण (Determing the Goals of Counelling)
परामर्श के दर्शन के आधार पर ही परामर्श के लक्ष्यों का निर्धारण होता है। आधुनिक युग में साध्य के स्थान पर साधनों की चर्चा अपेक्षाकृत अधिक होती है। परामर्श की तकनीकों, उसकी नवीन कार्य-प्रणालियों आदि के निर्धारण पर जितना बल दिया जा रहा है उतना उसके लक्ष्य एवं मूल्य निर्धारण की ओर नहीं। वस्तुतः साधनों का निर्धारण या चयन साध्य की दृष्टि से किया जाता है।
प्रथम बात महत्त्वपूर्ण है- साध्य की उपेक्षा कर साधनों पर ही ध्यान केन्द्रित रखना अनुचित है। परामर्श में व्यक्ति की आवश्यकताओं एवं समस्याओं के स्वरूप निर्धारण के लिए अनेकानेक परीक्षणों एवं तकनीकों का विकास किया गया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आवश्यकताओं का निर्धारण वांछनीय है किन्तु व्यक्ति की वास्तविक प्रकृति एवं जीवनोद्देश्य को ध्यान में रखकर ही उन आवश्यकताओं एवं समस्याओं के समाधान का यत्न परामर्शदाता को करना चाहिए। साधन और साध्य की अभिन्नता एवं दोनों की अपरिहार्यता पर के विचार द्रष्टव्य हैं-“किसी भी मंजिल का बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय उस तक ले जाने वाले मार्ग से अलग हटकर नहीं किया जा सकता। बिना मार्ग की बाधाओं एवं लक्ष्य की ओर अग्रसर करने वाला साधनों के लक्ष्यों को प्रेरक अथवा कार्य निर्देशक लक्ष्य नहीं माना जा सकता। यदि विस्तार से कहा जाय तो साधनों से अलग साध्य खोखले हैं। लक्ष्य हल्की योजना एवं प्रयोजन के रूप में प्रारम्भ का निर्धारण कर सकते हैं। यह योजना एवं प्रयोजन यदि साधनों को खोज की ओर ले जाते हैं तो उपयोगी हैं। “
जॉन डीवी और उनके साथियों ने साधन और साध्य का समान महत्त्व प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार लक्ष्य आरम्भ बिन्दुओं की स्थापना करते हैं जबकि साधन लक्ष्य की पूर्णता तक ले जाने का रास्ता प्रस्तुत करते हैं। परामर्श में साधन और साध्य किसी एक को अधिक महत्त्व देना अनुचित है।
लक्ष्यों के निर्धारण में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि परामर्श के लक्ष्यों को जीवन के लक्ष्यों की सापेक्षता में निर्धारित किया जाय। प्रत्येक समाज अथवा धर्म में जीवन के लक्ष्यों की स्पष्ट विवेचना मिलती है। उदाहरण के लिए, हिन्दू धर्म में जीवन के चार पुरुषार्थों को जीवन का प्रात्यव्य स्वीकार किया गया है। ये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। भारतीय चिन्तन पद्धति सामान्यतः व्यापक एवं समन्वयात्मक रही है। इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के साधनों का निर्देश भी पुरुषार्थो के अन्तर्गत ही किया गया है। इसी प्रकार बौद्ध, जैन, ईसाई आदि सभी मतों में जीवन के लक्ष्यों की स्पष्ट व्याख्या की गयी है। समाज एवं धर्मगत जीवन के लक्ष्यों को दृष्टि में रखकर ही परामर्श के लक्ष्यों को निश्चित किया जाय, यद्यपि इसका अभिप्राय प्रतिबद्धता से नहीं हैं लेखक के विचार से जीवन के लक्ष्यों और परामर्श के लक्ष्यों में विरोध न होकर सामंजस्य होनी चाहिए।
परामर्श का लक्ष्य निर्धारित करते समय तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि परामर्श का लक्ष्य व्यक्ति के ‘समग्र व्यक्तित्व’ का विकास होना चाहिए। परामर्श का सम्बन्ध ‘सम्पूर्ण ‘मनुष्य’ से हो, न कि उसके जीवन के पक्ष विशेष से। आजकल मनुष्य के व्यवहार एवं उसके जीवन के वस्तुगत अध्ययन पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जा रहा है।
फल यह होता है कि मनुष्य को जो आध्यात्मिक स्वरूप है तथा जीवन के जो ऊँचे मूल्य हैं उनकी उपेक्षा होती जाती है। यर्थार्थ के नाम पर अध्ययन की वस्तुगतता पर अपना ध्यान केन्द्रित करने वाले परामर्शदता का कार्य तक तब प्रकृति तथा आध्यात्मिक सन्दर्भों से कटकर देखता रहेगा। व्यक्ति विभिन्न व्यवहारों एवं तत्वों का योग नहीं, वह एक जटिल मिश्रण है और परामर्शदाता को इस तथ्य को अपने सम्मुख रखना चाहिए।
पश्चिम में आधुनिकता एवं अणुवाद की जो तीव्र लहर आयी थी उसका वेग अब हल्का पड़ रहा है। यह अनुभव किया जाने लगा है कि मनुष्य जीवन को भौतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का सामंजस्य आवश्यक है, उसके बिना उसका सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं। आज की शिक्षा भी व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं नैतिक सभी लक्ष्य मानकर चल रही है। परामर्श के साध्य और साधनों में भी व्यक्तित्व की यह सम्पूर्णता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है।
इस प्रकार परामर्श को दर्शन के परामर्शदाता को व्यक्ति में जीवन मूल्यों के प्रति उचित दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता प्रदान करता है। इन जीवन मूल्यों के द्वारा ही मानव मात्र के प्रति सद्भावना एवं पारस्परिक सम्मान को उत्पन्न किया जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि परामर्श का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन के श्रेष्ठतम धरातल पर पहुँचने में सहायता करना है।
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