शारीरिक शिक्षा और सामान्य शिक्षा में सम्बन्ध
शिक्षा का लक्ष्य छात्र की सर्वांग उन्नति है और इसे प्राप्त करने में शारीरिक शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के फलस्वरूप यह शैक्षिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा भावनात्मक पक्षों का विकास करके एक संतुलित व्यक्तित्व निर्माण में योगदान देती है।
1. शिक्षा एवं शारीरिक शिक्षा के सम्बन्ध पर विभिन्न दार्शनिकों एवं शिक्षाविदों के विचार – अरस्तू के अनुसार — “स्वस्थ शरीर में मस्तिष्क की उत्पत्ति का नाम शिक्षा है। देश के लिए – व्यक्तियों का शारीरिक विकास कितना आवश्यक है इस पर जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है— “मेरा विचार है कि जब तक हमारा शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा, तब तक हम वास्तव में अधिक मानसिक प्रगति नहीं कर सकेंगे।”
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् शारीरिक शिक्षा को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाने की सिफारिश करते हैं। उन्हीं के शब्दों में, “मानव शरीर आत्मा की अभिव्यक्ति का साधन है। अतः उपयुक्त रूप में शारीरिक शिक्षा अनिवार्य है।”
जे.बी. नैश ने बड़े ही सुन्दर ढंग से उल्लेख किया है—“हम शिक्षा को खण्डों में विभक्त नहीं कर सकते और न ही इस बात की आशा कर सकते हैं कि प्रत्येक खण्ड के भिन्न-भिन्न परिणाम प्राप्त होंगे।”
2. शारीरिक शिक्षा जीवन की शिक्षा के रूप में- शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम में उतना – ही महत्त्व है जितना अन्य विषयों का। शिक्षा का लक्ष्य केवल 3 रुपये पढ़ना, लिखना एवं गणित की शिक्षा देना नहीं है अपितु 7 रुपये की शिक्षा देना है। यह शिक्षा तभी दी जा सकती है जबकि शिक्षा एवं शारीरिक शिक्षा में उचित समन्वयन हो। इसी बात को स्वीकारोक्ति प्रदान करते हुए चार्ल्स ए. बूचर, क्लार्क हैथरिंगटन एवं जे.बी. नैश जैसे शारीरिक शिक्षाविदों ने शारीरिक शिक्षा को शैक्षिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग माना है।
3. शिक्षा एवं शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास – शारीरिक – शिक्षा सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग है जो गुणवत्तापरक निर्देशित शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से व्यक्ति के जीवन के शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्षों को एकीकृत एवं परिवर्द्धित करती है।
इसी सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द का कथन है कि “सभी प्रकार की शिक्षा, सभी प्रकार के प्रशिक्षण एवं शैक्षिक कार्यक्रमों का अंतिम उद्देश्य व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना ही है।” थॉमस वुड के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा का ध्येय व्यक्ति की सर्वांगीण शिक्षा में योगदान से सम्बन्धित होना चाहिए।”
4. शैक्षिक प्रक्रिया का प्रथम सोपान शारीरिक शिक्षा – शिक्षा को पूर्ण होने के लिए उसमें पाँच प्रधान पहलू होने चाहिए। इनका सम्बन्ध मनुष्य की पाँच प्रधान क्रियाओं से होता है शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, आंतरात्मिक एवं आध्यात्मिक साधारणतया शिक्षा के यह सब पहलू व्यक्ति के विकास के अनुसार, एक के बाद एक कालक्रम से आरम्भ होते हैं। शिक्षा का पहला सबक बच्चा शारीरिक गतियों के माध्यम से ही सीखता है। इस संबंध में ए. आर. वेमेन के शब्दों में, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह पक्ष है जो शारीरिक गतिविधियों के माध्यम से सम्पूर्ण व्यक्ति के विकास और प्रशिक्षण से सम्बन्धित है।” डी. ओबर्टयुफर ने भी इसी तरह के विचारों को रेखांकित किया है, “शारीरिक शिक्षा उन अनुभवों का संकलन है जो व्यक्ति को शारीरिक गतियों द्वारा प्राप्त होते हैं।”
5. सामाजिक सद्भाव एवं भावनात्मक स्थिरता के स्त्रोत के रूप में शारीरिक शिक्षा – शिक्षा समाज की उन्नति का स्रोत मानी जाती है तथा व्यक्ति इसका आधार है। व्यक्ति सामाजिक वातावरण से ज्ञान प्राप्त करता है। उत्साह, आज्ञापालन, सहयोग, अनुशासन तथा साहस जैसे गुणों को ग्रहण करता है। शारीरिक शिक्षा शैक्षणिक कक्षाओं एवं खेल के मैदानों में व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है जिसके द्वारा इन गुणों का उदय होना स्वाभाविक है। शारीरिक शिक्षा छात्रों को सामाजिक वातावरण में सामंजस्य स्थापित करने का सकारात्मक शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के योग्य बनाती है। प्राणी में प्रवृत्तियाँ और संवेग जैविक देन हैं। शारीरिक शिक्षा द्वारा ही इन प्रवृत्तियों एवं संवेगों को उत्साहित तथा नियंत्रित किया जा सकता है।
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