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बाल्यावस्था के अन्तर्गत शिक्षण की विभिन्न विधियाँ

बाल्यावस्था के अन्तर्गत शिक्षण की विभिन्न विधियाँ
बाल्यावस्था के अन्तर्गत शिक्षण की विभिन्न विधियाँ

बाल्यावस्था के अन्तर्गत शिक्षण की विभिन्न विधियाँ

बाल्यावस्था के अन्तर्गत शिक्षण की विभिन्न विधियाँ- बाल्यावस्था के अन्तर्गत निम्न विधियों का अध्ययन किया जा सकता है-

(i) बहिर्दर्शन या प्रेक्षण या निरीक्षण या अवलोकन विधि, (ii) साक्षात्कार विधि, (iii) गाथा वर्णन विधि, (iv) कहानी – कथन विधि, (v) चिन्तनशील जर्नल।

बहिदर्शन या प्रेक्षण या निरीक्षण या अवलोकन विधि (Extrospection or observation method)

इस विधि में अध्ययनकर्ता व्यक्ति के व्यवहार और क्रियाओं का निरीक्षण अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर करता है। इसमें बाह्य रूप से जो कुछ स्पष्ट दिखाई देता है उसका निरीक्षण किया जाता है और उसी के आधार पर उसकी मानसिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। व्यक्ति के व्यवहार, क्रियाओं या प्रतिक्रियाओं का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करके उसकी मानसिक अवस्था का पता लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति को मुस्कुराता देखकर हम जान लेते हैं कि वह प्रसन्न है, आँसू बहाते देखकर उसे दुखी समझ लेते है। बाह्य निरीक्षण द्वारा स्वाभाविक परिस्थितियों में होने वाले व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है । व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि को विशेष महत्व दिया है। उन्होंने अनुभूति के स्थान पर व्यवहार को मनोविज्ञान का अध्ययन विषय माना है और अन्तर्निरीक्षण के स्थान पर बाह्य निरीक्षण को मनोविज्ञान की विधि स्वीकार किया। उनके अनुसार अनुभूति वैयक्तिक और आत्मगत होती है। इसके विपरीत व्यक्ति के बाह्य व्यवहारों को सरलतापूर्वक देखा और समझा जा सकता है। उसके व्यवहार को देखकर मानसिक अवस्था की जानकारी हो जाती है। उनके अनुसार व्यवहारों के अध्ययन के आधार पर प्राप्त निष्कर्ष अधिक वैज्ञानिक होगा।

बहिदर्शन या निरीक्षण की अवस्थाएँ (Stages of Observation)

निरीक्षण पद्धति निम्नलिखित चार अवस्थाओं में पूर्ण होती है-

अवस्था I (Stage I)- दूसरों के व्यवहार का सही-सही निरीक्षण करना- किसी व्यक्ति की मानसिक दशा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष व्यवहार का सावधानीपूर्वक सही-सही निरीक्षण किया जाए। इसलिए इस पद्धति में सर्वप्रथम उस व्यक्ति के व्यवहार का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करते हैं जिसकी मानसिक दशा का पता लगाना होता है।

अवस्था II (Stage II)-प्रयोज्य के व्यवहार का लेखा तैयार करना- व्यक्ति के व्यवहारों का निरीक्षण करने के पश्चात् उनका सही-सही लेखा तैयार करते हैं।

अवस्था III (Stage III)-प्रेक्षित व्यवहारों की व्याख्या और विश्लेषण करना – इस सोपान में अध्ययनकर्ता अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर व्यक्ति के व्यवहारों को विश्लेषित कर उनकी व्याख्या करता है और उसकी मानसिक दशा का अनुमान लगा लेता है। उदाहरणार्थ-यदि कोई व्यक्ति मुस्कुरा रहा है तो पूर्व अनुभव के आधार पर उसके प्रफुल्ल होने का अनुमान लगाया जाता है।

अवस्था IV (Stage IV)- सामान्यीकरण करना- इस पद्धति की अन्तिम अवस्था सामान्यीकरण है। एक ही मानसिक प्रक्रिया के लिए अनेक व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण, विश्लेषण और व्याख्या करके, सामान्य नियम निकाल लेते हैं। सामान्यीकरण वैज्ञानिक विधि की एक विशेषता है, इस प्रकर बहिर्दशन या निरीक्षण विधि को वैज्ञानिक कहना उचित ही होगा।

बहिर्दर्शन विधि के गुण (Merits of Extrospection Method)

(i) यह वस्तुनिष्ठ और अवैयक्तिक विधि है। इस विधि द्वारा वस्तुनिष्ठ रूप से व्यक्ति की मनोवृत्ति, अभिक्षमता, मानसिक योग्यता का प्रेक्षण कर एक वैध तथा विश्वसनीय निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।

(ii) इसमें अन्तर्प्रक्षण विश्वसनीयता ( Intro observe Reliability) अधिक होती है। अगर कई प्रेक्षक एक साथ मिलकर व्यक्ति की किसी अभिक्षमता प्रदर्शित करने वाले व्यवहारों का प्रेक्षण करते हैं, तो अक्सर काफी सहमति पाई जाती है जिससे इस विधि के परिणाम की वैधता तथा विश्वसनीयता अधिक बढ़ जाती हैं।

(iii) इस विधि में समय तथा श्रम दोनों की काफी बचत होती है, क्योंकि एक साथ ही प्रेक्षक कई व्यक्तियों की क्षमताओं, अभिरुचियों तथा मानसिक क्षमताओं का अध्ययन कर लेते हैं।

(iv) इस विधि द्वारा सामान्य व्यक्तियों की मानसिक क्षमता, व्यक्तित्व, अभिरुचि, चिन्तन आदि का तो अध्ययन किया ही जाता है, साथ ही साथ विशिष्ट लोगों (प्रतिभाशाली, मन्द-बुद्धि, शारीरिक रूप से विकलांग तथा अन्य दूसरी तरह के अपवादी व्यक्ति, जैसे- समस्यात्मक, अपराधी आदि) का भी अध्ययन सरलतापूर्वक संभव हो पाता है।

(v) इस विधि का एक अन्य गुण यह भी बताया गया है कि इसके द्वारा एक ही उम्र के बालक या बालिकाओं का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। प्रेक्षक बालक या बालिकाओं की मानसिक क्षमता, शारीरिक क्षमता, सामाजिक कौशल आदि का तुलनात्मक प्रेक्षण कर आसानी से एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।

साक्षात्कार विधि (Interview method)

साक्षात्कार दो व्यक्तियों के मध्य पायी जाने वाली एक दशा है जिसमें एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के अन्तर्गत दोनों व्यक्ति उत्तर- प्रति- उत्तर करते हैं। साक्षात्कार में अध्ययनकर्त्ता और उत्तरदाता दों पक्ष होते हैं। साक्षात्कार में अध्ययनकर्त्ता अपने आपको उत्तरदाता का निकटतम दिखाकर उसका विश्वास हासिल करता है, लेकिन आन्तरिक रूप से वह उत्तरदाता से किसी भी तरह प्रभावित नहीं होता, केवल वास्तविक तथ्यों का संग्रह करता है। इस दृष्टि से साक्षात्कार एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा अध्ययनकर्ता अनेक उत्तरदाताओं से उनके जीवन की आन्तरिक विशेषताओं को ज्ञात करने का प्रयत्न करता है।

सिन पाओ येंग के अनुसार, “साक्षात्कार क्षेत्र कार्य की एक विशेष प्रविधि है जिसका उपयोग किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के व्यवहार को देखने, उनके कथनों को लिखने तथा किसी समूह की क्रियाओं का अध्ययन करने के लिए किया जाता है ।

“The interview is a technique of field work which is used to watch the behaviour of an individual or individials, to record statement, to observe the concrete results of social or group interaction.” -Hsin Pao Yang

मनोविज्ञान व शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में दो प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग किया जाता है-

1. संरचित साक्षात्कार (Structured Interview) – संरचित साक्षात्कार वह साक्षात्कार होता है जिसमें पूछे जाने वाले प्रश्न पहले से ही निश्चित होते हैं और उनका क्रम भी पहल से ही निश्चित होता है।

2. असंरचित साक्षात्कार (Instructured Interview) – इसमें न तो पहले से प्रश्न निश्चित होते हैं और न उनका क्रम निश्चित होता है, प्रयोगकर्ता विषयी को दृष्टि में रखकर प्रश्न पूछने के लिए स्वतन्त्र होता है तथा उसकी अनुक्रिया के आधार पर प्रश्न पूछने के लिए स्वतन्त्र होता है।

साक्षात्कार विधि के गुण (Merits of Interview Method)

(i) साक्षात्कार प्रविधि का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें पूछे जाने वाली लगभग सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए जा सकते हैं।

(ii) ऐसे गोपनीय प्रश्न जिनका लिखित रूप में उत्तर देना सम्भव नहीं होता अथवा कुछ संकोच व लज्जा अनुभव होती है, उनके उत्तर साक्षात्कार के माध्यम से अच्छी तरह प्राप्त किए जा सकते हैं।

(iii) साक्षात्कार संख्या घटाई बढ़ाई जा सकती है।

(iv) साक्षात्कार में प्रश्नों का क्रम बदला जा सकता है।

(v) व्यक्ति विशेष के साथ तादात्म्य स्थापित कर उसके व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं का अच्छी तरह अध्ययन किया जा सकता है।

गाथा वर्णन विधि (Anecdotal method) “पूर्व अनुभव या व्यवहार का लेखा तैयार करना।”

इस विधि में व्यक्ति अपने किसी पूर्व अनुभव या व्यवहार का वर्णन करता है। मनोवैज्ञानिक उसे सुनकर एक लेखा (Record) तैयार करता है और उसके आधार पर अपने निष्कर्ष निकालता है । इस विधि का मुख्य दोष यह है कि व्यक्ति अपने पूर्व अनुभव या व्यवहार का ठीक-ठीक पुनःस्मरण नहीं कर पाता है। इसके अलावा वह उससे सम्बन्धित कुछ बातों को भूल जाता है और कुछ को अपनी ओर से जोड़ देता है। इसलिए इस विधि को अविश्वसनीय बताते हुए स्किनर ने लिखा है-“गाथा वर्णन विधि की आत्मनिष्ठता के कारण इसके परिणाम पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।”

“Because of the subjectiveness of the anecdotal advice, the result cannot be relied upon.” -Skinner (A-p. 9)

गाथा वर्णन विधि आत्मगत (Subjective) होने के कारण विश्वसनीय नहीं है। इसका उपयोग पूरक विधि के रूप में किया जाता है।

कहानी-कथन विधि (Narrative Method)

कहानी-कथन से तात्पर्य है-कहानी कहना या कहानी सुनाना। कहानी कहते समय विषयवस्तु के सूक्ष्म तथा जटिल अंशों को इतना सरल बनाया जाता है कि कक्षा के सभी बालकों को वे स्पष्ट हो जाते हैं।

कहानी – कथन प्रविधि छोटे बालकों के शिक्षा में अधिक उपादेय सिद्ध हुई है। वे अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के होने के कारण कहानी सुनने में पूर्ण रुचि लेते हैं और कहानी द्वारा प्रस्तुत ज्ञान सरलता से समझ लेते हैं और मन में ग्रहण करते हैं।

कहानी – कथन प्रविधि बालकों की जिज्ञासा बढ़ाने में, उनकी काल्पनिक एवं तार्किक शक्तियों के विकास में, विषयवस्तु के सूक्ष्म एवं जटिल अंशों के स्पष्टीकरण में अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध हुई है।

कहानी-कथन अधिकतर छोटी कक्षाओं में ज्यादा लोकप्रिय है, परन्तु बड़ी कक्षाओं के छात्रों के साथ भी इस प्रविधि का प्रयोग अच्छे परिणाम देता है। जो शिक्षक अपने विषय का विशेषज्ञ है वह कहानी के रूप में विषयवस्तु को परिवर्तित कर, जटिल अंशों को सुगमतापूर्वक छात्रों को समझने में समर्थ होता है।

चिन्तनशील जर्नल (Reflective journals)- बालकों के बारे में अपेक्षित जानकारी एकत्रित करने के कार्य में चिन्तशील जर्नलों का काफी महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है, परन्तु यह देखने से पहले यह जानना आवश्यक हो जाता है कि चिन्तन् जर्नल क्या होते हैं और इन्हें किस तरह प्रबन्धित तथा काम में लाया जाता

चिन्तनशील जर्नल क्या हैं? (What are Reflective Journals?)

अपने सामान्य प्रचलित रूप में एक जर्नल, चिन्तशील और सृजक कवियों को एक ऐसा माध्यम प्रदान करने की क्षमता रखता है जिसके माध्यम से वे विचारों, भावनाओं तथा निष्कर्षों को अपने ढंग से सबके सामने रख सकते हैं। चिन्तशील जर्नलों के रूप में जिस प्रकार के जर्नल बालकों को अपने स्वयं के अनुभव तथा चिन्तन द्वारा प्राप्त विचारों, निष्कर्षों तथा भावनाओं को लिखित रूप में सबके सामने प्रस्तुत करने के लिए काम में लाये जाते हैं, उन्हें चिन्तनशील जर्नलों का नाम दिया जाता है। इन्हें विशुद्ध रूप से बालकों द्वारा स्वयं ही प्रबन्धित किया जाता है। बालक जो भी अधिगम करते हैं, उन्हें जिस प्रकार के अनुभव (विद्यालय या विद्यालय के बाहर) होते हैं और उनके परिणामस्वरूप वह जो भी सोचते हैं, जैसे भाव उनके अन्दर आते हैं, अनुभव की गयी बातों को अपने चिन्तन के आधार पर जिस रूप में भी समझते और ग्रहण करते हैं उनको स्पष्ट और खुले मन से अभिव्यक्ति ही लेखक के रूप में इन चिन्तनशील जर्नलों में बालकों द्वारा की जाती है। अपने इस रूप में चिन्तशील जर्नल सृजनात्मकता (Creativity) और रचनात्मकता (Constructivity) के भी पोषक होते हैं और इस तरह वे बालकों को अपने ढंग से ज्ञान ग्रहण करने और उसका उपयोग करने की क्षमता विकसित करते हैं। इन जर्नलों में बालक अपनी अभिव्यक्ति लिखित रूप में करने हेतु नोटबुक डायरी तथा कोरे कागजों का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु उन्हें अपनी लिखी हुई बातों को भली-भाँति सँभालकर रखना होता है ताकि दूसरे लोग उनकी भावनाओं तथा विचारों तक इन्हें पढ़कर समझ और अनुभव कर सकें। सामान्य तौर पर एक बालक के एक चिन्तनशील जर्नल में जिस प्रकार की सामग्री लिखित रूप में दर्ज होती रहती है, उसका सम्बन्ध निम्न बातों से होता है-

(i) किसी एक दिन या सप्ताह में बालक द्वारा क्या किया गया है, उसने क्या सीखा है। अथवा अनुभव किया है, उसका यह दिन या सप्ताह कैसा रहा आदि।

(ii) उसे क्या अच्छा लगा क्या नहीं, किस बात में उसे आनन्द आया किसमें नहीं, उसने क्या चाहा तथा अपनी चाहत / पसन्द की चीज न होने पर क्या अनुभव किया, उसने कौन-सी बातें भली-भाँति कीं और किन्हें वह बेहतर ढंग से नहीं कर पाया, इस प्रकार की चिन्तनशील अभिव्यक्ति।

(iii) व्यक्तिगत रूप या दूसरों के साथ मिलकर जो कार्य उसके द्वारा किया गया, वह उसकी दृष्टि में कैसा रहा?

(iv) जो भी कक्षा में एक सम्प्रत्यय, सिद्धान्त, नियम या विचार के रूप में पढ़ाया गया, वह उसे कितना समझ पाया और किस रूप में अब वह उसका उपयोग करने में समर्थ है।

(v) कक्षा सहपाठियों, विद्यालय के अन्य विद्यार्थियों, शिक्षकों, माता-पिता, परिवार के अन्य सदस्यों, पड़ोसियों तथा समुदाय के सदस्यों के साथ अन्तः क्रिया करने में उसके अनुभव किस प्रकार के रहे, उसे क्या अच्छा लगा तथा क्या बुरा, उसके अनुसार उन्हें क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं आदि।

इस प्रकार से एक अभिलेखित दस्तावेज (Recorded Document) के रूप में प्रस्तुत एवं चिन्तशील जर्नल (Reflective Journal) बालक विशेष को एक ऐसा माध्यम प्रदान करने की अपूर्व क्षमता रखता है जिसके द्वारा घर, परिवार, विद्यालय तथा समुदाय के साथ होने वाली अन्तः क्रियाओं तथा प्राप्त अनुभवों के ऊपर अपने समीक्षात्मक विचार तथा भावनाओं की खुलकर अभिव्यक्ति कर सके। जो कुछ भी इन जर्नलों में बालकों द्वारा अभिलिखित किया जाता है और जो प्रक्रिया ऐसा करने में उसके द्वारा अपनायी जाती है, उसकी प्रकृति काफी लचीली रहती है, यथा-

• बालकों को इस बात की पूरी आजादी रहती है कि वह अपने चिन्तशील विचारों तथा अनुभव की गयी बातों को जब उन्हें ऐसा करने के लिए समय मिले तब ओपन जर्नल में अभिलखित कर सके।

• वे जिस रूप में भी अभिलिखित करना चाहें, कर सकते हैं। अपने हाथ से लिख सकते हैं, कम्प्यूटर लैपटॉप या टेबलेट पर टाइप कर सकते हैं। ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग के रूप में इनकी प्रस्तुति कर सकते हैं तथा ऑन लाइन भी अपने जर्नल की प्रस्तुति उनके द्वारा की जा सकती है।

• इन जर्नलों पर अपनी प्रस्तुति के लिए उनके द्वारा जो प्रारूप अपनाया जाता है वह भी उनकी सुविधानुसार पर्याप्त लचीला हो सकता है, जैसे वह अपने जर्नल की प्रविष्टि दर्ज करने हेतु एक संरचित प्रारूप (Structured format) का उपयोग कर सकता है, एक निश्चित क्रम का अनुसरण कर सकता है, अपनी विवरणात्मक शैली अपना सकता है।

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