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किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Nature of Education in Adolescence)
किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप- किशोरावस्था को परिवर्तनों का काल माना जाता है। किशोरावस्था में बालक दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हमेशा असाधारण कार्य करने का प्रयत्न करता है। ऐसे कार्यों में सफलता उसे प्रोत्साहित करती है लेकिन असफल होने पर उसे अपना जीवन सारहीन लगने लगता है। इस अवस्था को चरित्र-निर्माण की नींव कहा जाता है।
इसलिए बालक को जीवनोपयोगी सार्थक शिक्षा प्रदान करने की बेहद आवश्यकता होती है। किशोरावस्था में तीव्र शारीरिक विकास होने के कारण स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देना बहुत ही आवश्यक होता है। पाठशाला (School या शाला (House) में स्वास्थ्य की उचित देखभाल, खेलकूद, व्यायाम, शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा, चिकित्सा शिविर आदि की व्यवस्था होनी चाहिए। किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप को निम्न प्रकार से दर्शाया गया है-
(1) शारीरिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Physical Development) – इस उम्र में बालक एवं बालिकाओं के शरीर में विभिन्न प्रकार के लिंग संबंधी शारीरिक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। अनभिज्ञता के कारण बहुत से किशोर यौन संबंधी समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। ऐसे में पाठशाला में लिंग भेद एवं यौन संबंधी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। किशोरावस्था जीवन दर्शन का आधार है। अतः बालक को जीवनोपयोगी सैद्धान्तिक व व्यवहारिक ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
(2) धार्मिक और नैतिक शिक्षा (Religious and Moral Education)- इस अवस्था में कई बालक दुराचारी हो जाते हैं। उनके लिए समाज के मान्य मूल्यों के अनुसार व्यवहार करने वाली नैतिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। गलत आचरण करने पर बालक को दंड देना भी आवश्यक है। कोठारी कमीशन ने आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का ज्ञान प्रदान करने के लिए जोर दिया है।
(3) आत्मनिर्भरता की शिक्षा (Education of Self- Reliance) – किशोरावस्था में बालक शीघ्र ही आत्म-निर्भर होने की इच्छा रखता है। उसे उपयुक्त व्यवसाय के चयन हेतु व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
(4) व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर शिक्षा (Education on the basis of individual Differences) – बालकों में विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है। प्रायः यह देखा गया है कि कई बालक विकास की दर में पिछड़ जाते हैं । ऐसे बालकों के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए।
(5) संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा (Education for Emotional Development)–किशोरावस्था में संवेग अपने चरम पर होते हैं । इस उम्र में बालक संवेगों से संघर्ष करता रहता है। बालकों को संवेगों पर नियंत्रण और उनका मार्गान्तीकरण करना सिखाना चाहिए। किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास के लिए उदार शिक्षा प्रदान करनी चाहिए क्योंकि यह जीवन का एक नाजुक मोड़ होता है जहाँ पर मामूली सी लापरवाही व्यक्ति के जीवन भर के लिए एक अभिशाप बन सकती है।
(6) रचनात्मक विकास के लिए शिक्षा (Education for Creative Development)- किशोरावस्था में बालकों में अभिनय करने, भाषण देने तथा लेख लिखने का सहज रुचि होती है। इसके लिए बालकों को विज्ञान, कला, साहित्य, संगीत जैसे विषयों का रचनात्मक ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
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