सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए शिक्षण (Education for encouraging creativity)
सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए शिक्षण- प्रतिभा के विकास हेतु यह आवश्यक-सा हो जाता है कि सही तरीके से प्रतिभा की खोज, समुचित शैक्षिक वातावरण तथा साधनों का भरपूर उपयोग किया जाय। यह निर्विवाद है कि प्रतिभा वह वस्तु है जिसका विकास सम्भव है। प्रतिभाशाली शिक्षार्थियों क लिये निम्न शैक्षिक प्रावधान सार्थक सिद्ध होंगे :
(i) इस प्रकार की परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई जायें तो पाठ्यक्रम तथा पाठ्यक्रमातिरिक्त क्रियाओं के समुचित परिवर्तन द्वारा जोखिम उठाने की प्रवृत्ति में सहायक हो। यह आवश्यक है कि कक्षा का वातावरण अधिकार तथा दबाव से मुक्त हो, तभी शिक्षार्थियों में मौलिकता, नमनीयता तथा स्वप्रेरित अधिगम के विकास की सम्भावना भी अधिक होगी।
अध्यापक को चाहिये कि वह ऐसे पाठ्य सामग्री का निर्माण करे जो बालकों में आत्मविश्वास पैदा कर सके। अध्यापन विधि ऐसी हो जो खोज तथा अनुसंधान को बढ़ाव देती हो। सौन्दर्यानुभूति सम्बन्धी मान्यताओं पर बल दिया जाना चाहिये। समस्या समाधान हेतु उपयुक्त श्रव्य-दृश्य साधनों का उपयोग किया जाना चाहिये।
(ii) अध्यापन के समय छात्रों को प्रोत्साहित करना चाहिये ताकि वह नवीन साहचर्य निर्मित कर सकें। उनमें समस्या के विभिन्न स्तरों को पहचानने की क्षमता उत्पन्न करनी चाहिये । सर्जनात्मक शिक्षण के लिये आवश्यक है कि समस्या समाधान के सन्दर्भ में तथ्यों का अधिगम कराया जाय। उनमें नवीन कल्पना एवं मौलिकता आदि को विकसित करने का पूरा प्रयास करना चाहिये । अध्यापक का यह भी कर्तव्य होता है कि वह सही मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति का विकास भी शिक्षार्थियों में करें। छात्रों में सही प्रकार के चिन्तन तथा मूल्यांकन की प्रवृत्ति सर्जनात्मकता का विकास करती है।
(iii) छात्रों में बहुधा पाई जाने वाली असफलता एवं भग्नाशा के निराकरण हेतु अध्यापक को उनकी प्रत्येक प्रकार में सहायता करनी चाहिये ताकि वह सांवेगिक अवरोधों को दूर कर सकें जिनके कारण सर्जनात्मक प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है।
(iv) अध्यापक को चाहिये कि वह जिस विषय को पढ़ा रहा हो उसके माध्यम से जो ज्ञात नहीं है उसके प्रति जागरूकता पैदा करे और जो ज्ञात है वह कैसे प्राप्त हुआ है उसकी भी जानकारी दे। इससे उनकी उत्सुकता को प्रोत्साहन मिलता है तथा जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार के मौलिक एवं नूतन विचारों का सर्जन होता है।
(v) छात्रों द्वारा निर्मित सर्जनात्मक उत्पाद को समय पर परखना व प्रशंसा करते हुए. उसका प्रचार करना अध्यापक के लिये आवश्यक-सा होता है।
(vi) शिक्षार्थियों में प्रयोगात्मक अभिरुचि का सर्जन तथा प्रोत्साहन दोनों ही इसलिए आवश्यक होते हैं ताकि वह विविध प्रकार की पाठ्य-वस्तु को समझकर ग्रहण करने में समर्थ हो सकें।
(vii) वस्तुत: शिक्षार्थियों में जो विभिन्न प्रकार की प्रतिभाएँ विद्यमान हैं; उन सभी के विकास हेतु कोई एक ही सुनिश्चित पथ नहीं होता। प्रत्येक प्रतिभा के विकास के लिये तौर-तरीके तथा योजनाएँ अपने में अनोखी होती हैं। अध्यापक को विद्यालयी वातावरण की सीमाओं को देखते हुए बालकों की प्रतिभा के विकास के लिये अधिकाधिक प्रयास करना चाहिये।
अपने अध्ययन के आधार पर टोरेन्स ने बालकों की सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-
(i) बालकों के प्रश्न की ओर आदरपूर्वक विचार करना।
(ii) कल्पनात्मक एवं असाधारण विचारों के प्रति आदर भाव का प्रदर्शन करना।
(iii) मूल्यांकन किये वगैर बच्चों को अनुसंधान और अभ्यास का अवसर प्रदान करना।
(iv) बच्चों के विचारों पर आदरपूर्वक चिंतन करना।
क्लॉसमियर और रिपेल ने सृजनशीलता के प्रोत्साहन के लिए निम्नलिखित तीन सिद्धांतों पर अमल करने की वकालत की है- (i) अपनी अभिव्यक्ति का प्रदर्शन, चित्रमय, मौखिक अथवा शारीरिक रूप से करना नवीन आकारों अथवा विचारों के लिए आवश्यक है। (ii) सृजनात्मक प्रयासों में सफलता उच्च स्तर की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से संबंधित है। (iii) अपसरण प्रकार से चिन्तन तथा व्यवहार करना तथा उसके साथ वर्तमान स्तरों को मान्यता देना तथा सहमत होना सृजनशीलता के लिए अनिवार्य है।
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