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संक्रामक रोग का अर्थ
वह रोग जो विशिष्ट संक्रमण प्रतिनिधि या उसके विषाक्त उत्पादों के द्वारा समुदाय के अन्य व्यक्तियों में फैलता है, संक्रामक रोग कहलाता है। मानव में किसी भी रोग की उत्पत्ति के लिए तीन कारक आवश्यक हैं— रोग के कारक, परपोषी घटक या होस्टल और पर्यावरणीय घटक। इन तीन घटकों को जानपदिकरोगी विज्ञान त्रयी कहते हैं।
1. रोग के कारक
किसी भी रोग के होने की पहली आवश्यकता रोग के कारक हैं। रोग कारक जीवित या अजीवित दोनों में से एक या दोनों ही हो सकते हैं। एक रोग के लिए कोई एक कारक या अनेक कारक भी हो सकते हैं। रोग से सम्बन्धित उल्लेखनीय कारक निम्न हैं-
(i) जैविक कारक- ऐसे जीवित कारक जो संक्रमण के लिए उत्तरदायी होते हैं और जो मानव, जानवर, कीट, मृदा एवं वायु में विद्यमान होते हैं, जीवित कारक कहलाते हैं। कुछ प्रमुख जैविक रोग कारक जीवाणु विषाणु, कवक एवं प्रोटोजोआ आदि हैं।
(ii) पोषण कारक- भोजन में विद्यमान विभिन्न प्रकार के मुख्य एवं सूक्ष्म पोषक तत्त्व जैसे, कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, विटामिन, खनिज लवण और जल में असंतुलन, कमी या वृद्धि के कारण भी अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
(iii) यांत्रिक कारक-यांत्रिक मशीनों के कारण मानव शरीर में चोट, घाव, अस्थिभंग आदि भी हो सकते हैं।
(iv) भौतिक कारक- भौतिक कारक के अन्तर्गत ताप, दाब, शीत, विद्युत एवं विकिरण आदि के सम्पर्क के कारण से भी अनेक रोग हो सकते हैं।
(v) रासायनिक कारक- रासायनिक कारकों के अन्तर्गत अम्ल, क्षार, गैर, धातुएँ, धूल एवं धुँआ आदि से भी अनेक रोग हो सकते हैं।
(vi) सामाजिक कारक- सामाजिक कारकों के अंतर्गत गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या वृद्धि मादक पदार्थों का सेवन, धूम्रपान, मद्यपान आदि कारकों से भी अनेक रोग हो सकते हैं।
2. परपोशी घटक
किसी भी रोग के संक्रमण के लिए परपोशी घटक अत्यधिक सीमा तक उत्तरदायी होते हैं। परपोशी घटकों को निम्नलिखित समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(i) जनसांख्यिकी घटक- इस घटक के अंतर्गत व्यक्ति की आयु, लिंग आदि सम्मिलित होते हैं। आयु के अनुसार भी रोग देखने को मिलते हैं। कुछ रोग बचपन में जैसे खसरा रोग, काली खांसी आदि होते हैं तो कुछ रोग वृद्धावस्था में जैसे मोतियाबिन्द, प्रोस्टेट ग्रन्थि की वृद्धि आदि होते हैं। इसी प्रकार कुछ रोग महिलाओं में अधिक जैसे मधुमेह और कुछ रोग पुरुषों में अधिक जैसे हृदय रोग होते हैं।
(ii) जैविक-घटक-इसके अन्तर्गत हानिकारक जीन संरचना से कुछ रोग होते हैं जैसे हीमोफीलिया, रंजकहीनता, वर्णान्धता। इसके अतिरिक्त जीन प्रवृत्ति के कारण अनेक जन्मजात रोग (खण्ड तालु, कटे होंठ) मानसिक रोग, रक्त सम्बन्धी रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप जैसे रोग भी होते हैं।
(iii) सामाजिक एवं आर्थिक घटक- मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने समरूप के अन्य व्यक्ति से भिन्न होता है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक घटक भिन्न भिन्न होते हैं। इन घटकों जैसे, शिक्षा, स्वास्थ्य, वैवाहिक स्थिति, व्यवसाय आदि से भी रोग की उत्पत्ति प्रभावित होती है।
(iv) जीवन-शैली कारक- जीवन-शैली से सम्बन्धित कारकों में व्यक्ति के सामुदायिक वातावरण के रीति-रिवाज, नैतिकता, आदतें, पोषण, शारीरिक श्रम, व्यक्तित्व आचरण, मद्यपान, धूम्रपान आदि आते हैं। इन कारकों से भी रोग की स्थिति प्रभावित होती है।
3. पर्यावरणीय घटक
मानव जीवन में होने वाले अनेक रोगों के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर प्रदूषित पर्यावरण पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता है-
(i) भौतिक पर्यावरण- इसके अन्तर्गत वायु, जल, मौसम, आवास, भूमि, प्रकाश, ताप, विकिरण, शोरगुल, कचरे एवं मलमूत्र का निपटान आदि आते हैं। ये भी मानव में अनेक रोगों की उत्पत्ति के कारण होते हैं।
(ii) जैविक पर्यावरण- इसमें वातावरण में पाए जाने वाले जीव। जैसे-जानवर, कीड़े आदि आते हैं। ये भी विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं।
(iii) मनो-सामाजिक पर्यावरण- इसके अन्तर्गत मानव समाज के विभिन्न रीति-रिवाज, शिक्षा, अंधविश्वास, जीवन स्तर संस्कृति आदि का भी परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर रोग की उत्पत्ति में योगदान होता है।
संक्रामक रोगों के प्रकार एवं उनका प्रसार
संक्रामक रोगों को मुख्यतः उनके सम्प्रेषण के तरीकों के अनुसार चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है—
1. वायु-जनित संक्रमण
इस समूह में वे रोग कारक आते हैं जो अन्तः श्वसन के माध्यम से शरीर में जाने के बाद संक्रमण और रोग को जन्म देते हैं। सामान्यतः प्राथमिक रोग प्रक्रिया श्वसन तंत्र से आरम्भ होती है और अंततः संक्रमण एक श्वसन से सम्बन्धित रोग (डिप्थीरिया, तपेदिक) अथवा श्वसन से असम्बन्धित रोग (चेचक, खसरा, कुष्ठ रोग) के रूप में सामने आता है। वायु जनित संक्रमण के फैलाने के मुख्य चार माध्यम हैं-
(i) प्रत्यक्ष बिन्दुक संक्रमण- एक व्यक्ति द्वारा खाँसने, छींकने, हँसने और बात करने की क्रिया के दौरान उसके मुख एवं नासिका से थूक के कण उसके पास 1 मीटर के दायरे में स्थित व्यक्तियों में मुख एवं नाक के माध्यम से प्रवेश करते हैं। इस प्रकार का संक्रमण तब होता है जब रोग के कारकों में कम जीवन क्षमता होती है जैसे सामान्य सर्दी-जुकाम और कुकर खाँसी ।
(ii) प्रत्यक्ष वायु-जनित संक्रमण- कुछ बिन्दु कण या बिन्दुक नाभिक वायु में अपनी उपस्थिति लम्बे समय तक दर्ज कराते हैं और वायु के माध्यम से लम्बी दूरी तय करते हैं ऐसे बिन्दु कण अन्तः श्वसन के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। चेचक और खसरा रोग का फैलाव इसी प्रकार से होता है।
(iii) अप्रत्यक्ष वायु-जनित संक्रमण- कुछ बड़े बिन्दुक कण कपड़े, बिस्तर या फर्श पर गिर जाते हैं और वहीं संग्रहित रहते हैं। जब ये बिन्दुक कण सूख जाते हैं तो रोग कारक सीधे या धूल के माध्यम से अन्तःश्वसित कर लिये जाते हैं। सन्निपात बुखार, गले में खराश और तपेदिक इसी प्रकार फैलते हैं।
(iv) सम्पर्क-जनित संक्रमण- इस प्रकार के संक्रमण प्रत्यक्ष रूप से चुम्बन एवं अप्रत्यक्ष रूप से दूषित भोजन, दूध, हाथ, शल्यक्रिया के उपकरण आदि से फैलते हैं। उदाहरणार्थ, गले में खराश और डिप्थीरिया
2. जल एवं भोजन-जनित संक्रमण
इस तरह के संक्रमण संदूषित जल और भोजन के माध्यम से फैलते हैं। इस प्रकार के संक्रमण सामान्यतयः मलीय पदार्थ से सम्बन्धित होते हैं। रोग के कारक जल एवं भोजन के माध्यम से शरीर में प्रवेश करते हैं, ये आँतों में बहुगुणित होते हैं और मल के रूप में शरीर से निष्कासित कर दिये जाते हैं। ये संदूषित मल धूल एवं मक्खियों के माध्यम से जल, दूध, भोजन एवं हाथों को संक्रमित कर देता है।
3. सम्पर्क या सतही संक्रमण
इस समूह अंतर्गत संक्रमण रोगी व्यक्ति की त्वचा और श्लेष्मा झिल्ली से बाहर आता है और शारीरिक या यौन सम्पर्क के दौरान स्वस्थ व्यक्ति में उसकी त्वचा और श्लेष्मा झिल्ली के माध्यम से प्रवेश करता है। इस प्रकार का संक्रमण अप्रत्यक्ष रूप से भी संक्रमित पदार्थों के द्वारा फैल सकता है जैसे काज़ल तीली और रूमाल से ट्रैकोमा, तौलिये के द्वारा गोनोरियल वल्वोवेजिनिटिस और जुराबों के द्वारा दाद-खाज ।
4. कीट जनित संक्रमण
कीट रोग कारकों को दो तरीके से फैलाते हैं-
(1) यांत्रिक वेक्टर के रूप में- संक्रमण मक्खियों के पंख, पैर और मुख के माध्यम से भोजन और जल में पहुँचता है। हैजा और कुछ अन्य जल और खाद्य जनित रोग इसी प्रकार फैलते हैं।
(2) जैविक वेक्टर के रूप में- इस रूप में संक्रमण मक्खियों और कीटों से मानव के शरीर में उनके काटने से या त्वचा के संक्रमित करने से फैलता है।
संक्रामक रोग नियंत्रण के उपाय
संक्रामक रोगों के नियंत्रण के लिए किए जाने वाले उपायों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-
(I) संक्रमण के स्त्रोतों का नियंत्रण
संक्रमण रोग फैलाने वाले स्रोतों का नियंत्रण निम्न तरीकों से करते हैं-
(1) शीघ्र रोग उपचार- किसी समुदाय विशेष में संक्रामक रोग के प्रसार को रोकने के लिए प्रथम कदम संभावित रोगियों का सही एवं शीघ्र उपचार या उनकी पहचान करना है।
(2) अधिसूचना- ग्रामीण क्षेत्रों के अन्तर्गत रोग फैलाने के 24 घण्टे के अन्दर ही स्वास्थ्यकर्त्ता के द्वारा नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र को सूचित करना पड़ता है तथा शहरी क्षेत्रों में इसकी सूचना स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारी जैसे कि नगरपालिका या नगर निगम के स्वास्थ्य अधिकारी को करना पड़ता है।
(3) पृथक्करण- संक्रामक रोगों से पीड़ित व्यक्ति या व्यक्तियों को पृथक् रखना चाहिए। इसका उद्देश्य समुदाय में रोग के प्रसार को सीमित करना होता है। इनको अलग रखने का स्थान में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसके लिए हर स्थिति में घर से बेहतर अस्पताल होता है।
(4) उपचार- उपचार करने से रोग के संचार में कमी आती है, रोग की अवधि कम हो जाती है और नये रोगी बनने पर रोक लग जाती है।
(5) निगरानी- इसके अन्तर्गत संक्रमण के नये स्रोतों का पता लगाने के लिए सभी रोगियों को उनके क्षेत्र में उचित जाँच-पड़ताल और त्वरित नियंत्रण करने के उपायों को लागू करना भी सम्मिलित है।
(6) विसंक्रमण- रोगी के द्वारा उत्सर्जित व्यर्थ पदार्थों को और रोगी के द्वारा उपयोग में लायी हुई वस्तुओं को नष्ट कर देना चाहिए।
(II) रोग संचार के मार्गों को अवरुद्ध करना
रोग संचार के विभिन्न मार्गों को अवरुद्ध करने के लिए निम्नलिखित उपलब्ध उपायों का उपयोग करना चाहिए-
(a) उपलब्ध जल प्रदायों को विसंक्रमित करना।
(b) मानव मल एवं कचरे का सुरक्षित निपटान करना।
(c) विभिन्न प्रकार के कीटों पर नियंत्रण करना।
(d) भोजन स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना।
(III) प्रवणशील जनसंख्या को सुरक्षा प्रदान करना
प्रवणशील जनसंख्या को सुरक्षा दो प्रकार से दी जा सकती है-
(1) प्रतिरक्षण – अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों की रोकथाम करने का सर्वोत्तम उपाय है रोग आरम्भ होने के पूर्व उसकी प्रतिरक्षा।
(2) स्वास्थ्य शिक्षा- किसी भी तरह के रोग के सफल नियंत्रण के लिए सामुदायिक भागीदारी सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से इसके लिए जनसहयोग प्राप्त किया जा सकता है।
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