शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता से आप क्या समझते हैं?
ज्ञान केन्द्रित, परीक्षा केन्द्रित एवं शिक्षक केन्द्रित शिक्षा प्रक्रिया में बालक का अस्तित्व जब गौण हो गया तो इसकी तीव्र प्रतिक्रियास्वरूप बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में बाल केन्द्रित शिक्षा का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
रूसो तथा अन्य प्रकृतिवादी दार्शनिकों ने शिक्षा में बालक के उपेक्षित स्थान को चुनौतीस्वरूप लिया तथा ‘बाल केन्द्रित शिक्षा’ का नारा बुलन्द किया और बालक को प्राकृतिक एवं स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा प्रदान करने पर बल दिया। उन्होंने सर्वथा कृत्रिम अथवा अप्राकृतिक शिक्षा पद्धति का विरोध किया तथा ‘Go back to Nature’ का नारा बुलन्द किया। उनके अनुसार केवल प्राकृतिक एवं स्वतंत्र वातावरण में ही बालक की स्वाभाविक वृत्तियों एवं जन्मजात क्षमताओं का विकास संभव है। परिणामतः शिक्षा ‘विषय-केन्द्रिता’ या ‘शिक्षक केन्द्रिता’ से हटकर ‘बाल-केन्द्रित’ हो गई और अब पुराना वाक्य ‘शिक्षक लैटिन पढ़ाता है’ के स्थान पर ‘जॉन लैटिन पढ़ता है’ आ गया। इस प्रकार लैटिन और शिक्षक से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया बालक या जॉन।
शिक्षा का उद्देश्य मात्र ज्ञानार्जन ही नहीं रहा वरन् शिक्षा सर्वांग व्यक्तित्व विकास के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ी और इसे बल दिया मनोवैज्ञानिक क्रान्ति ने तथा ‘बाल-केन्द्रित शिक्षा के नारे ने । अतः अब बालक शिक्षा के लिए नहीं वरन् शिक्षा बालक के लिए समझी जाने लगी। परिणामतः बालक की योग्यताओं, रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं के अनुरूप ही पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाने लगा और प्रमुख हो गया बालक और उसका विकास और वह भी चतुर्मुखी व्यक्तित्व विकास अर्थात् उसके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं, शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक पहलुओं के सम्यक् व सन्तुलित विकास की प्रक्रिया। कहा जाता है कि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।’ यदि उक्त उक्ति पर चिन्तन-मनन किया जाये तो इसकी सार्थकता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता। चूँकि स्वस्थ शरीर ही व्यक्ति की सम्पूर्ण क्षमताओं के विकास को आधार प्रदान करता है। जिस प्रकार नींव मजबूत होने पर भवन की सुरक्षा व मियाद को सहज स्वीकार कर लिया जाता है। ठीक उसी प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए भी यही कहा जा सकता है कि स्वस्थ शरीर बालक की समग्र क्षमताओं के विकास, उसके विविध व्यक्तित्व सम्बन्धी पहलुओं को एक सुरक्षित आधार प्रदान करता है। कारण एक शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ बालक चतुर्मुखी व्यक्तित्व का धनी नहीं हो सकता है। प्राचीन काल से ही शारीरिक शिक्षा का प्रचलन समाज में रहा है। जैसे-जैसे विश्व सभ्यताओं का विकास होता गया, उसके साथ ही साथ शारीरिक शिक्षा का भी विकास होता गया। आधुनिक युग को ‘यन्त्र’ या ‘कल’ युग कहा जाता है और आज का मानव अनेक वितृष्णाओं, कुण्ठाओं एवं उलझनों से जूझ रहा है। सभ्यता, संस्कृति व आधुनिकीकरण की तीव्रगामी विकासात्मक प्रक्रिया ने मानव के स्वयं के जीवन को भी यन्त्रवत बना दिया है। फलतः कम से कम समय में अधिक से अधिक उपार्जित करने की ललक ने मानव की सहज ‘शारीरिक क्षमता’ को क्षीणतर बनाना प्रारम्भ कर दिया है। आज के मशीनी युग की देन यांत्रिक मानव का सारा समय मानसिक गुत्थियों को सुलझाने में लगा हुआ है। उसका सम्पर्क प्राकृतिक वातावरण से हटकर यांत्रिक वातावरण से कहीं अधिक हो गया है। अतः ऐसी स्थिति में प्राणदायिनी ‘संजीवनी-शिक्षा’, ‘शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता अत्यन्त तीव्रता से अनुभव की जा रही है। देश-विदेशों में खुलने वाले तथा बहुतायत से चलने वाले योग तथा ‘ऐरोबिक केन्द्र’ इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
आज बड़े शहरों में रहने वाले युवकों को ग्रामीण युवकों की तरह अपने घरेलू दैनिक जीवन में अभिभावकों के कामों में हाथ बँटाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के नवीन आविष्कारों ने आज शहरी मानव के लिए अधिकाधिक सुविधाएँ जुटा दी हैं। अतः आज व्यक्ति को अधिक पैदल नहीं चलना पड़ता, खेलकूद एवं विभिन्न शारीरिक गतिविधियों का स्थान ले लिया है, विविध मनोरंजनात्मक माध्यमों ने यथा रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा आदि। सत्यता तो यह है कि आज क्या ग्रामीण, क्या शहरी सभी नवयुवकों को यह आकर्षित कर रहा है। अतः ऐसी स्थिति में शारीरिक शिक्षा की महती आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
भारतीय संस्कृति जो अपनी विशिष्टताओं के लिए संसार में प्रख्यात रही है। शारीरिक शिक्षा विभिन्न कला-कौशल, खेल व व्यायाम उसके अभिन्न अंग रहे हैं। यदि हम प्राचीन वैदिक इतिहास उठाकर देखें तो ज्ञात होगा कि हमारे परम तपस्वी, ऋषि मुनि न केवल आध्यात्मिकता में चरमोत्कर्ष पर पहुँचे थे वरन् शारीरिक सौष्ठव व उत्तम स्वास्थ्य भी उनकी शारीरिक सक्षमता के द्योतक रहे हैं। यही कारण था कि राजपुत्र हो या वैश्य पुत्र सभी को विद्यार्जन में समय गुरुकुलों में शारीरिक क्रियाओं, कौशलों व व्यायामों में निपुण बनाने का प्रयास किया जाता था। वहाँ चाहे भगवान कृष्ण हों या राम, अर्जुन या एकलव्य जैसे धनुर्धारी हों या बलराम और भीम जैसे श्रेष्ठ योद्धा हों। सभी को शारीरिक कला-कौशलों में निपुण बनाना हमारी संस्कृति का परम ध्येय था। निःसन्देह हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों तथा वेद पुराणों ने शारीरिक शिक्षा पर बहुत बल दिया है।
न केवल प्राचीन शिक्षा दर्शन में वरन् आधुनिक शिक्षा दर्शन में भी मूल्य मीमांसा के अन्तर्गत वैदेशिक विद्वानों द्वारा भी मूल्य विवेचना करते समय जैवकीय मूल्यों पर भी सम्यक् रूप से बल दिया गया है। प्रसिद्ध विद्वान् अर्बन द्वारा मूल्यों का वर्गीकरण करते समय अति-जैविक मूल्यों के साथ ही साथ जैवकीय मूल्यों को समान रूपेण महत्त्व प्रदान किया है-
अर्बन ने मूल्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है-
इसी प्रकार भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार मूल्यों की संकल्पना प्रेयस् और निःश्रेयस् दोनों को साथ लेकर चलती है। यही कारण है कि प्राचीन ऋषि-मुनियों ने पुरुषार्थ चतुष्ट्य की अवधारणा को बल दिया तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को ही जीवन के महत्त्वपूर्ण मूल्य निर्धारित किये।
आधुनिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मूल्यों को लक्ष्य प्राप्ति एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के रूप में पारिभाषित करने का प्रयास किया गया है। मैसलो ने इसे एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता तथा एच० मारगेनो ने इसे मानवीय आवश्यकताओं के सन्तोष के अर्थ में परिभाषित किया है।
किसी भी समाज का दर्शन तत्सम्बन्धित मूल्यों एवं शिक्षा के लक्ष्यों को प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ, प्राचीन भारतीय समाज का दर्शन आध्यात्मिक था। अतः मूल्य शाश्वत सनातन व निरपेक्ष थे। फलतः ‘सा विद्या या विमुक्तये’ के आधार पर शिक्षा का चरम लक्ष्य ‘मोक्ष प्राप्ति’ माना गया। समय व परिस्थितियों के साथ-साथ जीवन दर्शन भी बदला। अतः हमारे शैक्षिक लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति तक सीमित न रहकर अधिक भौतिक व यथार्थ हो गये।
कहना न होगा कि शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन तक ही सीमित न रहकर व्यक्ति के सर्वांग व्यक्तित्व विकास के उद्देश्य को लेकर चलने लगा। अतः शिक्षा को बालक के चतुर्मुखी विकास का साधन माना गया अतः शिक्षा को व्यक्ति की अन्तर्निहित या जन्मजात वृत्तियों के परिष्कार की प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया। इस तथ्य को निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लिया गया है कि व्यक्ति/शिक्षार्थी का व्यक्तित्व तभी सन्तुलित रूप से विकसित हो सकता है जबकि उसके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं यथा शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक के विकास पर यथेष्ट रूप से ध्यान दिया जाये।
किसी भी देश की उन्नति व समृद्धि उस देश के स्वस्थ व शिक्षित नागरिकों पर निर्भर करती है। स्वस्थ व स्फूर्तिदायक नवयुवक ही कल के सुखद भविष्य के कर्णधार हैं। अतः किसी भी दृष्टि से शारीरिक पक्ष के विकास की उपेक्षा नहीं की सकती है। इस दृष्टि से शारीरिक शिक्षा एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसकी महत्त्वपूर्ण उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। यही कारण है कि आज शारीरिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में एक महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में समाहित कर लिया गया है।
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